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सायण ने भी व्रात्य का अर्थ प्राचारहीन किया है, वह व्रात्य है ।17 डा. हेवर प्रस्तुत शब्द का है।10
अर्थ लिखते हैं--व्रात्य का अर्थ व्रतों में दीक्षित है उपयुक्त सभी उल्लेखों में व्रात्य का अर्थ
अर्थात् जिसने आत्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छा
पूर्वक व्रत स्वीकार किये हों वह व्रात्य है ।18 यह प्राचारहीन बताया गया है जबकि इनसे पूर्ववर्ती
__ निर्विवाद सत्य है कि व्रतों की परम्परा श्रमरण जो ग्रन्थ हैं उनमें यह अर्थ नहीं हैं, अपितु विद्वत्तम,
__संस्कृति की मौलिक देन है। डा. हर्मन जेकोबी महाधिकारी पुण्यशील और विश्वसम्मान्य प्रादि
की यह कल्पना कि जैनों ने अपने व्रत ब्राह्मणों से महत्वपूर्ण विशेषण व्रात्य के लिए व्यवहृत हुए।
३५ लिए हैं। निराधार कल्पना ही है। वास्तविक है। 11 व्रात्यकाण्ड की भूमिका में प्राचार्य सायण
सत्य उसमें नहीं है। अहिंसा आदि व्रतों की ने लिखा है-- इसमें व्रात्य की स्तुति की गई है।
परम्परा ब्राह्मण संस्कृति की नहीं, जैन संस्कृति उपनयन प्रादि से हीन मानव व्रात्य कहलाता है।
की देन है । वेद ब्राह्मण और प्रारण्यक ऐसे मानव को वैदिक कृत्यों के लिए अनधिकारी
साहित्य में कहीं पर भी व्रतों का उल्लेख और सामान्यतः पतित माना जाता है। परन्तु नहीं पाया है उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों में कोई व्रात्य ऐसा हो जो विद्वान् और तपस्वी हो, जो उल्लेख मिलता है वह सारा भगवान पार्श्वनाथ ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करे परन्तु वह सर्वपूज्य के पश्चात का है। भगवान पार्श्व की व्रत परम्परा होगा और देवाधिदेव परमात्मा के तुल्य होगा।
का उपनिषदों पर प्रभाव पड़ा और उन्होंने उसे यह स्पष्ट है कि अथर्ववेद के व्रात्य-काण्ड का स्वीकार कर लिया । यही तथ्य श्री रामधारी सिंह सम्बन्ध किसी ब्राह्मणेतर परम्परा से है । व्रात्य ने दिनकर ने निम्न शब्दों में बताया है-'हिन्दुत्व अपने पर्यटन में प्रजापति को भी प्रेरणा दी और जैनधर्म प्रापस में घुलमिलकर इतने एकाकार थी।13 उस प्रजापति ने अपने में सुवर्ण पात्मा हो गये हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता को देखा।14
भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और प्रश्न उठता है कि यह व्रात्य कौन है जिसने अपरिग्रह ये जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के प्रजापति को प्रेरणा दी ? डा. सम्पूर्णानन्द व्रात्य का अर्थ परमात्मा करते हैं 13 और बलदेव
वात्य प्रासीदीयमान एवं स प्रजापति समैरउपाध्याय भी उसी अर्थ को स्वीकार करते हैं.16 किन्तु व्रात्य काण्ड का परिशीलन करने पर प्रस्तुत
यत्" इस सूत्र में "पासीदीयमान" शब्द का प्रयोग कथन युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । व्रात्य-काण्ड में
हुअा है । उसका अर्थ है-पर्यटन करता हुमा । जो वर्णन है वह परमात्मा का नहीं अपितु किसी
यह शब्द श्रमण संस्कृति के सन्त का निर्देश करता देहधारी का है। हमारी दृष्टि से उस व्यक्ति का
है । श्रमण संकृति का सन्त आदि काल से ही नाम ऋषभदेव है । क्योंकि भगवान ऋषभदेव एक
पक्का घुमक्कड़ रहा है । धूमना उसके जीवन की
प्रधानचर्या रही है। वह पूर्व, पश्चिम 22 वर्ष तक तपस्या में स्थिर रहे थे। एक वर्ष तक
उत्तर और दक्षिण आदि दिशाओं में अप्रतिबद्ध निराहार रहने पर भी शरीर की पृष्टि और दीप्ति
रूप से परिभ्रमण करता है। प्रागम साहित्य में कम नहीं हुई थी।
अनेक स्थलों पर उसे अप्रतिबन्ध बिहारी कहा है। व्रात्य शब्द का मूल व्रत है। व्रत का अर्थ वर्षावास के समय को छोड़कर शेष पाठ माह तक धार्मिक संकल्प, और जो संकल्पों में साधु है, कुशल वह एक ग्राम से दूसरे ग्राम, एक नगर से दूसरे नगर
नहीं।20
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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