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धर्म का सार गीता के सात सौ श्लोकों में मिल से बढ़कर किसी का प्रसर मेरे चित्त पर नहीं है। गया है"वैसे जैनों का होना चाहिए। यह जैनों उसका कारण यह है कि महावीर ने जो प्राज्ञा दी के लिए मुश्किल बात थी, इसलिए कि उनके, है वह बाबा को पूर्ण मान्य है। प्राज्ञा यह कि भनेक पन्थ हैं और ग्रन्थ भी अनेक हैं । आखिर सत्यग्राही बनो।"सब धर्मों में, सब पन्थों में "सब वर्णी नाम का एक बेवकूफ निकला और बाबा की मानवों में सत्य का जो प्रश है उसे ग्रहण करना बात उसको जंच गई। वे अध्ययनशील हैं।" . चाहिए।" उन्होंने जैन धर्म सार" नाम की एक किताब प्रकाशित की। उसकी हजार प्रतियां निकाली और जिस सर्व-सेवा-संघ ने इस हरक्यूलिस कार्य जैन समाज के विद्वानों के पास तथा जैन समाज को हाथ में लिया और उसे मूर्तरूप दिया उसके के बाहर के विद्वानों के पास भेजदीं। विद्वानों के सम्बन्ध में भी यहां दो शब्द कह देना असंगत नहीं सुझावों पर कुछ गाथाओं का हटाना, कुछ का होगा। सर्व-सेवा-संघ गांधी जी द्वारा प्रवर्तित तथा जोड़ना. यह सारा करके "जिण धम्म” किताब संचालित विभिन्न रचनात्मक प्रवृत्तियों का एक प्रकाशित की। फिर उस पर चर्चा करने के लिए मिला जुला संगठन है। संघ के प्रकाशन विभाग बाबा के पाग्रह से एक संगीति बैठो मोर उसमें ने विनोबाजी की भावना को अमली जामा पहनाने मुनि, प्राचार्य और दूसरे विद्वान, श्रावक मिलकर के लिए इस प्रायोजन और प्रकाशन का दायित्व लगभग तीन सौ लाग इकट्ठे हुए । बार बार चर्चा उठाया है । वास्तव में यह कार्य सम्पूर्ण जैन करके फिर उसका नाम भी बदला, आखिर समाज का ही था। अब यह हमारा, प्रत्येक सर्वानुमति से "श्रमरण-सक्तम' जिसे प्रधं मागधी सत्याग्राही का पावन दायित्व हो जाता है कि में "समरण-सुत्त" कहते हैं तथा उसमें 756 'समरण-सुत्त" के द्वारा भगवान महावीर की गाथाएं हैं। 7 का प्रांकड़ा जैनों को बहुत प्रिय है। कल्याणकारी वाणी नगर-नगर, घर-घर पहुंचे । 7 और 108 को गुणा करो तो 756 बनता है। यह मानव जगत को उनके 2500 वे निर्वाण वर्ष पौर तय किया कि चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को वर्धमान की एक अनुपम भेंट है। (इस ग्रन्थ राज का वही जयन्ती प्रायगी जो इस साल (1975) 24 स्थान है जो गीता, बाइबिल, कुरान शरीफ और पप्रेल को पड़ती है, उस दिन वह ग्रन्थ अत्यन्त धम्मपद का है।) क्या ही अच्छा हो यदि ऐसी ही शुद्ध रीति से प्रकाशित किया जायगा और मागे के एक अोर संगीति प्रायोजित की जाय जो श्रमण लोग जब तक जैन धर्म मौजूद है, तब तक सारे श्रावकों के लिए इस बदलते युग के परिप्रेक्ष्य में नैन लोग और दूसरे लोग भी जैन धर्म का सार एक प्रागम-सम्मत सर्वमान्य प्राचार सहिता तैयार पढ़ते रहेंगे। एक बहुत बड़ा कार्य हुप्रा है, जो करदे । वह काम भी कम महान नहीं होगा । हजार पन्द्रह सौ साल में हुमा नहीं था। उसका जैन धर्म में अनेक आगम ग्रन्थ हैं परन्तु उनमें कोई निमित्त मात्र बाबा बना लेकिन बाबा को पूरा एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं था जो जैन समाज के विश्वास है कि यह भगवान महावीर की कृपा है। सभी अनुयायियों को समान रूप से मान्य हो और
मैं कबूल करता हूं कि मुझ पर गीता का जैन धर्म के जिज्ञासुग्रों को प्रतिनिधि ग्रन्थ के रूप में गहरा प्रसर है। उस गीता को छोड़ कर महावीर रिकमेन्ड किया जा सके ।
बहावीर जयन्ती स्मारिका 71
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