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वसुमती-पापको लज्जा नहीं पाती ऐसा कहते ? अपने लाडले चन्द्र को नाग ने डस लिया है और
भाप पूजन में मग्न हैं । धिक्कार है ऐसी भक्ति को। धनंजय--क्रोध को धिक्कार करो देवी ! कष्ट देह प्रात्मविद्रोह मत करो। क्रोध का विष नाग के
विष से अधिक भयंकर है; जो निरन्तर प्रात्मशान्ति को नष्ट कर रहा है। विष का विष
से शमन नहीं होता। शांतिधारण करो। वसुमती--जिसका इकलौता पुत्र नाग दंशन से चार पांच घड़ी से मूच्छित पड़ा हो, उस प्रशान्त
व्यथित मां को शान्ति का उपदेश दिया जा रहा है ? श्रेष्ठिन् ! मेरे नेत्रों के सम्मुख मृत्यु की विभीषिका का नग्न तांडव हो रहा है। मां की ममता अभी सोई नहीं है । शांति
धारण करूं तो कैसे ! (मन विषाद से भर पाता है । प्रांसुमों की झड़ी लग जाती है।) धनंजय--देवी ! धैर्य रखो । प्रायुष्य शेष है, तो बालक की मूर्छा शीघ्र टूट जायगी।
[श्रेष्ठी धनंजय प्रभु के अभिषेक का जल बालक पर छिड़कते हैं । क्षणेक पश्चात् चन्द्रकुमार प्रसन्नचित मुस्कराता हुआ उठकर बैठ जाता है । जय जयकार का जनरव गूंज जाता है । सब धन्य धन्य कह उठते हैं । वसुमती का हृदय गद्गद् हो जाता है। वे चन्द्र
कुमार को वक्षस्थल से लगा हर्ष विभोर हो जाती है ।] तत्पश्चात्... वसुमती--(प्रायश्चित के स्वर में) मुझे क्षमा करें नाथ ! मैं मोह से बावली ममता से प्रशांत थी। धनंजय---तुम्हारा दोष नहीं है देवी ! मिथ्या दृष्टि के विष का ऐसा ही दुनिवार प्रभाव होता है ।
जब तक प्राणी धन-जन में मुख मानेगा; तब तक प्रशांति ही होती रहेगी। वसुमती--तब क्या करू श्रेष्ठिन् ? धनंजय--वस्तु स्थिति की स्वतन्त्रता को यथावत् समझकर मात्मसात् होने का सद् प्रयत्न करो। वसुमती-इसका सूत्र क्या है देव ! धनंजय--अपने प्रात्मा से अत्यन्त पृथक जन-धन, यहां तक कि मन को भी अनुकूल प्रतिकूल बनाने
की वृत्ति दुखद है । संसार के समस्त पदार्थों की अवस्थायें स्वतन्त्र रूप से अपने में निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं । करने करने की वृत्ति से प्राकुल हो प्रात्मस्वभाव की हत्या क्यों करो!
वसुमती--न करने की वृत्ति रूप पाचरण तो अत्यन्त कठिन है नाथ ! धनजय- पाचरण के पूर्व चिन्तनपूर्वक ऐसे विचारों का होना अनिवार्य है। विचारों के सुदृढ़ होते
ही तद्रूप प्राचरण स्वयमेव हो जाता है । प्राचरण शारीरिक क्रिया का नाम नहीं प्रात्म
स्वभाव में रमण करने का है, जो अन्तधिना से प्रकट हो जाता है। वसुमती--प्रात्मस्वभाव कैसा होता है श्रेष्ठी ! धनजय--अक्षय ज्ञान स्वरूप । ज्ञानस्वका एवं प्रज्ञान स्वको छोड़कर अन्य का संवेदन करता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 71
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