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कला की महत्वपूर्ण धरोहर हैं। इनका सौन्दर्य वैभव लेखनी से नहीं लिखा जा सकता यह तो स्वयं ही देखने की वस्तु है, इन्हें देखकर जो तृप्ति, असीम मानन्द एवं सुख शांति की अनुभूति होती है वह भुक्तभोगी ही जान सकता है अन्य को दुर्लभ है ।
सर्व प्रथम चिन्तामणि पार्श्वनाथ का मंदिर है जिसकी नींव खरतरगच्छीय प्राचार्य जिनराज सूरि के उपदेश से सागरचंद सूरि ने सं. 1459 में रखी थी और चौदह वर्ष के लगातार परिश्रम और सतत श्रध्यवसाय के बाद सं. 1473 में बनकर तैयार हुआ जिसकी प्रतिष्ठा जिन चंद सूरि महाराज ने कराई थी। इस मंदिर में इस प्राशय का एक शिलालेख दीवार में जड़ा हुआ है जिसकी लम्बाई 2. फुट 6 इंच तथा चौड़ाई 1 फुट 31⁄2 इंच है। इसमें 27 पंक्तियाँ हैं । जिसके कुछ श्लोक निम्न प्रकार हैं ।
नवेषु वार्द्धदुमितेथ वर्षे निदेशतः श्री जिन राज सूरे: । गर्भगृहक्षेत्रविम्बं मुनीश्वराः सागरचन्द्र सारा: 121
अस्थापयत्
तेषां श्री जिन वर्द्धनाभिध गरणाधीशां समादेशतः । श्री संघ गुरुभक्ति युक्ति नलिनी लीलन्भरालोपम् । सम्पूर्णी कृतवानमुळे खरतर प्रासाद चूड़ामणिः । त्रिद्वीप बुधि यामिनी पति मिते संवत्सरे विक्रमात् 1231 तोऽपि संवत् 1473 तन्नगरं जिनेशभवनं । यत्रेदमालोक्यन्ते स इलाध्यः कृतिनां महीपति रिदराज्ये यदीयेऽजनि । येनेदं निरमाथि सौध विभवैर्धन्यः स संघः क्षितौ । तेभ्यो धन्यतरास्तु ते सुकृतिनः पश्यन्ति येदः
सदा 1241 उपर्युक्त विस्तृत प्रशस्ति बाले शिलालेख में जैसलमेर राज्य की राज वंशावली का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है जो इतिहास के शोधार्थियों
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के लिए बड़ी महत्वपूर्ण सामग्री है। जैनाचाय की पट्टावली तथा श्रावक श्राविकाओं का भी उल्लेख है ।
उपर्युक्त जिनालय के समीप ही संभवनाथ जी का मंदिर है जिसे साहू हेमराज पूना ने सं. 1494 में बनवाना प्रारम्भ किया था जिसमें तत्कालीन शिल्पियों ने अपनी कलापूर्ण पैनी छेनियों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा करते हुए तीन वर्ष के कठोर परिश्रम के बाद सं 1497 में परिपूर्ण किया था । इसकी प्रतिष्ठा श्री जिनभद्र सूरि ने कराई थी ।
इसके पास ही दूसरा मंदिर भगवान महावीर स्वामी का है जिसकी प्रतिष्ठा सा० दीपा बरडिया ने सं. 1473 में कराई थी। इसी के पास शीतलनाथ जी का मंदिर है जिसकी प्रतिष्ठा सं 1479 में डागा गोत्रिय सेठियों ने कराई थी। पास में ही चन्द्रप्रभु का मंदिर है जिसकी प्रतिष्ठा भगुशाली गोत्रिय सा० वोदा ने सं 1509 में कराई थी, पास ही शांतिनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठा सं 1536 में संखवालेचा श्रौर चोपड़ा गोत्रिय सेठों ने कराई थी इस समय जिन समुद्र सूरि श्राचार्य उपस्थित थे और इस समय यहां की राजगद्दी पर महारावल देवकरणसी विराजमान थे । इसके पास ही ऋषभदेवजी के मंदिर की प्रतिष्ठा सं 1536 में हुई थी ।
उपर्युक्त सभी मन्दिर पत्थर के बने हुए हैं और इन प्रस्तरखंडों पर कैसा अनूठा शिल्प वैभव बिखरा पड़ा है कि देखते ही बनता है। इन्हें देखकर खजुराहो, दैलवारा, रणकपुर के शिल्प वैभव फीके से लगने लगते हैं। बड़े खेद की बात है कि कला के ऐसे श्रेष्ठ नमूनों से अभी भी कला जगत अपरिचित पड़ा है जिसके लिए हम जैनियों की रूढ़िवादिता अत्यधिक जिम्मेदार है । जब हमने इन स्थलों के फोटो चित्र उतारना चाहे तो हमें रोक दिया गया और पैढ़ो से संपर्क स्थपित करने को कहा गया पर जब पैढी पर गये तो न तो वहां से कोई सामग्री ही उपलब्ध हो सकी और न ही
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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