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प्रसारण सत्तभंगी और नय सप्तभंगी :
जैन तर्कशास्त्र में वाक्य दो प्रकार के माने गये है - सकलादेश श्रीर विकलादेश । इनमें प्रमारण वाक्य सकलादेश अर्थात् पूर्ण वस्तु स्वरूप के ग्राहक श्रीर नय वाक्य विकलादेश अर्थात् वस्तु के प्रशिक स्वरूप के ग्राहक माने जाते हैं। प्रमाण वाक्यों को पूर्ण व्यापी और नय वाक्यों को प्रशव्यापी कहा जा सकता है। नय वाक्य या श्रशव्यापी वाक्य की सत्यता प्रमाण वाक्य या पूर्ण व्यापी वाक्य पर निर्भर होती है अतः वे सापेक्ष सत्य हैं जबकि प्रमाण वाक्य स्वतः सत्य है उनकी सत्यता स्वयं वस्तु स्वरूप पर निर्भर है। तर्कशास्त्र की भाषा में प्रमारण वाक्य को सामान्य वाक्य ( Universal Proposition ) और नय वाक्य को विशेष वाक्य ( Particular Proposition) माना जा सकता है सिद्धसेन, अभयदेव और शान्ति सूरि ने सप्तभंगी के सप्तभंगों में से केवल तीन मूल भंगों (सत्, श्रसत् और अवक्तव्य ) को सकलादेशी और शेष को विकलादेशी माना है जबकि भट्ट प्रकलंक और यशोविजयजी ने सातों ही भंगों को विवक्षा भेद से सकलादेश और विकलादेश दोनों ही माना है । मेरी दृष्टि से यह दूसरा दृष्टिकोण अधिक समुचित है । इसी प्राधार पर प्रमारण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी ऐसा विभाजन भी हुप्रा है । प्रथम प्रश्न तो यह है कि प्रमाण सष्तभंगी और नय सप्तभंगी के अन्तर का श्राधार क्या है ? यदि हम यह मानें कि प्रमाण सप्तभगी में प्रभेद दृष्टि से या व्यापक परिप्रेक्ष्य में वस्तु को देखा जाता है और नय सप्तभंगी में भेद दृष्टि या श्रांशिक परिप्रेक्ष्य में वस्तु को देखा जाता है तो समस्या यह है कि एक ही प्रकार की वाक्य योजना में दोनों को कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है । इसलिए जैन प्राचार्यों ने नयसप्तभंगी में 'एव' शब्द की योजना की है और प्रमारण सप्तभंगी में नहीं की है । किन्तु 'एव' शब्द कथन की निश्चयात्मकता का सूचक है। आधुनिक पाश्चात्य तर्कविदों ने भी सामान्य वाक्यों को अनिश्चित परिमाण वाले और
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विशेष वाक्यों को निश्चित परिमाण वाले वाक्य माना है | अतः दोनों की संगति बैठ सकती है । परम्परागत पाश्चात्य तर्कशास्त्र में तो सामान्य तर्क वाक्य के लिए 'सब' और विशेष तर्क वाक्य के लिए 'कुछ' शब्दों की योजना की जाती है किन्तु सप्तभंगी के वाक्यों में ऐसा कुछ भी नहीं है । मेरी दृष्टि में तो स्यात् शब्द के ही दो भिन्न अर्थों के श्राधार पर ही प्रमारण सप्तभंगी की योजना की गई है। भट्ट प्रकलंक ने यह माना है कि स्यात् शब्द सम्यक् अनेकान्त और सम्यक् एकान्त दोनों का सूचक है । अत: जब हम उसे सम्यक् अनेकान्त के रूप में लेते हैं तो वह प्रमाण सप्तभंगी का श्रीर जब सम्यक् एकान्त के रूप में लेते हैं तो वह नये सप्तभंगी का प्रतीक होता है किन्तु एक ही शब्द का दोहरे अर्थों में प्रयोग भ्रान्ति को जन्म देता हैदूसरे यदि हम 'एम' शब्द का प्रयोग उसके भाषायी अर्थ से अलग हटकर कथन को विशेष या सीमित करने के वाले परिमाणक के अर्थ में करते हैं तो भी भ्रान्ति की सम्भावना रहती है । उस युग में जब प्रतीकों का विकास नहीं हुआ था तब यह विवशता थी कि अपने वांछित अर्थ के निकटतम अर्थ देने वाले शब्दों को प्रतीक बनाया जावे किंतु उससे जो भ्रांतियां उत्पन्न हुई है उन्हें हम जानते हैं । यह प्रावश्यक है कि हम प्रमाण वाक्य और नय वाक्य को अलग अलग प्रतीकात्मक स्वरूप निर्धारित कर प्रमारण सप्तभंगी और नय सप्तभंगी की रचना करें। दोनों में मोलिक अन्तर यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में कथन का सम्पूर्ण बल वस्तु तत्व की अनन्त धर्मात्मकता पर होता है जबकि नय सप्तभगी में कथन की अपेक्षा पर बल दिया जाता है प्रमाण सप्तभोगी का वाक्य सकलादेशी या पूर्ण व्यापी होता है जबकि नय सप्तभोगी का विकलादेशी या शव्यापी होता है । पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्ण व्यापी वाक्यों के उद्देश्य को व्याप्त और
शव्यापी वाक्यों के उद्देश्य को अव्याप्त माना जाता है- जैन परम्परा ने भी इन्हें क्रमश: सकला
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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