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जो स्वयं इस संसार सागर के दु.खों से छुटकारा पा परमानन्द अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं जो अन्यों को भी उस मार्ग का पथिक बनाने में समर्थ हैं अर्थात् जो स्वय तर गए हैं और दूसरों को तारने में सक्षम हैं वे तीर्थ कर कहलाते हैं । भगवान् महावीर इस शृंखला में अन्तिम थे अत: प्राज का समय उनका तीर्थकाल कहलाता है। अनगिनत मानव उनके उपदेश को जीवन में उतार सफल हुए हैं और आज भी मानव उन उपदेशों पर प्राचरण कर अपना जीवन सफल का सकता है और भविष्य में भी कर सकेगा। कालिक सत्य धर्म की यही विशेषता है जो जैनधर्म में है।
प्र० सम्पादक
मानव जीवन और भगवान महावीर
* महंत पर्वतपुरी गोस्वामी, उज्जैन
मानव जीवन में तीर्थ के अर्थ का अत्यन्त ही को संचरित कर अग्रसर करता है, उसे तीर्थकर महत्व माना गया है। प्रनादि काल से ही भारत माना जाता है । की धार्मिक प्रवृति एवम् प्रास्था का समावेश भारतीय संस्कृति में प्रवलोकित है।
महावीर स्वामी ने भी अपने सम्पूर्ण राज-पाट तीर्थ के अर्थ का अगर विश्लेषण कर एक सत्य
के भव्य विपुल प्रानन्द, ऐश्वर्य, सम्पदा को
धूलिकरण समझकर तथा संसार को एक मुसाफिरखोजें तो मूलतः यही स्पष्ट होता है कि मानव
खाना, क्षणभंगुर समझा। उनके चित्त में विषयअपना उद्धार इस क्षणभंगुर संसार से, जो कि एक
वासना का रस सूख गया था। शनैः शनैः ज्ञान पानी के बुलबुले के समान है, एक द्वन्द्व है, संघर्ष
और वैराग्य शक्ति का उदय होने लगा था। उनके और तनाव है, से पार उतर कर अपने मोक्ष के
लिए संसार में केवल संयम और तप ही सारवान लिए ईश्वर की भक्ति की ओर मुड़ता है और इस
रह गये थे। धन, कन, कंचन, राज-सख और यहां भक्ति के लिए वह अपने जीबन में सम्यक्ज्ञान,
तक कि अप्सरामों को भी लज्जित करने वाली सम्यक्दर्शन, सम्यक्चरित्र, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य
अनिंद्य सुन्दर कुमारियां भी उनसे पाणि-ग्रहण आदि को उतारने का प्रयास कर भक्ति की सार्थ
करने को लालायित थीं, पर महावीर स्वामी अपने कता प्राप्त करता है।
व्रत में स्थिर चित्त थे। ___ जो मनुष्य उपरोक्त तथ्यों को अपने जीवन में पूर्णत: उतार कर तीर्थ सार्थकता की प्रवृति को महावीर स्वामी ने वैराग्य धारण कर परमार्थ मानव कल्याण हेतु मानव जीवन में उस प्रवृति जीवन की स्थापना की और तात्कालीन राजा
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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