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________________ भाषा स्खलित है । इससे स्पष्ट है कि यह रचना कुन्दकुन्द के बहुत काल बाद जब अपभ्रंश का प्रयोग होने लगा होगा अन्य किसी द्वारा लिखी जाकर कुन्दकुन्दाचार्य के नाम से प्रचारित की गई होगी । 17 वीं 18 वीं शताब्दि में अचानक इस ग्रंथ का प्रादुर्भाव कैसे हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है । यह ठीक है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक में कुन्दकुन्द का नाम बिना | दये 'एयणसार' की एक गाथा उद्धृत की गई है । पाठकों को ध्यान रहे कि इस ग्रंथ में जैन ग्रंथों के उद्धरण भी यथा प्रसंग उद्धृत किये गये हैं अतः उसी प्रकार रयणसार की गाथा भी उद्धृत की गई हो तो क्या श्राश्चर्य है ? 18 वीं 19वीं शताब्दि में हुए भूधरदासजी एवं पं० सदासुखजी ने इसे कुन्दकुन्द कृत कहा है । सम्भव है उस समय कुन्दकुन्द का नाम होने के कारण इस ग्रंथ का विषय सिद्धान्त शैली आदि का विशेष विवेचन न किया गया होगा और इसे कुन्दकुन्द की रचना लिख दी हो जैसा कि आज भी हो रहा है कुछ लोग इसके प्रचार के कारण इसे कुन्दकुन्द कृत मान लेते हैं और दूसरे से पूछते हैं इसे क्यों नहीं मानते ? रयणसार को 'कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध करने के लिए इसमें मंगलाचरण, अन्तिम पद व कई विषय ऐसे लिखे गये हैं जो कुन्दकुन्द की रचना से साम्यता लिए हुए प्रतीत हों और दूसरी ओर कुन्दकुन्द एवं दिगम्बर मान्यता से श्रसम्मत मत भी इसमें प्रस्तुत कर दिये गये हैं ताकि लोग उन श्रसम्मत मतों को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत मानले । अब रयणसार की ऐसी गाथाओं पर विचार किया जाता है जो प्रागम परम्परा, कुन्दकुन्दाचार्य कृत अन्य रचनाओं एवं रयणसार की ही अन्य गाथामों के विपरीत मान्यता वाली हैं । 2-20 Jain Education International दान के प्रसंग में पात्र और अपात्र का विचार न करने वाली निम्न गाथा उल्लेखनीय है : दाभीरणामेतं दाइ घण्टणो हवेइ सायारो । पत्तापत्तविसेसं संदसरणे किं विचारेण ॥4॥ यदि गृहस्थ प्रहार मात्र भी दान देता है तो धन्य हो जाता है साक्षात्कार होने पर उत्तम पात्रअपात्र का विचार करने से क्या लाभ ? इसी गाथा के श्रागे 15 से 20 वीं गाथा में उत्तम पात्र को ही दान देने का फल बताया है न कि प्रपात्र को दान देने का फल । कुन्दकुन्दाचार्यं कृत किसी भी रचना में नहीं लिखा कि अपात्र को दान देना चाहिए | प्रवचनसार की गाथा 257 में प्रपात्र को दान देने का फल इस प्रकार बताया है : जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय कषायों में अधिक है ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा उपकार या दान कुदेव रूप में और कुमानुष रूप में फलता है । वसुनन्दी श्रावकाचार में 242 वीं गाथा में अपात्र दान का फल निम्न प्रकार लिखा है : जिस प्रकार ऊसर भूमि में बोया हुग्रा बीज कुछ भी नहीं उगता है उसी प्रकार प्रपात्र में दिया गया दान भी फल रहित जानना चाहिए । शास्त्रकारों ने मिथ्यादृष्टि को अपात्र कहा है और उसे दान देने का फल इस प्रकार बताया गया है दर्शन पाहुड की टीका में लिखा है कि मिथ्या दृष्टि को अनादि का दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है- मिथ्या दृष्टि को दिया गया दान दाता को मिध्यात्व बढ़ाने वाला है । इसी प्रकार सागार धर्मामृत में लिखा है - चारित्राभास को धारण करने वाले मिथ्या दृष्टियों को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान केवल अशुभ के लिए ही होता है। 21-64 / 149 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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