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जब हम तुमको देख सकेंगे
* श्री अनोखीलाल अजमेरा-इन्दौर
बीत चुके सपनों के वे दिन जो अतीत की याद दिलाते, मंगल गान उसव स्वरूप जो हर्षित हो हम नित्य मनाते । चित्रपटादि सज्जित . मंचों पर काव्य गोष्ठियों में भी देखा, साहित्यिक की सूझ बूझ के कल्पित अंबारों में देखा । कई योजनाओं को घड़कर स्मृतिस्वरूप स्तूप बनाये, पर न तुझे हम अपने मन के उस घट दर्पण से लख पाये। कई स्वरूप तुम्हारे थे, पर तुम एक रूप हो रहे निरन्तर, सिद्धारथ के राजपुत्र थे, त्रिसला की आखों के वत्सल । कुड ग्राम, वैशाली में भी बंधे प्यार से रहे निरन्तर, पर वे भी पा न सके भिन्न भिन्न, रूपों का अन्तर । तो हम फिर क्या देख सकेंगे युग युग बीता वह रूप तुम्हारा, इन्द्रादिक भी न देख सके जो था मन मोहक रूप तुम्हारा । मरिण माणिक अ बार लगाकर स्वर्ण मंजुषा खूब लुटादें, सिंहासन पाषाण मूतियां चाहे हम नित प्रति बैठाद । यह तो है सम्मान तुम्हारा जो है वह अपण करते हैं, दर्पण को रख दूर कल्पना में जो रमते है। मरिण माणिक कचन कामिनी क्या उस स्वरूप को देख सकेगी, महलों का उज्ज्वल प्रकाश क्या उस ज्योति को झेलस केगी। जो कैवल्य ज्ञान पद पाकर तुमने उज्ज्वल प्रकाश फैलाया, तिमिर तोम युग युग में भी तुमने था उज्ज्वल दीप जलाया। वीतरागता के स्वरूप बन बीतराग को देख सकगे, वही स्वरूप हमारा होगा, जब हम तुमको देख सकेंगे।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 71
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