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सकता है जिसके ज्ञान को रोकने वाला ज्ञानावरण कर्म तथा वीर्यान्तराय कर्म कुछ नष्ट हो गया हो । इसके अतिरिक्त जो शंका यें हैं वे विडम्बना मात्र है । प्रमाण का फल प्रमिति है । प्रमिति का अनुभव स्वयमेव होता है । जिस वस्तु का स्वयमेव अनुभव हो सकता है उसका उपदेश से कराना व्यर्थ है । प्रमारण के फल दो प्रकार के हैं पहला साक्षात् और दूसरा परम्परा से उत्पन्न होने वाला । इनमें से किसी पदार्थ सम्बन्धी प्रज्ञान का नाश हो जाना प्रमाण का साक्षात् फल है । केवलज्ञान का परम्परा फल संसार से उदासीनता होना है प्रोर
1. हरिभद्रः षड्दर्शन समुच्चय पृ० 74
2.
न सन्नासन्त सदसन्न चाप्यनुभवात्मकम् । . चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका: विदुः ॥ 3. बुद्ध्या विवेच्यमानानां स्वभावोनावधार्यते । तस्मादभिलाप्यास्ते नि स्वभावेन देशिता: " 4. शून्यमेव जर्गाद्वनश्वरमिदं मिथ्यावभासके । भान्तेः स्वप्नेन्द्र जालादी हस्त्यादि प्रतिभासवत् ॥ 5. यदन्य सन्निवाने न दृष्टं तदभावत । प्रतिबिम्ब समेतस्मिन् कृत्रिमे सत्यता कथम् 6. वही 9/144
7.
एवं च न निरोधोऽस्ति न च भावोऽस्ति सर्वदा । प्रजातमनिरुद्ध च तस्मात् सर्वमिदं जगत् ॥
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शेष अल्पज्ञानियों के प्रत्येक ज्ञान का परम्परा फल दृष्टानिष्ट पदार्थों में ग्रहण तथा त्याग की बुद्धि उत्पन्न होना है तथा माध्यस्थ पदार्थ में मध्यस्थ हो जाना परम्पराफल है। इस प्रकार प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमिति चारों सिद्ध हो गए 1 28 अतः न तो पदार्थ सत् रूप ही है, न असत् रूप ही है, न सत् श्रसत् दोनों रूप है और सत् प्रसत् के अभावरूप है; किन्तु इन चारों से अलग कोई विलक्षण तत्व है. यह कथन उन्मत्त कथन जैसा है 129
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नागार्जुन : माध्यमिक कारिका 17
8. नरेषु प्रतिकूलेषु चिरं स्नेहो न तिष्ठति । एवं सर्वत्र दोषज्ञे चिरं रागो न तिष्ठति ।। 9. तत्रैव रज्यते कश्चित् कश्चित्तत्रैव दुष्यति ।
कञ्चिन्मुह्यति तत्रैव तस्मात् कामो निरर्थकः ॥ 10. बिना कल्पनयास्तित्वं रागादीनां न विद्यते । भूतार्थं कल्पनाचेति को ग्रहीष्यति बुद्धिमान् || 11. बीजं भवस्य विज्ञानं विषयास्तस्य गोचराः । दृष्टे विषय नैरात्म्ये भवबीजं निरुध्यते ॥
प्राचार्यः चन्द्रशेखर शास्त्री : न्यायबिन्दु
माल वार्षिक अंक दिसम्बर 1956 (बौद्ध धर्म के 2500 ) वर्ष पृ० 85, 86
लङ्कावतार सूत्र
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जिनसेन श्रादिपुराण 5 / 45
- बोधिचर्यावतार 9 / 145
- बोधिचर्यावतार 9 / 150
श्रार्यदेवः चतुः शतक 8 / 1
-वही 8/2
- वही 8/3
-वही 14 / 25 - भूमिका पृ०
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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