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हाल ही में मुनिश्री विद्यानन्दजी के आशीर्वाद से डा. देवेन्द्रकुमारजी द्वारा सम्पादित होकर रयणसार नामक ग्रंथ कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित कहा जाकर प्रकाशित हुवा है। ग्रंथ के सम्पादन में विद्वान् सम्पादक ने कठिन श्रम किया है इसमें सन्देह नहीं किन्तु रयरसार को प्रसंदिग्ध रूप से कुन्दकुन्दाचार्य की रचना सिद्ध करने में वे प्राय असफल रहे हैं। इस निबंध के विद्वान् लेखक ने पुष्ट युक्तियों द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि रयणसार कुन्दकन्दाचार्य की रचना नहीं हो सकती। समाज में पहले भी ऐसे कई ग्रंथों का छानबीन द्वारा पता लग चुका है जो प्राचीन प्रसिद्ध प्रामाणिक आचार्यों के नाम से अन्यों ने लिखे हैं । संभवत: रयणसार भी ऐसी ही रचना हो । विद्वानों को ऊहापोहपूर्वक इसका निश्चय करना चाहिये इसी पवित्र भावना से यह निबंध हम यहां दे रहे हैं।
-प्र० सम्पादक
रयणसार के रचयिता कौन ?
* पं० बंशीधरजी शास्त्री, एम० ए०, सवाईमाधोपुर
मुस्लिम शासनकाल में भारत में ऐसी धन संचय करने लगे और उन श्रावक-श्राविकाओं परिस्थितियां हो गई थीं जिनके कारण दिगम्बर को शास्त्रों और प्रागम परंपरा से दर रखा जैन साधु नग्न नहीं रह सके और इन्हें वस्त्र धारण उन्होंने धर्म के नाम पर मंत्रतंत्रादि का लोभ या करने पड़े। ऐसे वस्त्र धारी साधु भट्टारक कहलाते डर दिखाकर कई ऐसी प्रवृतियां चलाई जो दिगम्बर थे। प्रारम्भ में कतिपय भट्टारकों ने साहित्य संरक्षण
जैन प्रागम के अनुकूल नहीं थीं। इन्होंने प्राचीन एवं संस्कृति की परंपरा बनाए रखने में महत्वपूर्ण साहित्य अपने अधिकार में कर लिया मोर नवीन योगदान किया था । किन्तु वे वस्त्र, वाहन, साहित्य निर्माण करने लगे वह भी कभी-कभी द्रव्यादि रखते हुए भी अपने प्रापको साधु के रूप प्राच ज
मा केप प्राचीन प्राचार्यों के नाम पर ताकि लोग उन्हें में ही पुजाते रहे । वे पीछी कमण्डल भी रखते थे। प्रामाणिक समझकर उन प्रवृत्तियों का विरोध नहीं चूकि दिगम्बर परंपरा में वस्त्रधारी व परिग्रहधारी करें। ऐसे नव निमित साहित्य द्वारा उन नवीन साधु नहीं माना जा सकता इसलिए इन भट्रारको प्रवृत्तियों का समर्थन किया गया। इन्होंने त्रिवर्णाने अधिकांश साहित्य जो कि उस समय हस्तलिखित चार, सूर्य प्रकाश, चर्चासागर, उमास्वामी होने के कारण अल्प संख्या में ही थे अपने कब्जे
श्रावकाचार अदि प्रागम विरुद्ध ग्रन्थों का निर्माण में कर लिया । इन भट्टारकों ने प्रमुख केन्द्रों में अपने
किया था । स्व. पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार,
प. परमेष्ठीदासजी जैसे विद्वानों ने इनकी समीक्षा अपने मठ बना लिए, विभिन्न प्रकार से श्रावकों से कर स्थिति स्पष्ट कर दी है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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