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काष्ठ नहीं, कपास बनो
* श्री मंगल जैन 'प्रेमी', जबलपुर
तुम, कपास सी कोमलता को, भूलकर"...... काष्ठ की कठोरता, अपनाये हो। किसी गलत दिशा का ताबीज, गले लगाये हो। कपास की नन्ही सी बाती, किसी दिये के तेल से मित्रता कर .." वातावरण को प्रकाशित करती है। प्रकाश-दान की बेला में, तिल-तिल जलती है।
और काष्ठ ? काष्ठ......विचित्र है, न कोमलता से सरोकार, न मित्रता का व्यवहार। संभवतः इसीलिए, समय की भट्टी में, किसी को प्रकाश दिये बगैर एक बारगी जलती है। जिसकी जिन्दगी के धुएं से, मानवता प्रांख मलती है। सुनो। काष्ठ नहीं, कपास बनो। किसी के सिर पर नहीं, सिरहाने तनो।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 71
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