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उस ज्ञान से कोई भिन्न वस्तु है प्रथवा अभिन्न ? साकार-ज्ञानरूप और अनाकार-दर्शनरूप पर्यायों में यदि अभिन्न है तो वह ज्ञान ही है इसलिए ज्ञान के से कोई न कोई पर्याय प्रात्मा में सदा होती रहती अतिरिक्त कोई भिन्न स्वरूप प्राकार के न होने से है। अहंकार भी एक प्रकार का ज्ञानरूप उपयोग निराकार पक्ष का दोष यहां भी पा सकता है और है। प्रात्मा में बंधे हए कर्मों में से जिस समय जैसे यदि प्राकार ज्ञान के अतिरिक्त कोई भिन्न वस्तु है ज्ञानावरण कर्म का क्षय तथा अनुदय होता है वैसा तो वह प्राकार चैतन्यस्वरूप है या जड़स्वरूप ? ही इन्द्रिय, मन तथा प्रकाशादि के सहारे प्रात्मा यदि चैतन्यस्वरूप है तो जिस प्रकार ज्ञान जिस में ज्ञान उत्पन्न होता है प्रत: आत्मा में ज्ञानोत्पत्ति पदार्थ को जानता है उसी प्रकार यह ज्ञान का की शक्ति सदा रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न होने में प्राकार भी उस पदार्थ को जानता होगा ऐसा चूकि अनेक कारणों की आवश्यकता होती है अतः मानना चाहिए। तब वह यह प्राकार भी स्वयं उन सब कारणों के मिलने पर ही ज्ञान प्रकट हो किसी दूसरे प्राकार सहित है अथवा निराकार है ? सकता है, सदैव नहीं। जैसे बीज में अंकुर उत्पन्न इस प्रकार यहां अनवस्था दोष पाता है । इस प्रकार करने की शक्ति यद्यपि सदा विद्यमान है तो भी प्रमाण ही जब सिद्ध नहीं होता तो प्रमाण के फल- अंकुर की उत्पत्ति तभी हो सकती है जब उत्पत्र स्वरूप प्रमिति कैसे सिद्ध हो सकती है ? अतः होने योग्य मिट्टी, पानी प्रादि सब कारण एकत्रित शून्यता ही परम तत्त्व है।
हो जाय। इससे बीज में अंकर उत्पन्न करने की
शक्ति को कदाचित नहीं कह सकते; क्योंकि शक्ति जैनों द्वारा प्रमाता आदि की सिद्धि --- शून्य
द्रव्य की अपेक्षा नित्य है। इसी प्रकार सदैव वादी ने जो यह कहा कि प्रमाता प्रात्मा की सिद्धि
विद्यमान रहने पर भी अहंप्रत्यय (मैं हूँ ऐसा ज्ञान) प्रत्यक्ष ज्ञान से नहीं है; क्योंकि प्रात्मा इन्द्रिय
कभी-कभी होता है। प्रात्मा का ज्ञान कराने वाला गोचर नहीं है. यह कहना हमें भी इष्ट है, परन्तु
एक भी ऐसा हेतु नहीं मिलता है जो प्रात्मा के मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इस प्रकार के मानस
बिना न रह सकता हो, यह कहना भी ठीक नहीं प्रत्यक्ष का होना असभव माना है, वह प्रसिद्ध है;
है; क्योंकि ऐसे अनेक हेतु हैं जो प्रात्मा के प्रतिक्योंकि मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूं ऐसा अन्तरङ्ग को
रिक्त कहीं रह भी नहीं सकते । जैसे-रूपादि विषय करने वाला ज्ञान प्रात्मा में ही हो सकता है।
की उपलब्धि का कोई कर्ता है; क्योंकि रूपादि की सुखा दि का अनुभव अाधार के बिना नहीं हो सकता
उपलब्धि क्रिया है। जैसे छेदन क्रिया बिना किसी है। यह सुख है यह ज्ञान घटाटि के समान वाह्य
कर्ता के नहीं हो सकती है। रूपादि की उपलब्धि मालूम नहीं पड़ता है । मैं सुखी हूँ इस प्रकार का
का जो कर्ता है वह प्रात्मा है। चक्षुरादि इन्द्रियाँ ज्ञान प्रात्मा का प्रकाशक है । मैं गोरा हूँ, मैं काला
कर्ता नहीं हैं। क्योंकि वे करण होने के कारण परहैं इत्यादि शरीर को मानने वाला जो ज्ञान होता है
तन्त्र हैं। पौद्गलिक होने, अचेतन होने, दूसरे के वह प्रयोजन के वश शरीर में आरोपित किया
द्वारा प्रेरित होने तथा प्रयोक्ता के व्यापार से जाता है; क्योंकि प्रात्मा के सुख दुख होने में .
'निरपेक्ष प्रवृत्ति न कर पाने के कारण इन इन्द्रियों शरीर सहकारी है। प्रात्मा के अहंकार रूप धर्म
का करण होना सिद्ध है। यदि इन्द्रियाँ कर्ता हो का शरीर में वैसे ही आरोपरण होता है जैसे किसी
तो उन इन्द्रियों के विनष्ट होने पर पहले की नौकर को यह कहना कि यह जुदा नहीं है।
अनुभूत स्मृति से मैंने देखा था, मैने छुपा था, मैंने __ अहं की अनुभूति कभी-कभी होने का कारण सुना था इस प्रकार का ज्ञान नहीं होना चाहिए। यह है कि प्रात्मा का लक्षण उपयोग है। उसकी इन्द्रियों का अपना-अपना विषय नियत है अतः
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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