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________________ और प्रार्थना। वे देवता हैं इन्द्र एवं अग्नि, सूर्य, यह भी एक विसंवादी तथ्य है कि वैदिक प्राय नदी, पर्वत प्रादि प्रकृति की अनन्त विभूतियां । जब भारतवर्ष में पाये तब यहाँ उनका संघर्ष प्रादिदेवतानों की संख्याओं में ह्रास-विकास भी होता वासियों से हुग्रा। ऋग्वेद में संकेतित गौरवर्ण रहा है। इन्हीं देवतामों के अनुग्रह से जगत् चालित आर्यों और श्यामवर्ण दस्युअों का विरोध इसी बात है, यही रहा है वैदिक प्रार्यों का विश्वास । को सम्पुष्ट करता है। उपनिषद् के पूर्ववर्ती काल इसीलिए, वे सदा देव-स्तुति में संलीन है। कहते में वैदिक धर्म के विरोध का बीजारोपण हो गया हैं जब वे वैदिक आर्य, अवैदिक काल में भारत था । चूकि, मार्य बाहर से पाये थे, इसलिए उनमें प्राये, तब अपने साथ देवस्तुतियों को भी साथ यहाँ के प्रादिवासियों को जंगली और अज्ञानी लाये । प्रसिद्ध जैन विद्वान् ५० कैलाशचन्द्र शास्त्री कहकर प्रार्यत्व के प्रभाव से दलित बनाये रखने की ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'जैनधर्म' (पृ० 336) में सहज प्रवृत्ति सम्भव है । वैदिक आर्य और बाद में कहा है कि प्रार्य जब इस नये देश भारत में अन्य उनके परम्परागत उत्तराधिकारी वैदिक धर्म के देवपूजकों के परिचय में प्राये, तब उन्हें अपने समक्ष अन्य धर्मों की स्वतन्त्र मान्यता स्वीकार स्तुतिगीतों के संकलन का उत्साह हुमा । डॉ० करना नहीं चाहते थे। इसलिए, वैदिक धर्मवादियों राधाकृष्णन् की 'इण्डियन फिलॉस्फी' का हवाला ने घोषित किया कि जैनधर्म का उद्गम बौद्धधर्म देते हुए शास्त्रीजी ने ऋग्वेद को उन्हीं स्तुतियों के साथ-साथ या उससे कुछ पहले उपनिषद्काल का संग्रह कहा है। के बहुत बाद में उपनिषदों की शिक्षा के प्राधार पर हुआ। हालांकि, जैन परम्परा की धारणा है : बाझारण-साहित्य में ईश्वरीय ज्ञान की मान्यता तेईसवें ऐतिहासिक तीर्थंकर श्री पाश्र्वनाथ 800 ई. की बात मिलती है । अतः वेदज्ञान की प्राप्ति को प्ति का पू. में उत्पन्न हुए थे (पर वे जैनधर्म के संस्थापक पारस्परिक उत्तराधिकार के रूप में प्रयित माना नहीं थे): किन्तु इस बात का भी प्रमाण मिलता गया है। वैदिक धर्मेतर जैनधर्म के मनीषियों का । "का है कि ई. पू० प्रथम शती में ऋषभदेव की पूजा तर्क है कि वैदिक काल में मनुष्य का देवताओं के . होती थी और वे (भागवतपुराण के अनुसार भी) साथ केवल मांत्रिक सम्बन्ध था; क्योंकि वैदक जैनधर्म के संस्थापक थे । इससे उपनिषदों की ऋचाओं में, प्रार्थना करने का मूल्य साथ-साथ शिक्षा को जैनधर्म का प्राधार मानना असंगत चुका देने की बात उट्ट कित हुई है। सिद्ध हो जाता है । स्पष्ट यह है कि वैदिक प्रारण्यकों और उपनिषदों की स्थिति वेदों के धर्मानुयायी वैदिक धर्म को ही मूलधर्म मानते हैं अनकल नहीं है। भाषा की दृष्टि से भी उपनिषदों पोर जैन-बौद्धधर्मों को उनकी शाखाएं या तत्प्रभाकी भाषा वैदिक प्रक्रिया की क्लिष्टता से ऊबकर वित धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्तु, सरल संस्कृत की ओर मुड़ी। उपनिषद् वेदों की जैनमतावलम्बी जैनधर्म को एक स्वतंत्र धर्म की मौलिकता को स्वीकार करके भी वैदिक ज्ञान को संज्ञा देते है । क्योंकि, जैन मनीषी वैदिक धर्म और मुक्तिदान में असमर्थ मानती है। इसी सन्दर्भ में उपनिषद् के सिद्धान्तों के मिश्रण को तर्क-विरुद्ध माण्डूक्य उपनिषद् की नीची और ऊँची विद्यापों बतलाते हुए कहते हैं कि जैनधर्म अनादिकाल से की बात स्मरण रखनी चाहिए । वेद-प्राप्त विद्या ही अपने अस्तित्व को बनाये हुए है। वैदिक काल निकृष्ट है, परन्तु शाश्वती प्रतिष्ठा देनेवाली की जो रूपरेखा उपस्थित की गई है, उससे यही उपनिषद् विद्या उत्कृष्ट है। प्रमाणित होता है कि जब वैदिक क्रियाकाण्ड का 1-64 महावीर जयन्ती स्मारिका 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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