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________________ विरोध हुआ और जनरुचि उससे विमुख होने लगी, नहीं, बल्कि वेदविरोधी उक्त धर्मों के कारण बढ़ तब वैदिकों ने अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए रही थी और उन्हीं के कारण पशुयज्ञ जनता के अपने विरोधी धर्मों की, जिनमें जैनधर्म प्रमुख था, लिए पालोचना और घृणा का विषय बन रहा प्राध्यात्मिक शिक्षाओं के आधार पर उपनिषदों की था । महाभारत में ऐसी भी कथा मिलती है, रचना की। उपनिषद् भी बातें तो अध्यात्म की जिसमें पशुयज्ञ को अधम बतलाकर हवियज्ञ को ही करती थी, किन्तु समर्थन वैदिक क्रियाकाण्ड को श्रेष्ठ कहा गया है । इसी प्राधार पर पूर्वाग्रहदेती थी, जिसके विरोधी बराबर मौजूद थे। विहीन विद्वानों का कहना है कि महाभारत श्रमणफलस्वरूप, विरोध की अभिवृद्धि होती ही चली संस्कृति से प्रभावित है। यह बात इसलिए भी बहुत हदतक सही है कि विभिन्न धर्मों में परस्पर प्रादान-प्रदान की प्रथा सदातन काल से चली इसी विरोधकाल में भगवान् पाश्वनाथ हुए। प्राई है। उनके उपदेशों ने अपना प्रभाव प्रदर्शित किया । पार्श्वनाथ के लगभग दो सौ वर्ष बाद ही बिहार में वैदिक धर्म की ईश्वर-भावना तथा पशूयज्ञ महावीर और बुद्ध का उदय हुमा। वैदिक धर्म में के हिंसावाद की प्रतिक्रिया के रूप में ही जैनधर्म विचारशास्त्र उच्चतर विद्वानों की वस्तु बनी हुई का जन्म हमा, जिसने मानव श्रेष्ठता की प्रादर्शथी किन्तु महावीर-युग में उनके धर्म का प्रचार वादिता तथा अहिंसावादिता का उद्घोष किया। जनसाधारण में किया जाने लगा । भगवान् इसलिए जैनधर्म को प्रतिक्रियावादी धर्म कहा पार्श्वनाथ ने लगभग सत्तर वर्षों तक स्थान स्थान जाता है। हालांकि यह प्रतिक्रिया दुर्गुण के प्रति पर विहार करके जनसामान्य : धर्मोपदेश किया। सद्गुण की प्रतिक्रिया है। इसी का अनुसरण महावीर और बुद्ध ने अवान्तर काल में किया । इन महापुरुषों ने प्राध्या- चौबीस तीर्थंकरों में तेईसवे पार्श्वनाथ और त्मिक विचारों को व्यावहारिक रूप देने तथा चौबीसवें महावीर वास्तव में ऐतिहासिक पुरुष विचारों के अनुरूप जीवन-यापन करने की प्रवृत्ति थे । वे वासुदेव कृष्ण के पीछे हुए हैं। इन दोनों को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया। वैदिक युग में महारुषों में पाश्वनाथ बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं और इन्द्र, वरुण आदि को हो देवता के रूप में पूजा महावीर तथा बुद्ध समकालीन हैं । इन दोनों जाता था, किन्तु जैन-बौद्धधर्मों ने मनुष्य को महापुरुषों ने स्पष्ट रूप से कहा कि हिंसा और सर्वोपरि मानकर उसमें ही देवत्व की प्रतिष्ठा की। शुद्धधर्म का मेल सम्भव नही है तथा धर्म के सी समय रामायण और महाभारत की रचना बहाने पशुवध करना पुण्य नहीं, पाप है। इस हुई और राम तथा कृष्ण को ईश्वर का अवतार निश्चय को उन्होंने अपने शुद्ध चारित्र के द्वारा मानकर मनुष्य ने देवत्व की प्रतिष्ठा से आकृष्ट तथा संघ के प्रभाव से जनसाधारण में फैलाया । होने वाली जनता को वेदब्रह्म की ओर उन्मुख होने इसका हिन्दू-धर्म पर इतना गम्भीर और व्यापक से रोका। जैन-बौद्धधर्म में स्त्री और शूद्र को भी प्रभाव पड़ा कि हिन्दू जनता भी यज्ञ में हिंसा का धर्माचरण का अधिकार था। वेदों का पठन- प्रबल विरोध करने लगी। किन्तु. ब्राह्मणधर्म में पाठन दोनों के लिए जत था: 'न स्त्रीशदौ इतर धर्मों की विशेषताओं को अपनाने की अदभत वेदमधीयाताम् ।' इस बात की पूर्ति महाभारत क्षमता है । उपनिषत्कारों ने उत्तरकालीन उपनिषदों ने भी की। जनता की रुचि अहिंसा की अोर स्वत: के द्वारा बौद्धों और जैनों के अनेक मन्तव्यों को महावीर जयन्ती स्मारिका 77 165 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.014023
Book TitleMahavira Jayanti Smarika 1977
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherRajasthan Jain Sabha Jaipur
Publication Year1977
Total Pages326
LanguageHindi, English
ClassificationSeminar & Articles
File Size25 MB
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