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(क) लोकापवाद : जैन राम-पाहित्य में इसका प्रतिपादन विमलसूरि के 'पउम चरिय' तथा रविषेण के 'पद्म चरित' में मिलता है । स्वयंमू ने अपने महाकाव्य 'पउम चरिउ' में इसकी पृष्ठभूमि का विश्लेषण करते हुए लिखा है : अयोध्या की कतिपय पुश्चली नारियों ने अपने पतियों के समक्ष यह तर्क किया कि यदि इतने दिनों तक रावण के यहां रहकर पाने वाली सीता राम को ग्राह्य हो सकती है तो एक-दो रात अन्यत्र बिताकर लौटने में पतियों को प्रापत्ति क्यों हो ? इस चर्चा को लेकर नगर में सीता-विषयक प्रवाद फैलता है :
पर-पुरिसु रमेवि दुम्महिलउ देंति पडुचर पह-यणहो ।
कि रामण भुजइ जणयसुय वरिसु वसेवि घरे रामण हो । राम कुल की मर्यादा के कारण सीता को निष्कासित कर देते हैं । 'पउम चरिउ' अनेक मार्मिक तथा भाव-प्रवरण प्रसंगों से परिपूर्ण है परन्तु सीता-त्याग का प्रसंग सर्वाधिक कारुणिक और विदग्ध है । विभीषण सीता के पवित्र चरित्र को निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं। लका से त्रिजटा माकर गवाही देती है । मन्त में सीता की अग्नि परीक्षा होती है । दूसरे दिन जब सीता को सबेरे सभा में लाकर प्रासन पर बैठाया जाता है, तब सीता वर-प्रासन पर संस्थित ऐसी शोभायमान होती है जैसे जिन प्रासन पर शासन-देवता--
सीय पइटु णिवठ्ठ वरासणे ।
सासण देवए जं जिण-सासणे ।। प्रखर तथा स्पष्टवादिनी सीता का, शंकालु तथा नारी-चरित्र की भर्त्सना करने वाले श्रीराम को कितना प्रात्माभिमान पूर्ण एवं सतेज उत्तर है कि गंगा-जल गदला होता है, फिर भी सब उसमें स्नान करते हैं। चन्द्रमा सकलंक है, लेकिन उसकी प्रभा निर्मल, मेघ काला होता है परन्तु उसमें निवास करने वाली विद्युत्छटा उज्ज्वल । पाषाण अपूज्य होता है, यह सर्न विदित है परन्तु उससे निर्मित प्रतिमा में चंदन का लेप लगाते हैं। कमल पंक से उत्पन्न होता है लेकिन उसकी माला जिनवर पर चढ़ती है, दीपक स्वभाव से काला होता है लेकिन उसकी शिखा भवन को पालोकित करती है। नर तथा नारी में यही अन्तर है जो वक्ष और बेलि में । बेलि सुख जाने पर भी वृक्ष को नहीं छोड़ती:
साणुण केण वि जरोण गणिज्जइ । गंगा गइहिं तं जि ण हाइज्जइ ॥ ससि कलंक सहिं जि पह रिणम्मल । कालउ मेहु तहिं जें तरिण उज्जल ।। उवलु अपुइ जु ण केण वि छिप्पइ । तहिं जि पडिप चन्दररोण विलिप्पइ ।। धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ। कमल-भाल पुणु जिगहों बलग्गइ । दीवउ होइ सहावें कालउ । वट्टि-सिहए मण्डिज्जइ पालउ ।
णर णारिहि एवड्डउ अन्नउ। मरणे विवेलिलण मेल्लिय तरुवरु ।।
अन्त में सीता तपश्चरण के लिए प्रस्थित हो जाती हैं। स्वयंभू ने सीता के चरित्र को सम्वेदनशीलता से प्रापूर्ण कर दिया है । वह पाठकों की दया, समवेदना तथा सहानुभूति की अधिकारिणी बन जाती है।
स्वयंभू के पूर्व विमलसूरि, रविषेण तथा प्राचार्य हेमचन्द्र ने सीता-त्याग के प्रसंग का सम्यक् प्रतिपादन किया है।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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