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परिचित भवनन्दी मुनि ने दसवीं शती ईस्वी के हरण दिये गये । तमिल छन्द शास्त्र पर उपलब्ध लगभग 'नन्नूल' नामक एक अन्य व्याकरण ग्रन्थ यह प्राचीनतम ग्रन्ग है। में केवल वणों और शब्दों पर पांच अध्यायों में विचार किया गया है । तमिलजनों में लोकप्रिय
जैन विद्वान उदी चिदेव की भक्ति रचना इस व्याकरण ग्रन्थ पर जो टीकाएं रची गई उनमें
'तिरुक्कलम्बगन्' तमिल की एक विशिष्ट काव्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण टीका जैन वैयाकरणी मलै
शैली कलम्बगम्' का अन्यतम उदाहरण है जिस में नाथर की है और वर्तमान काल में इसके जो
भिन्न-भिघ छन्दों में निबद्ध पदों का मिश्रण संस्करण प्रकाशित हुए हैं उनमें सुसम्पादित
कुशलतापूर्वक प्रस्तुत किया गया है । इस रचना में
कुरा संस्करण डा. वी. स्वामीनाथ अय्यर का माना
जैन धर्म के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य धर्मों यथा जाता है।
बौद्ध प्रादि के सिद्धान्तों का भी विवेचन किया गया
है। प्रतः धार्मिक सिद्धान्तों के तुलनात्मक अध्ययन इसके उपरान्त तमिल व्याकरगा ग्रन्थों की की दृष्टि से भी इस रचना का महत्व है। शृखला में पाण्डी मण्डलन में पोस्रण नदी के तट पर अवस्थित पुलियनगुडि के निवासी जैन विद्वान
तमिल शब्द कोषों के निर्माण में भी जैन नम्बीनयनार ने 'तोलकाप्पियम्' के परूल इलक्
विद्वानों ने अपना योग दिया। दिवाकर मुनि ने कन' के अाधार पर 'प्रगप्पोरुलविलक्कम' नामक र
"दिवाकर निघण्टु' पिंगल मुनि ने 'धिंगल निघण्टु' व्याकरण ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में रच- और मण्डलपुरुष ने चूड़ामगिण निघण्ट्र' की रचना यिता मे, जो चार भिन्न प्रकार की काव्य रचनामों की । इन शब्दकोषों में विरुत्तम छन्द में 12 में सिद्धहस्त होने के कारण 'नार कविराय' के अध्यायों में रचित 'चूड़ामगि निघण्टु' का गत नाम से विख्यात थे, प्रेम तथा तत्सम्बन्धी अनभवों शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बड़ा प्रचार प्रा । सन् की मानसिक अनुभूतियों का सुन्दर विवेचन
1870 ई० से सन् 189: ई. के मध्य 22 वर्षों किया है।
में ही इस निघण्टु के सम्पूर्ण भाग अथवा भाग
विशेषों के 26 संस्करगा प्रकाशित हुए। इस व्याकरण के साथ-साथ छन्द शास्त्र विषय में निघण्ट्र में जिनसे नाचार्य के शिष्य गुणभद्र का भी जैन विद्वानों ने तमिल भारती की अभिवृद्धि की उल्लेख होने से यह उनके पश्चात् अर्थात् 9वीं है। लगभग 1010 ई० में हुए जैन विद्वान अमृत. शती ईस्वी के उपरान्त की कृति है। सागर ने 'याप्परूगल क्कारिक' तथा 'यापरूगल. विरुत्ति' नामक छन्द शास्त्रों की रचना की। गणित, ज्योतिष और सामुद्रिक शास्त्र जैसे 'याप्परू गलकारिक' के सम्बन्ध में कुमारस्वामी विषयों पर भी जैन विद्वानों ने तमिल भारती के पुलवर ने दीका रची पौर उसे रामस्वामीगल भण्डार को भरा, किन्तु अधिकांश कृतियां काल तथा अम्बल, वन पिल्ले ने सम्पादित और प्रकाशित गर्भ में समाहित हो गई। फिर भी जो उपलब्ध हैं किया है । 'याप्परू गलविरूत्ति' का सम्पादन एस. उनका अपना महत्त्व है। यदि पुराने परम्परागत भवनन्दन पिल्ले ने किया है । इस छन्द शास्त्र में ढग से हिसाब-किताब रखने के अभ्यस्त तमिल जहां प्राचीन और विशुद्ध तमिल छन्दों का विवेचन व्यापारी 'एण्कुव डि' नामक गरिणत पोथी से प्रारहुअा वहां कलितुरै और विरुत्तम जैसे नवीन छन्दों म्भिक शिक्षा ग्रहण करते हैं तो त मिल ज्योतिषी का भी विश्लेषण किया गया और एक से लेकर प्रारूढ अर्थात् भविष्यवाणियां करने के पूर्व 'जिनेन्द्र उन्तीस पंक्तियों तक के विभिन्न छन्दों के 96 उदा- माले' का अभ्यास करते हैं।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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