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दारणं पूया मुक्खं सावयधम्ये ण सावयातेण विरणा। अतिचार कौन से हैं यह स्पष्ट किए जाने की
श्रावक के षट्कर्तव्यों का क्रम इस प्रकार है- आवश्यकता है। देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और मुनि के लिए विभिन्न वस्तुओं में ममत्व का दान। दान का अन्तिम स्थान होते हुए भी निषेध इस प्रकार किया गया हैस्वाध्याय, संयम, तपादि की सर्वथा उपेक्षा कर वसदी पडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंघजाइ कुले । दान को प्रथम स्थान देना तथा 155 गाथाओं के सिस्सपीड सिस्सछत्ते सुयजाते कप्पड़े पुत्थे । 144 ग्रंथ में दान की व्याख्या एवं प्रशंसा में 30-31 पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइममयारं । गाथाएं लिखना बताता है कि इस ग्रंथकार को यावच्च अट्टरुछ ताव ण मुचेदी ण हु सोक्खं ।146 दान अतिप्रिय था। भट्टारकगण नाना प्रकारों से (यदि साधु वसतिका, प्रतिमोपकरण में, धन संग्रह किया करते थे। षट कर्तव्यों में दान को गरमच्छ में, शास्त्र संघ जाति कूल में, शिष्यमुख्य एवं प्रथम स्थान देना उसका सर्वोच्च फल- प्रतिशिष्य छात्र में, सूत प्रपौत्र में, कपड़े में, पोथी तीर्थ कर पद एवं निर्वाण प्रादि बताना केवल में, पीछी में, विस्तर में, इच्छामों में लोभ से इसीलिए था कि भक्त लोग उन्हें दान देते रहें। ममत्व करता है और जब तक प्रातरौद्र ध्यान
नहीं छोड़ता है तब तक सुखी नहीं होता है। मेरा प्राशय यह नहीं है कि दान का कोई
क्या दिगम्बर जैन साधु कपड़े, प्रतिमोपकरण, महत्व नहीं है। श्रावक के कर्तव्यों में उसका
विस्तर आदि रखता है जो उनके प्रति ममत्व का अंतिम स्थान है (जो कि तर्कसिद्ध एवं बुद्धिगम्य
फल बताया गया है। ये गाथाए किसी अदिगम्बर भी है) उसको उसके बजाय प्रथम स्थान कैसे दिया
द्वारा लिखी हुई हो तो कोई आश्चर्य नहीं है । उक्त गया? इस ग्रंथ में श्रावक के अन्य प्रावश्यका, गाथा में प्रयक्त 'गण गच्छ' का गठन कुदकुद के व्रतों, प्रतिमानों का नामोल्लेख मात्र किया
बहुत काल बाद हुआ है। उमास्वामी ने अपने सूत्र गया है।
24 अध्याय 9 में गणशब्द का प्रयोग उक्त गणइस ग्रंथ की 7वीं गाथा में सम्यग्दृष्टि के गच्छ के अर्थ में नहीं किया है । डा० देवेन्द्र कुमारजी चवालीस (संपादक के शब्दों में दूषण) न होना ने उमास्वामी के उक्त सूत्र का हवाला देते हुए बताया है । 25 दोष, 7 व्यसन, 7 भय एवं प्रति- कुदकुद कृत ही माना है किंतु उनके काल में गरण क्रमण-उल्लंघन 5 इस प्रकार कुल 44 दोष बताए या गच्छों का गठन नहीं हुमा यह तो निश्चित ही गए हैं। परम्परा में सम्यग्दष्टि के 25 दोषों का है। उत्तरकालीन रचनामों में ही गण-गच्छ का उल्लेख तो यथा प्रसंग सर्वत्र मिलता है किन्तु इन प्रयोग मिलता है। इसीलिए डा० ए०एन० उपाध्ये, 44 दोषों का उल्लेख अन्यत्र देखने में नहीं पाया। डा० हीरालालजी, पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार कुदकुदाचार्य के उत्तरवर्ती किसी प्राचार्य या सदृश अधिकारी विद्वानों ने इस नथ को कुदकुद टीकाकार ने इनका उल्लेख नहीं किया। इसका की रचना मानने में संदेह व्यक्त किया है। कारण यही प्रतीत होता है कि उक्त प्राचार्यों के प्रथकार ने इस रयणसार को न पढ़ने सुनने समक्ष यह रयणसार न रहा हो। अतिक्रमण- वाले को मिथ्या दृष्टि बताया हैउल्लंघन के 5 अतिचार कौन से हैं यह भी देखने
गंथमिणं जो
इ रण हु मण्ण इ ण हु में नहीं पाया। डा. देवेन्द्रकुमार ने व्रत नियम के
सुरणेइ गहु पढ़। उल्लंघनस्वरूप 5 अतिचार लिखे हैं। 12 व्रतों के ग ह चितइण ह भावइ सो चेव हवेइ 5-5 अतिचार होते हैं सो वे व्रत नियम के 5
कुट्टिी ।। 541 महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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