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भवन नागेन्द्र दिव्य मनुहार । चमकती रत्न राशि सुखकार ।। सोलहवां स्वप्न अग्नि-निर्धूम । भातु की मया चेतना चूम ।।
( 12 ) अन्त इक उतरा स्वप्न विशेष । दिखा निज मुख में हस्ति प्रवेश ।। प्रातः उठ अति उंछाह मन लाय। स्वप्न फल पूछा प्रभु ढिग जाय ।।
( 13 ) स्वप्न सुन मुदित हुए सिद्धार्थ । प्राप्त ज्यों हुआ सकल परमार्थ ।। स्वप्न फल अलग अलग बतलाय । कहा प्रिय त्रिशला से समझाय ।
श्वेत हस्ती से बल युक्त काय । पुष्प माला से--धर्म चलाय ॥ स्वप्न फल लक्ष्मी सुनिए नेकमेरु पर करें देव अभिषेक ।।
( 15 ) चन्द्र फल - सबको हो सुखदाय । सूयं से-तत्सम भाभा पाय । कलश द्वय से-निधियों की खान । मछलियों से - अनेक सुख जान ।
( 16 ) स्वप्न फल सागर-केवल ज्ञान । 'स्वर्ग से चय'-फल देव विमान । 'जन्म से प्रवधिज्ञान युत सोय' भवन नामेन्द्र स्वप्न फल होय॥
( 17 ) रत्न की राशि कहे - गुरणखान । अग्नि-निर्धूम सुफल यह जान'कम ईंधन तप-अग्नि जलाए, जीव अति भव्य मोक्ष सुख पाए ।'
( 18 ) अन्त मुख हस्ती किया प्रवेश स्वप्न फल इसका पुण्य विशेष'वीर प्रभु गर्भ आपके प्राय जगत को सब प्रकार सुखदाय ॥'
( 19 ) सुदी षष्टी असाढ़ शुचि मास, गर्भ में पाया पुण्य प्रकाश । हुए अतिशय प्रति दिन बेजोड़, रत्न भी बरसे लाख करोड़ ।।
( 20 ) प्रफुल्लित हुई बहुत तब मात । देर लगती नहिं दिन के जात ।। चैत्र शुक्ला तेरस सुखदाय । वीर प्रभु जगती तल पर प्राय ॥
( 21 ) बजाए बिना बज उठे साज । सिंहासन कंप हुप्रा सुरराज ॥ जान कर जन्म वीर भगवान, इन्द्र ने किया नृत्य अरु गान ॥
( 22 ) भक्तिवश प्रति उछाह उमगाए । मेरु पर ले जा प्रति हर्षाय ।। किया क्षीरोदधि जल अभिषेक । दर्श हित नयना किए अनेक ।।
( 23 ) बुद्धि, बल युक्त धीर, गम्भीर । बालपन से ही थे अतिवीर ।। देव संगम बन पाया सर्प । वीर ने तोडा उसका दर्प ॥
( 24 ) विजय, संजय मुनि शंका दूर । हुई तो हुए भक्ति भरपूर ॥ दिया तब प्रभु को 'सन्मति' नाम । जयतु जय वर्धमान सुखधाम ।।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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