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जैन धर्म की पश्चिमी भारत में भी थी। नलादा नौ मूर्तियां विद्यमान हैं। इसमें सबसे प्राचीन कुर्कीहार, फतेहपुर तथा अन्य स्थानों से असंख्य प्रतिमा जो वीं शती ई० की है (नं० ६७.६), बौद्ध कांस्य एवं पाषाण मूर्तियां पूर्वी भारत से पार्श्वनाथ की सर्प फरणों की छाया में ध्यान प्राप्त हुई हैं। राजस्थान व गुजरात के अनेक जैन मुद्रा में विराजमान हैं । पार्श्वनाथ की १०वीं भण्डारों में तथा जैन मन्दिरों में तिथियुक्त जैन शती ई० की एक मूर्ति में (६७.२३) वे पांच मूर्तियां उपलब्ध है जिनका विस्तार से अध्ययन फणों के नीचे बैठे हैं और यक्ष धरणेन्द्र तथा मावश्यक है।
यक्षी पद्मावती जो तीर्थ कर मूर्ति के दोनों ओर
हाथ जोड़े हैं के शरीर के नीचे का अधो भाग प्रिन्स प्राफ वेल्स संग्रहालय में इस समय सर्प रूपी बना है जो सामान्यतया प्रस्तर प्रतिपश्चिमी भारत से प्राप्त लगभग इक्कीस जेन मानों की अपेक्षा कांस्य प्रतिमानों में कम ही प्रतिमायें उपलब्ध हैं जो ईसवी 887 से 1 427
मिलता है। के समय की बनी हैं। कला की दृष्टि से इन मतियों में कोई विशेष अन्तर नहीं है इनमें तीर्थकरों के पार्श्वनाथ की एक त्रितीर्थी प्रतिमा जिसके अतिरिक्त कई वितीर्थी तथा पंचतीर्थी प्रतिमायें भी पृष्ठ भाग पर वि० सं० १११० (१०५३ ई० का हैं। पीतल की बनी इन सभी मतियों में तीर्थकर अस्पष्ट लेख उत्कीर्ण है, के दोनों ओर ऋषभनाथ को ध्यानमुद्रा में बैठे दिखाया गया और साथ में एवं महावीर की कायोत्सर्ग मुद्रा में मूर्तियां स्थित उनके यक्ष एवं यक्षिणीयों का प्रकन है। इनका हैं और उनके पैरों के समीप पीठिका से निकलते संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है।
हुए पद्मों पर धरणेन्द्र एवं पद्मावती की प्रासन
मूर्तियां बनी हैं । मूल प्रतिमा के शीश के ऊपर प्रथम तीर्थ कर मूर्ति में 'जिन' एक सिंहासन बने सर्प के सप्त फणों का अङ्कन बड़ी सुन्दरता पर विराजमान है और इनके दोनों ओर एक-एक से हमा है ! पार्श्वनाथ के वक्ष पर प्रकित चंवरधारी सेवक खड़ा है (नं० ६७.७) । पीठिका श्रीवत्स चिन्ह में चांदी का प्रयोग हुप्रा है । से निकलते हए कमल के फार दाहिनी ओर यक्ष
(नं०६७.१०)। एवं बाई पोर यक्षिणी का अङ्कन है तथा सामने प्रष्ट ग्रह व प्रभा के ऊपर मालाधारी गन्धर्व है ! पार्श्वनाथ की कई त्रितीथियों के अतिरिक्त एक मूर्ति के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता पंचतीर्थी भी इस संग्रहालय में विद्यमान है है कि यह वि० सं० ६४४ (८८७) ई० में (नं. ६७.२४) । लगभग बारहवीं शती ई० में बनी थी।
निर्मित हुई इस मूर्ति के मध्य में पार्श्वनाथ मध्य
में सर्पफणों के नीचे ध्यान मुद्रा में विराजमान उपयुक्त जिन प्रतिमा से काफी साम्यता
हैं। इनके दोनों ओर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े प्रादिरखती हुई भगवान् ऋषभनाथ की मूर्ति है जिनकी
नाथ एवं महावीर मूर्तियों के ऊपर एक-एक अन्य पहचान कन्धों पर पड़े हुए उनके केशों से की जा
तीर्थ कर की ध्यान-मुद्रा में लघु मूर्ति स्थित है । सकती है । (नं० ६७०६) मूर्ति पर्याप्त रूप से
नीचे सामने वाले भाग पर धरणेन्द्र व पद्मावती नष्ट है । सिंहासन के दोनों प्रोर इनका यक्ष
का अन्य मूर्तियों की भांति अंकन है । गोमुख तथा यक्षी चक्रेश्वरी की लघु मूर्तियां है। का यह लगभग हवीं शती ई० की कृति है।
इसी संग्रहालय में नेमिनाथ की मूर्ति भी है प्रिन्स आफ वेल्स संग्रहालय में पार्श्वनाथ की जिसके पृष्ठ भाग पर वि० सं० १२२८ (११-७१
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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