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दिखाये गये हैं और सबसे ऊपर मध्य में त्रिछत्र के क धर्म का काफी प्रचार था, जिसके फलस्वरूप अनेक ऊपर कलश बना है।
जैन धर्म से सम्बन्धित देवी देवताओं की मूर्तियों
का पूजा हेतु निर्माण हुा । इस काल में अधिकतर सिंहासन के दाहिनी मोर एक पेड़ के नीचे
लघु कांस्य मूर्तियों का ही विशेष रूप से निर्माण किरीटधारी यक्ष है जो देखने में कुवेर प्रतीत होता
हुआ जो कि न केवल मन्दिरों में ही वरन् जैन उपा. है। इसके दाहिने हाथ में बीजपूरक व बायें में
सकों के घरों में भी प्रतिष्ठापित की गई । कला की नकुल है। इसी प्रकार दूसरी ओर सम्भवतः यक्षी
दृष्टि से ये मूर्तियां एक ही प्रकार की हैं और अम्बिका की मूर्ति है जो प्राम्र वृक्ष के नीचे दाहिने
अधिकतर पीतल की हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि हाथ में एक प्राम्रलुम्बि तथा बांये से एक बालक
कलाकारों ने मूर्तियों की बाह्य रचना पर विशेष को पकड़े हैं परन्तु इनका वाहन सिंह नहीं दर्शाया
ध्यान न देकर उन्हे केवल पूजा की वस्तु मान कर गया है । सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र स्थित है और
ही उनकी रचना की। यही कारण है कि राजएक-एक मृग है । इसके निचले भाग पर नवग्रह बने
स्थान व गुजरात में बनी असंख्य मूर्तियां अधिकतर हैं । यह मूर्ति जैन मूर्तियों में अद्वितीय है।
एक ही प्रकार की हैं ! राजस्थान में वसन्तगढ़ तथा दूसरी दुर्लभ जैन प्रतिमा बाहुबलि की है जो गुजरात में प्रकोटा से जो धातु की प्रतिमायें मिली कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं (नं0 105) यद्यपि हैं उनमें मूर्तिकला की दृष्टि से प्राय: अधिकतर एलोरा, बादामी, मध्य प्रदेश तथा अन्य स्थानों विशेषतायें सामान्य ही हैं। अधिकतर मतियों में से भी ऐसी मूर्तियां ज्ञात हैं परन्त श्रवणबेलगोला बाह्य प्राडम्बर का प्रभाव प्रतीत होता है। इन क्षेत्र से मिली चालक्य यगीन 9वीं शती ई० मूर्तियों में तीर्थकर को त्रिछत्र के नीचे प्रासीन अथवा की यह कांस्य मूति जैन मूर्तिकला के क्षेत्र में सिंहासन पर विराजमान दिखाया गया है और अद्वितीय स्थान रखती है। श्रवणबेलगोला जैनधर्म उनके दोनों ओर चंवरधारी सेवक व ऊपर उड़ते के अनुयायियों के लिए एक पुनीत स्थल है और गन्धर्वो का मकन है । पीठिका पर सामने धर्मयहां की विश्व प्रसिद्ध लगभग 57 फीट ऊंची चक्र को घेरे दो मृगों के अतिरिक्त नवग्रह का भी गोम्मटेश्वर की विशाल मूर्ति स्थित है जिसका
प्रकन मिलता है । इनके अतिरिक्त प्रत्येक तीर्थकर निर्माण गंग सेनापति चामुण्डराय ने लगभग 983 का यक्ष एवं यक्षिणी उनके पासन के दोनों ओर ई० में करवाया था।
दिखाये गये हैं । प्रादिनाथ पार्श्वनाथ, सुपार्श्वनाथ
की प्रतिमाओं के अतिरिक्त शेष तीर्थकरों की पहएक फुट पाठ इञ्च ऊंची इस नग्न कांस्य मृति चान के लिए मतियों के पृष्ठ भाग पर उत्कीर्ण लेखों में उनके केश ऊपर की ओर हैं तथा जटायें कन्धों से ही सहायता लेनी होती है। इन लेखों में मूर्ति पर पड़ी हुई हैं । संसार त्यागने पर धोर तपस्या के निर्माण काल के अतिरिक्त मूर्तियों के दान कर्ता में लीन होने के कारण उनके शरीर से अनेक
की वंशावली तथा कभी कभी कुछ विशेष 'गच्छों' लतायें लिपट गई थी, जिसको इस मूर्ति में बड़ी
के नामों का भी पता चलता है जो कि उस समय सुन्दरता से कुशल कलाकार ने दर्शाया है। उनकी
पनप रहे जैन धर्म के इतिहास के लिए भी परम सीधी नासिका, नीचे का भारी होट, लम्बे कान एवं
उपयोगी है। ऐसी मूर्तियां जैन मन्दिरों के अतिसुडौल शरीर की बनावट के कारण प्रायः सभी
रिक्त भारत एवं विदेशों के अनेक संग्रहालयों में भी कलाविदों ने इस मूर्ति की भरपूर प्रशंसा की है।
प्रदर्शित हैं। जो स्थिति मध्य युग में बौद्ध धर्म की मध्य काल में राजस्थान तथा गुजरात में जैन पूर्वी भारत में थी, लगभग वही स्थिति इस काल में
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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