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14. श्रावश्यक अपरिहारिण - सामयिक, स्तुति, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह आवश्यक क्रियाओं को यथासमय और यथाविधि करना ।
15. मार्ग प्रभावना - ज्ञान, पूजा, तप प्रादि के महात्म्य से सदैव जैन शासन की प्रभावना करते रहना ।
16. प्रवचनवत्सलत्व -- जिनेंद्र देव के प्रवचन के प्राधारभूत चतुविध संघ में गोवत्स के समान प्रकृत्रिम स्नेह रखना ।
इन भावनाओं में प्रथम दर्शन विशुद्धि भावना प्रधान है उसके बिना अन्य भावनायें तीर्थंकर प्रकृति के लिये कारण नहीं हो सकती हैं और उस एक भावना के होने पर प्रन्य भावनायें स्वयं ही प्रा जाती हैं। प्रथवा दर्शन विशुद्धि सहित कतिपय भावनायें भी तीर्थंकर प्रकृति के बंध कराने में समर्थ हैं । तीर्थंकर प्रकृति ऐसी प्रतिशयशाली प्रकृति है जिसके सत्ता में ही रहने पर तीनों लोकों में क्षोभ करने वाला महान् चमत्कार प्रकट होने लगता है।
गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही माता के प्रांगन में रत्नों की वर्षा, देवों द्वारा गर्भ महोत्सव और जन्म महोत्सव तथा दीक्षा महोत्सव का किया जाना प्रादि कार्य होते हैं । तीर्थंकर प्रकृति का उदय तो तेरहवें गुरणास्थान में महंत श्रवस्था होने पर होता है । पुनः ही तीर्थंकर प्रकृति के उदय आने पर वे भगवान् प्रपनी दिव्यध्वनि के द्वारा सात सौ अठारह भाषाओं में प्रथवा संख्यातों भाषात्रों में भव्यजीवों को हित का उपदेश देते
महावीर जयन्ती स्मारिका 17
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हैं । ये भगवान् ही मोक्षमार्ग के सच्चे नेता कहलाते हैं । ये अखिल तत्व के ज्ञाता होते हैं प्रोर कर्मरूपी पर्वत को चूर्ण करने वाले होते हुए भी परम वीतरागी होते हैं ।
इसीलिये ये तीन विशेषरणों के द्वारा नमस्कार किये जाते हैं -
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ||
जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वत के भेदन करने वाले हैं भोर विश्वतत्त्व के ज्ञाता है मैं उनके गुणों की प्राप्ति के लिये उनकी वंदना करता हूं ।
छत्रपुर के महाराजा नंद एक समय प्रोष्ठिल मुनिराज की वंदना के लिये गये । उनके धर्मोपदेश श्रवण कर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करली पुनः घोराघोर तपश्चरण करते हुये इन सोलह कारण भावनाओं को भाके तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। ये ग्यारह अंग ज्ञान के धारक थे अंत में प्रायोपगमन संन्यास से मरण करके सोलहवें अच्युतस्वर्ग में देवों से पूजित प्रच्युतेन्द्र हो गये। वहां की बाईससागर प्रमाण प्रायु को पूर्ण कर इस भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश के अंतर्गत कुडपुर ग्राम के अधिपति महाराजा सिद्धार्थ की महारानी प्रियकारिणी के गर्भ से तीर्थंकर के अवतार में अवतरित हुये श्रीर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर कहलाये । इस प्रकार से इस कर्म सिद्धांत पर विश्वास करने वाला कोई भी व्यक्ति प्रपने को उत्तम से भी उत्तम ऐसे सर्वोत्तम तीर्थंकर के रूप में बना सकता है ।
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