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शास्त्रों में मोक्षमार्ग का कथन दो प्रकार से किया गया है एक निश्चय मोक्षमार्ग तथा दूसरा व्यवहार मोक्षमार्ग (व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है और निश्चय साध्य) कविवर दौलतरामजी ने छहढ़ाता में कहा है-'जो सत्यारथ रूप सु निश्चय, कारन सो ववहारो' । व्यवहार निश्चय का कारण है तो कार्य के लिए कारण की उपेक्षा कैसे की जा सकती है। पं. प्रवर प्राशाधरजी ने अनगारधर्मामृत में कहा है कि व्यवहार और निश्चय को मत छोड़। इनमें से एक के भी प्रभाव में धर्मतीर्थ का प्रभाव हो जायगा। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में भी ऐसा ही कहा है। ४थे गुणस्थान से लेकर अन्तिम गुरणस्थान तक की सारी क्रिया व्यवहार है । कलकत्ते जाने वाले को सारा रास्ता पार करना ही पड़ेगा, (बिना रास्ता पार किए कलकत्ते पहुंच ही नहीं सकता । इसी प्रकार बिना व्यवहार के निश्चय को प्राप्ति नहीं हो सकती । हां व्यवहार को ही लक्ष्य मानने वाला उन्नति नहीं कर सकता, अपने लक्ष्य मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता।
--प्र० सम्पादक
व्यवहार नय की उपयोगिता
• पं. गुलाबचन्दजी जैनदर्शनाचार्य, जयपुर
जैनागम में वस्तु स्वरूप को जानने के लिये को ग्रहण करता है । शुद्ध द्रव्य की प्राप्ति निश्चय प्रमाण नय और निक्षेप का माध्यम बताया गया के प्रवलम्बन से होती है किन्तु जब तक उसकी है । तत्त्वार्थसूत्र में इसी की पुष्टि में कहा है प्राप्ति न हो व्यवहार का पालम्बन लेना पड़ता 'प्रमाणनयैरधिगमः" अर्थात् प्रमाण और नय से है। सम्यग्दर्शनादि का अधिगम होता है। "नामस्थापना - शुद्धज्ञायक तत्त्व प्रात्मा को दर्शन, ज्ञान और द्रव्यभावतस्तत्र्यास." अर्थात् नामादिक से लोक चारित्रमय बताना भी व्यवहार नय का वचन है व्यवहार होता है । प्रमाण वस्तु के पूर्ण स्वरूप को जबकि निश्चय से शुद्ध ज्ञायक ही प्रात्मा को माना बताता है जबकि नय उसके एक देश का विवेचन है - करता है । नय के नाना भेदों में दो भेद प्रमुख हैं ववहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरित्तदंसरणं एक द्रव्यार्थिक पौर दूसरा पर्यायाथिक । अध्यात्म
णारण। भाषा में इन्हीं को निश्चय और व्यवहार की संज्ञा गविणाणं गा चरित्तं ण दंसरणं जागो से व्यवहृत किया गया है। निश्चय वस्तु के निज
सुद्धो॥ स्वरूप को साधता है और व्यवहार भेद करके वस्तु
(समयसार गाथा 7)
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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