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- पं० प्रेमचन्द्र "दिवाकर", सागर
1. सचाई से डरो नहीं । चन्दन के तरुनों में भुजंग लिपटने पर भी सुरभि समाप्त नहीं होती ।
2. प्रारुणिक जीवन उत्कर्षकारी और श्रानन्दप्रद होता है ।
3. देखादेखी से नहीं, अपनी दृढ़ श्रद्धा श्रौर ज्ञान से कार्य करना है ।
4. दुनियाँ एक रंगमंच है, 75 वर्ष करीब तक कलाकार नाटक के किसी एक पात्र की तरह का अभिनय कर मृत्यु के नेपथ्य में चला जाता है । प्रत्येक को नेपथ्य में नियम से
जाना | अतः अच्छा अभिनय कल्याण का पैगाम है ।
5.
प्रेम, हृदय की निर्मलता का फल है ।
6. अहिंसा : - - उदारता समानता और प्रशान्ति निवारक है ।
7.
ज्ञानी जन कष्टों और प्रभावों में भी सुखानुभूति करते हैं ।
प्राचरण मनुष्य जीवन का परम रत्न है ।
9.
रुकने का नहीं, गति का नाम जीवन हे ।
10.
हम हिम्मती हैं, उसे जागृत विकसित प्रौर अनुभव में लाने की आवश्यकता है । 11. कार्य की सफलतार्थं उसके कारण और परिणाम का विचार करना चाहिये । 12. ज्यादा दूर देखने की अपेक्षा पास में अधिक देखो ।
13. दूसरों के पहिले स्वयं को सुधारो । 14. हमें जीवन में जीने की कला भी सीखना है ।
15. दूसरों से सहायता की प्राशा न रखकर स्वयं अपने सहायक बनो । 16. सदैव खुशनजर आने का अभ्यास करना है ।
17. वर्षा, दिवाकर, नदी, फल और ईश्वर किसी से भेद नहीं करता, बल्कि निरवांछित समान व्यवहार करते हैं ।
8.
विचार-बिंदु
18. प्रतिपल ज्ञानार्जन करते रहना है । यही अंगूर, रबड़ी, स्वर्ण, मखमली सैया, राकेश, वायुयान, दुरबीन, रेलगाड़ी, दिवाकर और स्वयं स्वरूप है ।
ऊपर देखने के पूर्व अधोभाग को निरख लेना चाहिये ।
19.
20.
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3-16
विचारों में महानता, महत्वाकांक्षा, पवित्रता और पूर्णता अवश्य ही हो । ज्ञान- प्रानन्द और परम शांतिरूप है ।
2000
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महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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