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क्यों होता है ऐसा,
कि एक नहीं चोबस - चौबीस
तीर्थंङ्करों के अनुयायी हम
रहते हैं जहाँ के तहाँ ?
मनाते हैं जयन्तियाँ
और निर्वारण तिथियाँ भी
फिर भी इन दीपों की ज्योति से
निकलने वाला काजल ही
रह जाता है दिलों में ।
क्यों होता है ऐसा
कि वीरों के वंशज हम
कहाते हैं कापुरुष
दिगम्बर के अनुयायी
लादे रहते हैं
परिग्रह के वादे |
मैं बहुत चिन्तित हूं
अपनी और अपने समाज की
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क्यों ?
* प्रकाश श्रमेय,
इस यथार्थता पर कि
हम हीरों की खान के
बने
हुए
कोयले |
और यदि हम हैं लोहे
तो जंग लगे हुए
उन्हें ऋषभ का पारस पन्थ
छूता तो है
पर बना नहीं पाता स्वरिणम धातु ।
आपने अपने
और अपने समाज के
अर्न्तमन में झांक कर
देखा है कभी
कि
हम जो 'लेविल' लगाये
हैं वह माल नहीं है हमारे अन्दर
प्राखिर क्यों ?
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मथुरा
महावीर जयन्ती स्मारिका 77
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