Book Title: Jin Pujan
Author(s): ZZZ Unknown
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिन पूजन (Purnumati mati Ji) जिनवाणी संग्रह DO | નાન kang plugaka DO 卐 अहिंसा परस्परोपग्रहो जीवानाम् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. श्री आदिनाथ जिन पूजन . 2. श्री अजित जिन पूजन . 3. श्री संभवनाथ जिन पूजन. 4. श्री अभिनंदननाथ जिन पूजन. 5. श्री सुमतिनाथ जिन पूजन . 6. श्री पद्मप्रभ जिन पूजन.. 7. श्री सुपार्श्वनाथ जिन पूजन. 8. श्री चन्द्रपभ जिन पूजन. 9. श्री सुपार्श्वनाथ जिन पूजन . 10. श्री चन्द्रपभ जिन पूजन. 11. श्री सुविधिनाथ जिन पूजन . 12. श्री शीतलनाथ जिन पूजन .. 13. श्री शीतलनाथ जिन पूजन .. 14. श्री सुविधिनाथ जिन पूजन 15. श्री शीतलाथ जिन पूजन 16. श्री श्रेयांसनाथ जिन पूजन . 17. श्री वासुपूज्य जिन पूजन .. 18. श्री विमलनाथ जिन पूजन . 19. श्री अनंतनाथ जिन पूजन. 20. श्री अनंतनाथ जिन पूजन . 21. श्री धर्मनाथ जिन पूजन. 22. श्री शांतिनाथ जिन पूजन . 23. श्री कुंथुनाथ जिन पूजन 24. श्री अरनाथ जिन पूजन. 25. श्री मल्लिनाथ जिन पूजन . 26. श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन पूजन .. 27. श्री नमिनाथ जिन पूजन 28. श्री नेमिनाथ जिन पूजन 29. श्री पार्श्वनाथ जिन पूजन . 30. श्री महावीर जिन पूजन विषय-सूची 3 9 14 20 26 31 37 43 49 55 61 67 73 79 85 91 97 103 109 115 121 127 134 140 147 153 159 165 172 179 2 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद आदि जिनेश्वर आदिनाथ प्रभु के चरणों में करूँ नमन। ___नाभिराय के राजदुलारे माँ मरुदेवी के नंदन।। पतित जनों को नाथ आपने दिया मुक्ति का अवलंबन। श्रद्धा भाव विनय से करता तव चरणों का आह्वानन।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण ज्ञानोदय छंद क्षीरोदधि का क्षीर वर्ण सम, श्रद्धा जल लेकर आया श्री चरणों में भेंट चढ़ाने, और नहीं कुछ भी लाया।। आदीश्वर जिनराज आपने, श्रद्धा जल यदि स्वीकारा। पा जाऊँगा निश्चित ही मैं, जन्म मृत्यु से छुटकारा।।1॥ ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा चंदन जला स्वयं किंतु, अपनी सुगंध फैलाता है। तव चरणों की पूजा का वह, द्रव्य स्वयं बन जाता है।। आदीश्वर जिनराज हमारे, चंदन को यदि स्वीकारा। पा जाऊँगा भवाताप से, निश्चित ही मैं छुटकारा।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्ज्वल अक्षत तंदुल लेकर, द्वार आपके आया हूँ। दूर करोगे पाप बोझ से, आशा लेकर आया हूँ।। आदीश्वर जिनराज अर्चना के अक्षत स्वीकार करो। अखंड अक्षय सुख दो मुझको, नश्वरता से दर करो।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। रोग भयंकर विषय भोग का, कहीं नहीं उपचार हुआ। विवश हो गया मारा-मारा, हार गया लाचार हुआ। आदीश्वर जिनराज भक्ति के, सुमन यदि स्वीकारोगे। है विश्वास अटल यह मेरा, निज सम आप बना लोगे।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। सुमेरु पर्वत जितना खाया, क्षुधा रोग ना शांत हुआ। कई समंदर रिक्त किये पर, तृषा रोग ना शमन हुआ।। आदीश्वर जिनराज चरण में, चरु चढ़ाने आया हूँ। पूर्ण भरोसा तुम पर स्वामी, क्षुधा मेटने आया हूँ। 5।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। छाया मिथ्या घोर अँधेरा, गिरा अँधेरे में हर बार। श्रद्धा दीपक आप जला दो, निज दर्शन कर लूँ इस बार।। आदीश्वर जिनराज आपका, यह उपकार न भूलूँगा। जब तक श्वास रहेगी घट में, तेरी ही जय बोलूँगा।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया बहुत पुरुषार्थ मगर, कर्मो का नाश न कर पाया। अहंकार को तजकर प्रभु जी, आप शरण में हूँ आया।। आदीश्वर जिनराज यदि मैं, एक नजर पा जाऊँगा। __संसारी फिर नहीं रहँगा, मुक्तिनाथ कहलाऊँगा।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। मोक्ष मिलेगा इस आशा में, काल अनंता बिना दिया। दुष्कर्मो ने ऐसा लूटा, नाम धर्म का मिटा दिया।। आदीश्वर जिनराज शीष अब, अपना आज नवाऊँगा। पार किया ना तुमने जिनवर, और कहाँ मैं जाऊँगा।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। मेरे पास नहीं कुछ स्वामी, कैसे अध्य बनाऊँगा। आतम धन से निर्धन हूँ मैं, अब तुम सम बन जाऊँगा।। आदीश्वर जिनराज आज यदि, अपना भक्त बनाओगे। सच कहता हूँ शीघ्र मुझे भी, सिद्धालय में पाओगे।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीआदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक सर्वार्थसिद्ध को तजकर स्वामी, नगर अयोध्या में आये। कर्मभूमि के आदि जिनेश्वर, मरुदेवी उर में आये।। शुभ आषाढ़ कृष्ण द्वितीया को, धन्य हुई यह वसुंधरा। शरद पूर्णिमा का चंदा ही, मानो धरती पर उतरा।।1॥ ऊँ ही आषाढकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन लोक में सब जीवों को, कुछ पल सुख का भान हुआ। जन्म हुआ है आदि’ प्रभु का, देवों को यह ज्ञान हुआ।। चौत वदी नवमी का दिन था, नाभिराय गृह जन्म लिया। गिरि सुमेरु पर पांडुक वन में, क्षीरोदधि से न्हवन किया।।2।। ॐ हीं चौत्रकृष्णनवम्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जन्म कलयाणक की खुशियाँ थी, तप संयम में बदल गई। नीलांजन का नृत्य देख, दृष्टि शिव पाने मचल गई।। चौत कृष्ण की नवमी शुभ थी, पंच मुष्टि कचलोंच किया। जय-जय ऋषभनाथ जिनवर ने, उत्तम मुनि पद धार लिया ।।3।। ॐ हीं चौत्रकृष्णनवम्यां तपोमंगलमंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन वदी एकादशी को, प्रभु चार घातिया नाश किया। कर पुरुषार्थ प्रबल जिनवर ने, केवलज्ञान प्रकाश लिया।। समवसरण में सब जीवों के, मिथ्यातम का नाश हुआ। हुई प्रफुल्लित धरती ही क्या, प्रमुदित सब आकाश हुआ।।4।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णएकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। माघ कृष्ण चौदस के दिन, कैलाश गिरि ने यश पाया। आठों कर्म विनाशे प्रभु ने, अष्टम वसुधा को पाया।। तीर्थकर से परिणय करके, मुक्तिरमा भी धन्य हुई। जय-जय आदीश्वर नारों की, पावन धरा अनन्य हुई।।5।। ॐ हीं माघकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला दोहा भक्ति भरी आराधना, कर लो प्रभु स्वीकार। शरण आपकी पा गया, हो जाऊँगा पार ॥1॥ ज्ञानोदय छंद जय-जय आदिनाथ तीर्थंकर, धर्म सारथी तुम्हें प्रणाम। निज स्वभाव साधन से तुमने, पाया शाश्वत मुक्तिधाम।। पंद्रह मास रतन बसे औ, माँ को सोलह स्वप्न दिये। तीन ज्ञान के धारी जिनवर, भूतल पर विख्यात हुये।।2।। जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में, नगर अयोध्या महा विशाल। नाभिराय अंतिम कुलकर से, जन्में मरुदेवी के लाल।। देवों ने अति हर्ष भाव से, पाण्डु शिला अभिषेक किया। बालपने में ही जिनवर ने आत्म शक्ति को दिखा दिया।।3।। राज्य अवस्था में ही सारे, जग के कष्ट मिटाये थे। मोक्ष पंथ के राही थे पर, शुभ षट्कर्म सिखाये थे। नीलांजन का नृत्य देखकर, वस्तु स्वरूप विचार किया। लौकांतिक देवों ने आकर, नत हो जय-जय कार किया ।।4।। सिद्धारथ वन में जाकर प्रभु, निज आतम का किया मनन। नमः सिद्धेभ्यःभावों से क, सब सिद्धों को किया नमन।। एक हजार वर्ष तप करके, शुक्लध्यान में हुए मगन। चार घातिया कर्म नाश कर, पाया केवलज्ञान गगन।।5।। मैं संसारी कर्म जाल में, फंसा चतुर्गति किया भ्रमण। रुचि न जागी सिद्ध स्व पद की, अतः कर रहा जन्म मरण।। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण में नाथ आपने, सप्त तत्त्व उपदेश दिया। वृषभसेन गणधर से श्रोता, भारतराज ब्राह्मी आर्या।।6।। धर्मचक्र का किया प्रवर्तन मंगल मय जब हुआ विहार। धन्य हुआ कैलाशधाम जब, हुआ कर्म का उपसंहार।। बिना आपकी शरण जिनेश्वर, अनंत भव में भ्रमण किया। सिद्धालय को पा जाऊँ बस, इसी भाव से शरण लिया ।।7।। आज आपकी पूजा करके, मेरे मन आनंद हुआ। पुण्य कर्म का उदय हुआ औ, पाप कर्म भी मंद हुआ।। हेप्रभुवर तव पथ पर चलकर, शाश्वत सुख को पा जाऊँ । घबराया हूँ इस भव वन में, कब शिवनगरी आ जाऊँ ॥8॥ आदि तीर्थ करतार जिनेश्वर, मुक्ति के प्रभु हो आधार। दुष्कर्मो का नाश कीजिये, शीघ्र करो मेरा उद्धार।। ज्ञान नहीं है शब्द नहीं हैं, भावों की गूंथी यह माल। नमन करूँ स्वीकारो जिनवर, श्रद्धा से अर्चित जयमाल॥9॥ ऊँ ही श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता हेप्रथम जिनेश्वर, श्री आदीश्वर, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजित जिन पूजन स्थापना संखी छंद श्री अजितनाथ पद वंदन, स्वीकारो मम अभिनंदन। अति पुण्य उदय है आया, करने आया हूँ अर्चन।। प्रभु आप स्वयं वैरागी, मैं तव चरणन अनुरागी। है काल अनंत गंवाया, अब प्रीत प्रभु से जागी।। मैं ध्याऊँ श्याम सवेरा, मेटो भव-भव का फेरा। नहीं और लगाओं देरी, भक्तों ने प्रभुवर टेरा।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्र!श्रीअजितनाथजिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण संखी छंद भवसागर डूब रहा हूँ, कर्मो से ऊब रहा हूँ । अब पार लगा दो नैया, चरणों में आन खड़ा हूँ।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥1॥ ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु बहुत लगाया चंदन, ना किया प्रभु पद वंदन। यह भूल हुई प्रभु मुझसे, मेटो सारा दुख क्रंदन।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायभवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर को ही अपना माना, निज को खंडित पहचाना। यह जग नश्वर है सारा, नहीं दिखता कहीं ठिकान।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ।।3।। श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायअक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। यहाँ मोह की मदिरा पी है, अपनी ही सध बिसरी है। फिर दोष दिया है पर को, चेतन कलियाँ बिखरी हैं । श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥4।। श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायकामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। तृष्णा ने जाल बिछाया, मैं समझ नहीं कुछ पाया। हो गया क्षुधा का रोगी, चरु औषध पाने आया।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ।।5।। श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। अज्ञान अँधेरा छाया, मिथ्यातम ने भरमाया। निज घर को ही प्रभू भूला, नहीं दिखता चेतन राया।। श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥6॥ श्रीअजितनाथजिनेन्द्रायमोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 10 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ स्वयं ही पर का कर्ता, मिथ्या भ्रम सारी जड़ता। समकित की धूप मिले तो, सारे बंधन हर लेता । श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥7॥ श्रीअजितनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। निज सुख पलभर न पाया, सुख दुख फल में भरमाया। शिव सुख फल रस का प्याला, अब जी भर पीने आया । श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥8॥ श्री अजितनाथजिनेन्दाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। अबतक कई अर्घ्य चढ़ाये, प्रभु एक नहीं मन भाये। वसु द्रव्य चढ़ा प्रभु आगे, यह दास चरण सिर नाये। ॥ श्री अजितनाथ जिनराजा, मेरे उर माहिं समा जा। यहाँ कोई नहीं सहारा, प्रभु तारण तरण जहाजा ॥9॥ श्री अजितनाथजिनेन्दाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद कृष्ण अमावस ज्येष्ठ मास को, विजया माता हर्षाए । विजय विमान त्याग कर प्रभुजी, नगर अयोध्या में आए ॥ 1 ॥ ऊँ हीं ज्येष्ठकृष्णामावस्यायां गर्भमंगलमंडिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 11 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म विजय करने वाले है, अतः अजित जिन नाम दिया। माघ शुक्ल दशमी को जन्मे, पाण्डु शिला पर न्हवन किया ।।2।। ॐ हीं माघशुक्लदशम्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। लौकांतिक देवों ने आकर, किया जगत में जय जयकार। माघ शुक्ल नवमी को प्रभु ने, तप धारण का किया विचार ॥3॥ ॐ हीं माघशुक्लनवम्यां तपोमंगलमंडिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। बारह वर्ष मौन रहकर फिर, पाया केवलज्ञान महान। पौष शुक्ल एकादशी के दिन, दिया मुक्ति संदेश महान ।।4।। ऊँ ही पौषशुक्लएकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। कूट सिद्धवर पावन भू से, चौत्र शुक्ल पंचमी का काल। अजितनाथ ने मोक्ष प्राप्त कर, सम्मेदाचल किया निहाल ।।5।। ॐ हीं चौत्रशुक्लपंचम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्री अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अर्ह श्री अजितनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला - दोहा अजितानाथ के पद कमल, मैं पूर्जे धर प्रीत। पर भावों से हे प्रभो हो जाऊँ अब रीत ॥1॥ सखी छंद जय-जयश्री अजित जिनंदा, विजया माता के नंदा। मैं शरण तिहारी आया, भव्यों के आप हो चंदा।।2।। 12 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रिय मन पर जय पाई, बन गए आप मुनिराई प्रभु सार्थक नाम अजित है, हो गए आप जिनराई।।3।। हुई समवसरण की रचना, झर रहें फूल सम वचना। सब इंद्र देव भी नत हैं, प्रभु महिमा का क्या कहना।।4। प्रभुवर की ऐसी वाणी, यह जन-जन की कल्याणी। कब पुण्य उदय मम आये, साक्षात् सुनूँ जिनवाणी ॥5॥ वसु प्रातिहार्य की गरिमा, तीर्थंकर प्रभु की महिमा। निर्दोष परम अतिशाही, है चतुर्मुखी जिन प्रतिमा ।।6।। प्रभु छियालीस गुण धारी, हैं अनंत गुण भंडारी। हम अल्पमति किम गायें, चरणों में है बलिहारी ॥7॥ प्रभु आप वरी शिव नारी, मैं भटक रहा संसारी। प्रभु निज सम मुझे बना लो, पा जाऊँ पद अविकारी ॥8॥ नहीं वचनों में कुछ शक्ति, बस ह्दय बसी तव भक्ति। बालक को ना ठुकराना, प्रभु देना अविचल मुक्ति ॥9॥ दोहा अजित प्रभु की अर्चना, संचित दुरित पलाय। दास खड़ा कर जोड़कर, नारों सकल कषाय।।10॥ ॐ हीं श्री अजितनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री अजित जिनेश्वर, हे परमेश्वर, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः।। 13 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संभवनाथ जिन पूजन स्थापना चौबोला छंद भव-भव हारी संभव जिन के, श्री चरणों में करूँ नमन। निज चौतन्य विहारी जिनर, दूर करो मेरे बंधन।। द्रव्य भाव नोकर्म रहित जो, सिद्धालय के वारी हैं। मन मंदिर में आन विराजो, हम जिन पद अभिलाषी हैं॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्र !अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-नंदीश्वर श्री जिन धाम-- पावन समता रस नीर, पाने में आया। प्रभु जन्म मृत्यु को क्षीण, करने हूँ आया।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। समता रस चंदन नाथ, अब तक ना पाया अब भवाताप का नाश, करने में आया।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।2।। ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 14 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविनश्वर पद का नाथ, मुझको ज्ञान नहीं। शब्दों से किया है ज्ञान, निज पहचान नहीं । हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायअक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। इंद्रिय के विषय जिनेश, मम मन को भाये। निज शील रूप का दर्श, अब करने आये।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।4।। ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायकामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। तृष्णा का उदर विशाल, अब तक है खाली। आनंद अमृत से आज, भर दो ये प्याली।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायक्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। तिहुँलोक प्रकाशक ज्ञान, की पहचान नहीं। छाया मिथ्या अज्ञान, निज का भान नहीं।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्रायमोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कर्म शत्रु को नाथ, निज गृह में पाला। मेरे ही धन को लूट, निर्धन कर डाला ।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायअष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। हो कर्म चक्र मम चूर्ण भाव बना लाया। शिवमय रस से परिपूर्ण, फल पाने आया।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायमोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पर द्रव्यों की अभिलाषा, अब तक भायी है। आतम अनर्घ्य की बात, नहीं सुहायी है।। हे करुणा के अवतार, संभव जिन स्वामी। दो शाश्वत सुख हिकार, हे अंतर्यामी ॥9।। ऊँ ह्रीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्रायअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक चौपाई फाल्गुन शुक्ल अष्टमी प्यारी, मात सुसेना है अवतारी। ग्रैवेयक से आये स्वामी, माथ नवाऊँ अन्तर्यामी।।1।। ॐ हीं फाल्गुनशुक्लाष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 16 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा आयी,श्रावस्ती नगरी हर्षायी। पांडु शिला अभिषेक किया है, तिहुँ जग में आनंद हुआ हैं ।।2।। ऊँ ही कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मगसिर शुक्ल पूर्णिमा प्यारी, परिग्रह तजकर दीक्षा धारी। छेवों ने जयकार किया है, तव चरणों में नमन किया है।।3॥ ऊँ ही मार्गशीर्षपूर्णिमायां तपोमंगलमंडिताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ___ कार्तिक कृष्ण चतुर्थी आई, केवलज्ञान लक्ष्मी पाई। समवसरण की महिमा भारी, संभव जिन सबके हितकारी।।4।। ॐ हीं कार्तिककृष्णचतु,यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। धवलकूट विख्यात हुआ है, अष्ट कर्म का नाश किया है। चौत्र शुक्ल षष्ठी सुखकारा, मन वच तन से नमन हमारा।।5।। ॐ हीं चौत्रशुक्लषष्ठयां मोक्षमंगलमंडिताय केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँश्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला स्रगिवणी छंद हे जिनेश्वर करूँ मैं सदा प्रार्थना। आप सुन लीजिये भक्त की भावना।। नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना ।।1।। सर्व ज्ञाता प्रभु हो विधाता प्रभो। आज आया शरण पार कर दो विभो।। 17 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।।2।। अश्व का चिह्न पद पद्य में शोभता। पुण्यं तीर्थेश का सर्व मन मोहता।। नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।। नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।।3 ।। एक दिन मेघ का नाश होते दिखां सर्व वैभव तजा और संयम लखा।। नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।।4।। वर्ष चौदह किये मौन की साधनां पा लिया ज्ञान केवल्य शुद्धातमा ।। नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।।5।। श्री समोसर्ण रचना करे धनपती। नर पशु देव देवी औ आये यती।। नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।।6।। नाथ की दिव्य अमृत ध्वनि जब खिरे। जैसे तरु से नितर ही सुमना झरें । नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।।7।। शक्ति से सिद्ध जाना है यह आत्मा। जे चले राह शिवपुर हो परमात्मा । नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना। आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना।। ।। हे प्रभु भक्त पे अब कृपा कीजिए। 18 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथ तेरा ही हूँ मैं बचा लीजिए | नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना । आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना ॥ 9 ॥ एक ही भावना 'पूर्ण' कर दीजिए। नाथ संभव भवाताप हर लीजिए ॥ नाथ संभव करूँ आपकी अर्चना । आत्मसिद्धी मिले एक ही कामना ॥ 10 ॥ ऊँ हीं श्रीसंभवनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री संभव जिनवर, हे परमेश्वर, भव-भव का संताप हरो । निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः ॥ 19 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिनंदननाथ जिन पूजन स्थापना अडिल्ल छंद परम पूज्य अभिनंदन नाथ जिनेश हैं, कोटिक रवि शशि तेज धरे परमेश हैं। पुण्योदय से आज शरण में आ गया, वीतराग चिद्रूप हृदय को भा गया।।1।। बिना आपके काल अनंता हो गया, गुरू कृपा से भक्त आपका हो गया। मन मंदिर में प्रभु बुलाने आया हूँ, पूजन करके जिनगुण पाने आया हूँ।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण नरेन्द्र छंद तन की प्यास बुझाने वाला, सरिता का जल लाया। आत्म तYव की प्या जगा दे, वह जल पाने आया।। हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 20 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तन का ताप मिटाने वाला, शीतल चंदन भाया। राग आग संताप मिटाने, आप शरण में आया।। हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।2।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। परम शुद्ध अक्षय पद पाने, भावाक्षत ले आया। भव समुद्र से पार उतरने, नोका पाने आया । हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। अपनी अनुकंपा से जिनवर, इतनी शक्ती देना। विषय भोग से हार गया हूँ, कामजयी कर देना।। हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। पर द्रव्यों से भूख मिटी ना, क्षुधा रोग है भारी। निज आतम अनुभच चरु पाने, आया शरण तिहारी ॥ ___ हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना।।5।। ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे ही मिथ्यात्व कर्म से, छाया है अंधियारा । प्रभो आपके चरण दीप से, पाऊँ मैं उजियारा ॥ हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना॥6॥ ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। कर्म शत्रु से करी मित्रता, इसका ही फल पाया। चउ गतियों में भ्रमण कराया, कर्मों की ये माया।। हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना॥ 7 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। अशुभ भाव के कारण मैंने, कभी नहीं सुख पाया। संवर और निर्जरा द्वारा, शिवपथ पाने आया ॥ हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना॥ 8 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभो आपके दर्शन पाकर, जिन दर्शन ना पाया। सिद्धक्षेत्र का आसन पाने, अर्घ्य सजा के लाया ॥ हे अभिनंदन स्वामी मेरे, देहालय में आना। दर्शन देकर दुष्कर्मों से, मुझको नाथ छुड़ाना॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 22 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद विजय विमान से आयेप्रभुजी, नगरी लगती अतिशायी। शुभ वैशाख शुक्ल षष्ठी को, माँ सिद्धार्थी हर्षायी ।।1।। ऊँ हीं वैशाखशुक्लषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। माघ शुक्ल बारस को स्वामी, अभिनंदन ने जन्म लिया ।। नृपति स्वयंवर के प्रांगण में, इंद्र शचि सुर नृत्य किया॥2॥ ॐ हीं माघशुक्लद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। नश्वर बादल को लख प्रभु ने, संयम अंगीकार किया। माघ शुक्ल द्वादश को लौकांतिक देवों ने गान किया ॥3॥ ऊँ हीं माघशुक्लद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पौष शुक्ल की चतुर्दशी को केवलज्ञान उपाया था। समवसरण की रचना करके, धनपति अति हर्षाया था ॥4॥ ऊँ ह्रीं पौषशुक्लचतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। वैशाख शुक्ल षष्ठी के दिन, सम्मेद शिखर से मोक्ष हुआ। श्री अभिनंदन तीर्थंकर से, भवि जीवों को लक्ष्य मिला ॥5॥ ऊँ हीं वैशाखशुक्लषष्ठयां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथजिनेन्द्राय नमो नमः । 23 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला मुक्तः पद्धरि छंद जय अभिनंदन जिनवर महान, गुण गाता है सारा जहान। हे त्यागमूर्ति वात्सल्य धाम, तीर्थंकर को शत-शत प्रणाम ।।1।। चौथे तीर्थंकर आप नाथ, पाकर वसुंधरा हुई सनाथ। सोलह वर्षों तक मौन रहे, फिर क्षपक श्रेणी आरूढ़ हुये।।2।। घाति क्षय कर अरिहंत हुये, भवि जीवों के शिवपंथ हुये। प्रभु तीन अधिक थे शत गणधर, श्री वज्रनाभि पहले श्रुतधर ।।3।। ___ थी मुख्य मेरूषेणा आर्या, सुर नर पशु गण दर्शन पाया। करके विहार उपकार किया, भव्यों का प्रभु कल्याण किया।।4।। प्रभु आप नंत गुण के भंडार, वंदन से हो सब दुःख क्षार। प्रभु की अमृत झरणी वाणी, है परम् प्रमाणी जिनवाणी ।।5।। निज आत्म तव है उपादेय, है भाव विकारी नित्य हेय। है जीव तव उपयोगमयी, बिन चेतन तव अजीव सही ॥6॥ आश्रव औ बंध अहितकारी, संवर औ निर्जर हितकारी। जो रत्नत्रय आश्रय लेते, वे मुक्तिरमा को वर लेते।।7॥ प्रभु ने इस विध उपदेश दिया, पथ भूलों को संदेश दिया। मैं त्याग करूँ बहिरातम का, औ लक्ष्य करूँ परमातम का ॥8॥ अंतर आतम होकर स्वामी, बन जाऊँ मैं शिवपथ गामी। जय-जय जिनवर महिमा निधान, भगवन् कर दो अब कर्म हान।।9॥ तुम कर्म विजेता जगन्नाथ, मेरी भव व्याधि हरो नाथ। नहीं माप सके जलधि अथाह, जल बिम्ब पकड़ने का प्रयास ॥10॥ ___ त्यों गुण वर्णन करना जिनवर, है अल्पमति मेरी प्रभुवर। मैं करूँ भाव से पद प्रणाम, प्रभु देना निश्चित मुक्तिधाम ॥11॥ 24 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता चौथे तीर्थंकर, भव्य हितंकर, किस विध हम गुणमान करें। प्रभु कृपा कीजिये, ज्ञान दीजिये, तव चरणों में आन खड़े।।2।। घत्ता अभिनंदन स्वामी, हे जगनामी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमतिनाथ जिन पूजन स्थापना सखी छंद हेनाथ सुमति के दाता, तव चरणन शीश नवाता । अब भाग्य उदय है आया, तव पूजन करने आया ॥1॥ प्रभु तीन लोक के स्वामी, मैं भटक रहा भवगामी। इस भवसागर से तारो, दुखिया हूँ नाथ उबारो॥2॥ यह भक्त पुकारे आओ, प्रभु अब ना देर लगाओ। मेरे मन मंदिर रहना, मुझको अब भगवन बनना।।3। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-पांचों मेरु.. गंगा जल सम नीर चढ़ाय, जन्म रोग का नाश कराय हे जिनराज करो भव पार।। सुमति दातार, जिन पूजा हैजग में सार, किया न अब तक आत्म विचार सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार ॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। भव आताप सहा नहीं जाय, नाशन हेतु चंदन लाय। सुमति दातार, जिनराज करो भव पार ।। जिन निर्वपामीति स्वाहा॥2॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। । 26 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ भावों के अक्षत लाय, पद अक्षय अनुपम प्रगटाय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन निर्वपामीति स्वाहा।।3।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। निज अखंड पद रूप अनूप, पाऊँ जिनवर ब्रह्म स्वरूप। समति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन निर्वपामीति स्वाहा।।4।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। ____ उत्तम संयम चरु सुहाय, क्षुधा रोग अविलम्ब नशाय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन निर्वपामीति स्वाहा।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। ज्ञान दीप अनमोल जलाय, मोह तिमिर अज्ञान मिटाय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन निर्वपामीति स्वाहा।।6।। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ध्यान अग्नि में कर्म जलाय, सिद्धालय का दर्श कराय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन निर्वपामीति स्वाहा।।7। ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु भक्ति ही शिवफल दाय, भक्त प्रभुजी शीश नवाय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन निर्वपामीति स्वाहा॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 27 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु पद का जो ध्यान लगाय, शिव अनमोल रतन शुभ पाय। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार।। जिन पूजा है जग में सार, किया न अब तक आत्म विचार। सुमति दातार, हे जिनराज करो भव पार ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक सखी छंद श्रावण शुक्ला द्वितीया थी, माँ मंगला उर खुशियाँ थी। प्रभु नगर अयोध्या आये, इंद्रादिक सुर मुस्काये ।।1।। ॐ हीं श्रावणशुक्लद्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु जन्म लिया सुखदाता, एकादशी चौत्र कहाता। शुभ स्वर्ण देह के धारी, हर्षित नगरी है सारी ॥2॥ ॐ हीं चौत्रशुक्लएकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। वैशाख शुक्ल नवमी को, सब त्याग दिये परिजन को। जय सुमतिनाथ तीर्थंकर, हो प्राणिमात्र क्षेमंकर ॥3॥ ॐ हीं वैशाखशुक्लनवम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। जब प्रतिमा योग को धारा, अद्भुत प्रकाश उजियारा। वे चौत्र सुदी ग्यारस थी, केवललक्ष्मी प्रगटी थी।4।। ॐ हीं चौत्रशुक्लएकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जब ग्यारस चौत्र सुदी थी, तब पाई शिवलक्ष्मी थी। प्रभु अचल हुए अविचल से, शुभ कूट सम्मेदाचल से ।।5।। ॐ हीं चौत्रशुक्लएकादश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 28 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाप्य ऊँ ह्रीं अर्हं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला दोहा प्रभु क्षेत्र से दूर हूँ, रखना मेरा ध्यान । शिव आलय में आ बसूँ, दो ऐसा वरदान ।1।। चौपाई हे पंचम तीर्थंश नमस्ते, गिरी शिखर से मुक्त नमस्ते । अरि नाशक अरहंतनमस्ते, वीतराग जिन संत नमस्ते ॥2॥ जन्म अयोध्या नगर नमस्ते, भव्य जीव आधार नमस्ते । पितु मेघप्रभ माँ मंगला से, जन्म लिया है प्रभु नमस्ते ॥3॥ दुखहारी सुखकार नमस्ते, त्रिभुवन पति हितकार नमस्ते। सत्य तथ्य शिवकार नमस्ते, दोष अठारह मुक्त नमस्ते॥4॥ शील धर्म परिपूर्ण नमस्ते, भविजन पालक नाथ नमस्ते । एक शतक सोलह गणधर से, सुमतिनाथ जिनराय नमस्ते ॥5॥ पंचम गति आवास नमस्ते, चिदानंद चिद्रूपनमस्ते । राग-द्वेष से रहित नमस्ते, नंत गुणों से सहित नमस्ते॥6॥ भक्त करे य योग नमस्ते, स्वीकारो जिनईश नमस्ते । पतित जनों के शरण नमस्ते, पावन शिवपुर पंथ नमस्ते ॥7॥ 29 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद पूजित शत इंद्र नमस्ते, सुमति-सुमति दातार नमस्ते। जन्म नमस्ते, मोक्ष नमस्ते, जिन जीवन है धन्य नमस्ते ॥8॥ मोक्ष कल्पतरु नाथ नमस्ते, कामधेनु चिन्मणी नमस्ते । ज्ञान सिंधु उत्तीर्ण नमस्ते, 'विद्यासागर पूर्ण' नमस्ते ॥9॥ दोहा दुर्बुद्धि कुमति तनँ, धरूँ सुमति सुखकार। परमातम से मिलन हो, अर्पण गुणमणि हार ॥10॥ ऊँ हीं अहँ श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। ऊँ हीं श्रीसुमतिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णर्य निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री सुमति जिनंदा, आनंद कंदा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 30 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मप्रभ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद जय-जयपद्मजिनेश्वर मेरे, पावन पद्माकर सुखधाम । भव दुखहर्ता, मंगलकर्ता, छठवें तीर्थंकर अभिराम।। हरो अमंगल प्रभु अनादि का, भाव यही लेकर आया। मन मंदिर है मेरा सूना, आह्वान करने आया।। वीतरागसर्वज्ञहितैषी, पद्मजिनेश्वर प्रभु महेश। पूजा को स्वीकारों स्वामी, दिखला दो मुक्ति का देश।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण ज्ञानोदय छंद जन्म मरण की इस ज्वाला में, अब तक मैं जलता आया। सिंधु नीर से बुझी न ज्वाला, अतः भक्ति का जल लाया।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 31 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवाताप से व्यथित हुआ हूँ, अगणित दुख पाये स्वामी। तप्त हृदय शीतल कर दो, संताप हरो अंतर्यामी।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हँ आया।।2।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। नश्वरता में ही सुख माना, अक्षय पद ना जाना है। दर्श आपका पाया जबसे, जिन पद पाना ठाना है।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। इंन्द्रिय सुख के महाजाल में, भगवन् फँसकर तड़फ रहा। मुझे बचा लो काम विषय से, तुम्हें छोड़कर जाऊँ कहाँ ।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। तरह-तरह के व्यंजन खाकर, क्षुधान मन की मिट पाई मन की इच्छाओं पर स्वामी, अब तक विजय नहीं पाई।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।5।। ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 32 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह महातम नाश हेतु, यह दीपक भेंट चढ़ाया है। अंतर घट में हो उजियारा, ज्ञान ज्येति प्रकटाना है ।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन, शरण तिहारी हँ आया।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। पर परणति के नाश हेतु, यह धूप सुगंधित लाया हूँ। अष्ट कर्म को जला जलाकर, धूम्र उड़ाने आया हूँ।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।।7। ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। दुष्कर्मों के फल को भोगा, चतुर्गति में किया भ्रमण। मोक्ष महाफल पाने भगवन्, आया तेरी चरण शरण ।। श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जल से फल का वैभव सारा,आज चढ़ाने आया हूँ। थ्नज अनध्य पद देना स्वामी, भाव संजोकर लाया हूँ।। __ श्री पद्माकर पद्म जिनेशा, तव दर्शन कर हर्षाया। आत्म शांति पाने को भगवन्, शरण तिहारी हूँ आया।॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 33 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद माघ कृष्ण षष्ठी के शुभ दिन, हुआ गर्भ कल्याण महान । पंद्रह मास रतन बरसाये, किया सुरों ने मंगलगान।। उपरिम ग्रैवेयक से आये, मात सु सीमा हर्षाई। धरणराज की शुभ नगरी में, अतिशय खुशियाँ हैं छाई ॥ 1 ॥ ऊँ ह्रीं माघकृष्णषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। कार्तिक कृष्णा तेरस के दिन, त्रिभुवन में आनंद हुआ। कौशांबी नगरी में आकर, देवों ने जयगान किया ।। मेरु सुदर्शन पांडुक वन में, हर्षित हो अभिषेक किया। सुराड्.नाओं ने प्रभु आगे, थिरक - थिरक कर नृत्य किया।।2। ऊँ हीं कार्तिककृष्णत्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाति स्मरण जब हुआ प्रभु को कार्तिक कृष्ण त्रयोदश थी। लौकांतिक देवों ने आकर, तप संयम की अर्चा की।। पøप्रभ ने मुनिव्रत धारा, जिन पद से अनुराग किया। पर तत्त्वों से चित्त हटाया, जग वैभव को त्याग दिया ॥3॥ ऊँ हीं कार्तिककृष्णत्रयोदश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। चौत्र शुक्ल की पूर्णमासी थी, चार घाति अवसान किया। पाकर केवलज्ञान प्रभु ने, भव बंधन का नाश किया। सप्त तत्त्व का समवसरण में, किया प्रभु सुंदर उपदेश। षट् द्रव्यों के प्रभु प्रणेता, जय-जय जयप्रभु पद्म जिनेश॥4॥ ऊँ हीं चौत्रशुक्लपूर्णिमायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 34 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन, अष्ट कर्म का नाश किया। मोहन कूट सम्मेदाचल से, सिद्धालय में वास किया।। अंतिम शुक्लध्यान धरकर जब, ऊर्ध्व लोक में किया गमन। सादि अनंत सिद्ध पद पाया, भव्य जनों ने किया नमन।।5।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णचतुथ्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला दोहा पदम चिन्ह शोभित चरण, न| अनंतों बार। प्रभु कृपा हो भक्त पर, करें भवाम्बुधि पार।।1।। ज्ञानोदय छंद जय-जय पद्मप्रभ जगनामी, आप सर्व जग हितकार। शरण आ गया नाथ आपकी, दुःख सह रहा अति भारी। ___ बहु आरंभ परिग्रह से प्रभु, नरक गति में जा पहुँचा। दुःख सहे अनगिनती स्वामी, वचनों से नहीं जाए कहा ।।2।। वैतरणी में गिरा कभी तो, सेमर तरु असि धार ने। क्षुधा तृषा से व्यथित हुआ औ, शीत उष्ण के दुःख सहे।। राग भाव से अपना माना, वो ही वैरी बने वहाँ। आर्तध्यान से मरकर स्वामी, पशु गति में जा पहुँचा।।3।। एकेन्द्रिय भी कभी बना तो, दुष्कर्मों का बोझ सहा। देव गति भी पाकर भगवन्, विषय भोग में मस्त रहा।। प्रभु पूजन भक्ति नहीं कीनी, पर परिणति में भटक गया। 35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुर्लभ नर तन पाकर प्रतिपल, कर्म फलों में अटग गया।।4। प्रभु आपने जग वैभव को, हेय जानकर ठुकराया। आत्म साधना के साधन से, परम शुद्ध पद को पाया।। भव्य जनों को समवसरण में, वस्तु तत्त्व का ज्ञान दियां है अनंत उपकार आपका, परमातम का ज्ञान दिया ॥5॥ एक शतक ग्यारह थे गणधर, उनको भी मैं नमन करूँ । साम्य भाव धर उर अंतर में, राग-द्वेष का हनन करूँ। पद्म जिनेश्वर आप कृपा से, शरण तिहारी आया हूँ। बालक पर उपकार करो प्रभु, तुम सम बनने आया हूँ||6| नाथ आपने भूले भटके, भव्यों को शिव द्वार दिया। सिद्धालय की आशा लेकर, मैं भी चरण शरण आया ।। बाल सूर्य समवर्ण आपका, पøप्रभ जिनराज महान । जयमाला अर्पण करता हूँ, नर जाऊँ मैं भी निर्वाण ॥17॥ ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री पद्म जिनेशा, नमित सुरेशा, भव-भव का संताप हरो । निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो ।। ॥ इत्याशीर्वादः ॥ 36 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुपार्श्वनाथ जिन पूजन स्थापना नरेंद्र छंद श्री सुपार्श्व प्रभु के चरणों में, पूजन करने आया। चिद्भावों को विशुद्ध करके, कर्म नशाने आया।। दर्श किया तो लगा मुझे यों, सिद्धालय को पाया। हृदय कमल में बस जाओ प्रभु, भक्ति सुमन ले आया।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण स्रग्विणी छंद जन्म और मृत्यु का रोग भारी प्रभो । सब मिटा दो अहो दुःखहारी विभो।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। जन्म का नाश निश्चित करूँगा विभो।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। कर्म आताप से नाथ जर्जर हुआ। शांति मुझको मिली जब से दर्श हुआ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। भव का संताप नाश करूँ विभो।।2।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 37 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे पाया अभी तक वो नाश हुआ। आपको देख शाश्वत का भान हुआ ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। पद अक्षय को निश्चित वरूँगा विभो ॥3॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। भा रही थी मुझे काम बंध कथा। आपके दर्श से भा रही आतमा || आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। शुद्ध आतम का दर्श करूँगा विभो ॥4॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। भूख व्याधि मुझे नाथ तड़पा रही। तृष्णा नागिन प्रभु जो डँसी जा रही। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अक्ष मन के विषय को तजूँगा विभो ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। मोह माया का तूफान भटका रहा। ज्ञान नभ में घना मेघ मंडरा रहा। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। आप सम पूर्णज्ञानी बनूँगा विभो ॥6॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 38 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बंधन की कारा में कब से पड़ा। नाथ मुझको छुड़ा लो मैं दर पे खड़ा।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अष्टकर्मों का नाश करूँगा विभो।।7। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। यूँ ही जीवन गंवाया है निष्फल रहा। राग-द्वेष ने लूटा है उपवन महा।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। मोक्ष लक्ष्मी का स्वामी बनूँगा विभो।।8।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा। भव से तारो मुझे मैं व्यथित हँ यहाँ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अर्चना से जिनेश्वर बनूँगा विभो॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक स्रग्विणी छंद भाद्र शुक्ला की षष्ठी मनोहर अति। गर्भ में आ गये तीन जग के पति।। स्वप्न को देख माँ पृथ्वी हरषा गई। जय सुपार्श्व प्रभो देवियाँ कह रही।।1।। ॐ हीं भाद्रशुक्लषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 39 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म वाराणसी में प्रभु ने लिया। सुप्रतिष्ठ के गृह को पवित्र किया।। ज्येष्ठ शुक्ला की बारस तिथि गई। सर्व आनंद की ही छटा छा गई।।2। ऊँ ही ज्येष्ठशुक्लोद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जन्म उत्सव ही दीक्षा में बदला तभी। राग पथ त्याग वैराग्य धारा तभी।। रूप हैं निर्विकारी महाव्रत धरें। श्री सपार्श्व प्रभूजी की जय-जय करें।।3।। ऊँ ही ज्येष्ठशुक्लोद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। कृष्ण फाल्गुन की षष्ठी तिथि आ गई। नाशे चउ घातिया निज निधि मिल गई।। हुई रचना समोसर्ण की सुखकरी। ध्वनि स्पार्श्व प्रभुवर की है हितकरी।।4।। ॐ हीं फाल्गुनकृष्णषष्ठयां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सप्तमी कृष्ण फाल्गुन की जब आ गई। वसु विधि नाशकर शिवरमा मिल गई। मोक्ष का धाम कूट प्रभास रहा। दर्श कर पा रहे यात्री शांति महा।।5।। ॐ हीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अहँ श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 40 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला ज्ञानोदय छंद जय सुपार्श्वसप्तम तीर्थंकर, दीनानाथ कहाते हो। ळम अज्ञानी रागी-द्वेषी, तम जगनाथ कहाते हो।। स्वस्तिक चिहित पद कमलों में, करते वंदन बारम्बार। श्री स्पार्श्व जिनराज हमारे, करते हैं भविजन को पार।।1।। कहूँ नाथ क्या आज आपसे, मैं दुखिया भववासी हूँ। तेरी अनुपम करुणा का ही, नाथ हुआ अभिलाषी हूँ। आज आपकी महिमा सुनकर, आया हूँ श्री चरणों में। कृपा आपकी हो जाये तो, लीन रहूँगा चरणों में।2।। नहीं सुनोगे मेरी अरजी, और कहाँ मैं जाऊँगा। अन्य आपसा सच्चा भगवन्, और कहाँ मैं पाऊँगा।। भटक रहा हूँ भव-वन में, सन्मार्ग मुझे अब दे देना। कौन सुनेगा जग में मेरी, नाथ मुझे अपना लेना।।3।। बहुविध उपसर्गों को सहकर, जगत पूज्य अरहंत हुये। ऊध्व मध्य औ अधोलोक से, प्रभु आप जगवंद्य हुये।। पंचानवे गणधर प्रभु के थे, मीनार्या थी प्रमुख महान। बारह कोठे में श्रोतागण, सुन वाणी करते कल्याण।।4।। अरहंत पद पाकर प्रभु ने, सप्त तत्त्व उपदेश दिया। राग-द्वेष से भव बढ़ता है, जीवों को संदेश दिया।। श्रीसुपार्श्व जिनवर को पूनँ, नित्य उन्हीं का ध्यान करूँ। श्रागादिक का नाश करूँ मैं, मक्तिवधू अविराम वरूँ।।5।। जिसने भी तव चरण धूल को, अपने शीश चढ़ाया है। 41 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा भयानक भव सागर से, उसको पार लगाया है।। तेरे उद्धारक चरणों पर,नाथ मेरी बलिहारी है। वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, “पूर्ण ज्ञान के धारी हैं ।।6।। दोहा यद्यपि दोष का कोष हूँ, अज्ञानी हूँ नाथ। फिर भी भक्ति प्रबल है, चरण नमाऊँ माथ।।7।। ॐ हीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायू निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता हेसुपार्श्व स्वामी, अंतर्यामी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, “विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः। 42 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रपभ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद मुझमें इतनी शक्ति नहीं है, कैसे नाथ पुकारूँ मैं। मेरे मन मंदिर आवो या , भावों से आ जाऊँ मैं।। जैसा प्रभुवर आप कहोगे, वैसा मुझको करना है। लक्ष्य यही है चन्द्रप्रभ जी, भवसागर से तरना है।। भक्त अकेला तड़फ रहा है, विरह वेदना सुन लेना। आह्वानन करता हूँ स्वामी, देहालय में आ जाना।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण त्रिभंगी छंद प्रासुक जल लाया, चरण चढ़ाया, मन निर्मल ना कर पाया। तन का मल धोया, मन ना धोया, बुझी न जवाला शरणाया।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 43 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु भवदधि पारण, शांति विधायक, भवि शिव मारग कारक हो। तव धुनि हितकारी, शीतल कारी, भवाताप के हारक हो।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सारा जग नश्वर, प्रभु विनश्वर, भवि रक्षक हो त्रिभुवन में। अक्षय पद देना, राह दिखाना, भटक गए हैं भव वन में।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूर्जे ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।3।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । प्रभु विषय विरत हो, आत्म निरत हो, ब्रह्माचर्य व्रत अतिशायी। मम काम नशा दो, आतम बल दो, कामशूर है बलशाली।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आप निराकुल, मैं हूँ व्याकुल, क्षुधा रोग का रोगी हूँ। प्रभु परम वैद्य हो, क्षुधा ध्वंस हो, कर्म फलों का भोगी हूँ।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूजूं ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।5।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन वचन तिहारे, कर्म निवारे, सत्पथ मारग प्रगटाये। अज्ञान हटायें, ज्ञान जगायें, आर कर मनहर्षाये।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आप सिद्ध हो, जग प्रसिद्ध हो, शुद्ध गंध को हम लाये। प्रभु शुद्ध बना दो, ऐसा वर दो, सिद्धालय को हम जाये।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आप सफल हैं, जग निष्फल है, इंद्रिय सुख को ना चाहूँ। सान्निध्य तिहारा, श्रीजिन प्यारा, मोक्ष महाफल पा जाऊँ।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूजूं ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।8।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा। हम दास तिहारे, आये द्वारे, सिद्धक्षेत्र में बस जायें। पद अर्घ्य चढ़ाये, शरणे आये, चन्द्रप्रभ सम बन जायें।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।9।। ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यनिर्वपामीति स्वाहा। 45 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद गर्भ दिवस पर मात लक्ष्मणा, देखे सोलह स्वप्न महान। चौत्र कृष्ण पंचमी को त्यागा, वैजयंत का महा विमान।। चंद्र कांति सम चन्द्रप्रभ की, महिमा वृहस्पति गाते। रत्नों की बौछार हो रही, सुर नरपति भी हर्षाते।।1। ऊँ ही चौत्रकृष्णपंचम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पौष कृष्ण एकादशी को नृप, महासेन घर जन्म लिया। मेरु सुदर्शन पर ले जाकर, जिन बालक का न्हवन किया।। प्रभु के जन्म कल्याणक को लख, छाया हर्ष अपार हैं चन्द्रपुरी में गूंज रहें हैं, घर-घर मंगलाचार है।।2।। ॐ हीं पौषकृष्णएकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। प्रभुवर के तप कल्याणक की, महिमा वच से कही न जाय। संयम तप वैरागय का उतसव, करके सुर नर मुनि हर्षाय।। वस्त्राभूषण त्याग दिये सब, पंच महाव्रत धार लिया। जन्म दिवस के दिन ही प्रभु ने, संयम से अनुराग किया।।3।। ऊँ ही पौषकृष्णएकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 46 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन माह छद्मस्थ रहे प्रभु, निज आतम में होकर लीन। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन, केवलज्ञान हुआ स्वाधीन।। पूर्णज्ञान है कल्पवृक्ष सम, भविजन मनवांछित पाते। समवसरण में सुर नर पशु आ,सम्यग्दर्शन पा जाते।।4।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। महा मोक्ष कल्याण आपका, नमूं जोड़कर हाथ प्रभो। और नहीं कुछ मुझे चाहिये, रहूँ आपके साथ प्रभो।। फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन, ललित कूट से मुक्त हुये। कर्म नष्ट कर सिद्धक्षेत्र में, मुक्तिरमा से युक्त हुये।।5।। ॐ हीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला ज्ञानोदय छंद वीतराग अरहंत प्रभु को, मन वच तन से करूँ प्रणाम। अनंत चतुष्टय के धारी हैं, करते हैं, भविजन कल्याण।। भावों से भरकर करते हैं, आज प्रभु का हम गुणगान। चिंतामणि श्री चन्द्रप्रभ जी, करते सब कर्मों की हान।।1।। चन्द्रपुरी के महासेन नृप, हुए यशस्वी अति गुणवान। उनकी प्रिय रानी के उर से, जन्मे तीर्थंकर भगवान।। जन्म हुआ जब प्रभु आपका, देवों ने जयगान किया। प्रभु के तन को देख सभी ने, निज चेतन को जान लिया।।2।। राज पाट में न्याय नीति से, यौवन में में जब लीनहुये। 47 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंतु स्व-पर का भेद जानकर, सिंहासन आसीन हुये।। देख चमकती बिजली तत्क्षण, नष्ट हुई तो किया विचार। सारा जग क्षणभंगुर माया, वस्त्राभूषण लिये उतार।।3। तीन माह तक मौन रहे और, कठिन तपस्या की जिनवर। द्वादश तप के ही प्रभाव से, कर्म निर्जरा की प्रभुवर॥ सप्तम गुणथानक में पहुँचे, आत्म तत्त्व का करके ध्यान। चार घातिया क्षय करते ही, प्रभु ने पाया केवलज्ञान।।4।। थे तिरानवे गणधर प्रभु के, मुख्य आर्यिका वरुणा मात। श्रोता दानवीर्य आदि ने, वचन सुने होकर नत माथ।। नाथ आपने समवसरण में, सार वस्तु को बतलाया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, अतः शरण में अब आया।।5।। हे चन्द्रप्रभ आप पंथ पर, चलकर जिन पद पाऊँगा। तव प्रसाद से लोक अग्र पर, सिद्धक्षेत्र को जाऊँगा।। चन्द्र चिह्न शोभित चरणों में, आज नवाऊँ अपना शीश। परम पवित्र सिद्ध पद पाऊँ, ऐसा दो मुझको आशीष ।।6।। दोहा कोटि भानु शशि से महा, जिनवर ज्योर्तिमान। चन्द्रप्रभ तीर्थेश हैं, अनंत गण की खान।।7।। ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता चन्द्रप्रभ स्वामी, हे शिवधामी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 48 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुपार्श्वनाथ जिन पूजन स्थापना नरेंद्र छंद श्री सुपार्श्व प्रभु के चरणों में, पूजन करने आया। चिद्भावों को विशुद्ध करके, कर्म नशाने आया।। दर्श किया तो लगा मुझे यों, सिद्धालय को पाया। हृदय कमल में बस जाओ प्रभु, भक्ति सुमन ले आया।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण स्रग्विणी छंद जन्म और मृत्यु का रोग भारी प्रभो । सब मिटा दो अहो दुःखहारी विभो।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। जन्म का नाश निश्चित करूँगा विभो।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। कर्म आताप से नाथ जर्जर हुआ। शांति मुझको मिली जब से दर्श हुआ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। भव का संताप नाश करूँ विभो।।2।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 49 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे पाया अभी तक वो नाश हुआ। आपको देख शाश्वत का भान हुआ ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। पद अक्षय को निश्चित वरूँगा विभो ॥3॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। भा रही थी मुझे काम बंध कथा। आपके दर्श से भा रही आतमा || आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। शुद्ध आतम का दर्श करूँगा विभो ॥4॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। भूख व्याधि मुझे नाथ तड़पा रही तृष्णा नागिन प्रभु जो डँसी जा रही। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अक्ष मन के विषय को तजूँगा विभो ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। मोह माया का तूफान भटका रहा। ज्ञान नभ में घना मेघ मंडरा रहा। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। आप सम पूर्णज्ञानी बनूँगा विभो ॥6॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बंधन की कारा में कब से पड़ा। नाथ मुझको छुड़ा लो मैं दर पे खड़ा।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अष्ट कर्मों का नाश करूँगा विभो।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। यूँ ही जीवन गंवाया है निष्फल रहा। राग-द्वेष ने लूटा है उपवन महा।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। मोक्ष लक्ष्मी का स्वामी बनूँगा विभो।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा। भव से तारो मुझे मैं व्यथित हूँ यहाँ।। आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो। अर्चना से जिनेश्वर बनूँगा विभो।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक स्रग्विणी छंद भाद्र शुक्ला की षष्ठी मनोहर अति। गर्भ में आ गये तीन जग के पति।। स्वप्न को देख माँ पृथ्वी हरषा गई। जय सुपार्श्व प्रभो देवियाँ कह रही।।1। ऊँ ही भाद्रशुक्लषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म वाराणसी में प्रभु ने लिया। सुप्रतिष्ठ के गृह को पवित्र किया। ज्येष्ठ शुक्ला `की बारस तिथि गई। सर्व आनंद की ही छटा छा गई || 2 || ॐ हीं ज्येष्ठशुक्लोद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जन्म उत्सव ही दीक्षा में बदला तभी राग पथ त्याग वैराग्य धारा भ रूप हैं निर्विकारी महाव्रत धरें। श्री सुपार्श्व प्रभुजी की जय-जय करें॥3॥ ऊँ हीं ज्येष्ठशुक्लोद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। कृष्ण फाल्गुन की षष्ठी तिथि आ गई। नाशे च घातिया निज निधि मिल गई || हुई रचना समोसर्ण की सुखकरी। ध्वनि सुपार्श्व प्रभुवर की है हितकरी ॥4॥ ऊँ हीं फाल्गुनकृष्णषष्ठयां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। सप्तमी कृष्ण फाल्गुन की जब आ गई। वसु विधि नाशकर शिवरमा मिल गई। मोक्ष का धाम कूट प्रभास रहा। दर्श कर पा रहे यात्री शांति महा ॥ 5 ॥ ऊँ हीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अर्हं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 52 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला ज्ञानोदय छंद जय सुपार्श्व सप्तम तीर्थंकर, दीनानाथ कहाते हो। हम अज्ञानी रागी-द्वेषी, तुम जगनाथ कहाते हो। स्वस्तिक चिह्ति पद कमलों में, करते वंदन बारम्बार । श्री सुपार्श्व जिनराज हमारे, करते हैं भविजन को पार।।1।। कहूँ नाथ क्या आज आपसे, मैं दुखिया भववासी हूँ । तेरी अनुपम करुणा का ही, नाथ हुआ अभिलाषी हूँ । आज आपकी महिमा सुनकर, आया हूँ श्री चरणों में। कृपा आपकी हो जाये तो, लीन रहूँगा चरणों में।2। नहीं सुनोगे मेरी अरजी, और कहाँ मैं जाऊँगा। अन्य आपसा सच्चा भगवन्, और कहाँ मैं पाऊँगा।। भटक रहा हूँ भव-वन में, सन्मार्ग मुझे अब दे देना। कौन सुनेगा जग में मेरी, नाथ मुझे अपना लेना॥3॥ बहुविध उपसर्गों को सहकर, जगत पूज्य अरहंत हुये। ऊध्र्व मध्य औ अधोलोक से, प्रभु आप जगवंद्य हुये।। पंचानवे गणधर प्रभु के थे, मीनार्या थी प्रमुख महान। बारह कोठे में श्रोतागण, सुन वाणी करते कल्याण ॥4॥ अरहंत पद पाकर प्रभु ने, सप्त तत्त्व उपदेश दिया। राग-द्वेष से भव बढ़ता है, जीवों को संदेश दिया।। श्रीसुपार्श्व जिनवर को पूजूँ, नित्य उन्हीं का ध्यान करूँ। श्रागादिक का नाश करूँ मैं, मक्तिवधू अविराम वरूं ॥ 5॥ जिसने भी तव चरण धूल को, अपने शीश चढ़ाया है। महा भयानक भव सागर से, उसको पार लगाया है।। 53 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरे उद्धारक चरणों पर,नाथ मेरी बलिहारी है। वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, “पूर्ण' ज्ञान के धारी हैं ।।6।। दोहा यद्यपि दोष का कोष हूँ, अज्ञानी हूँ नाथ। फिर भी भक्ति प्रबल है, चरण नमाऊँ माथ।।7।। ऊँ हीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता हे सुपार्श्व स्वामी, अंतर्यामी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 54 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रपभ जिन पूजन स्थापना __ज्ञानोदय छंद मुझमें इतनी शक्ति नहीं है, कैसे नाथ पुकारूँ मैं। मेरे मन मंदिर आवो या , भावों से आ जाऊँ मैं।। जैसा प्रभुवर आप कहोगे, वैसा मुझको करना है। लक्ष्य यही है चन्द्रप्रभ जी, भवसागर से तरना है।। भक्त अकेला तड़फ रहा है, विरह वेदना सुन लेना। आह्वानन करता हूँ स्वामी, देहालय में आ जाना।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण त्रिभंगी छंद प्रासुक जल लाया, चरण चढ़ाया, मन निर्मल ना कर पाया। तन का मल धोया, मन ना धोया, बुझी न जवाला शरणाया।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। __ मैं पूजूं ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 55 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु भवदधि पारण, शांति विधायक, भवि शिव मारग कारक हो। तव धुनि हितकारी, शीतल कारी, भवाताप के हारक हो।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूर्टो ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सारा जग नश्वर, प्रभु विनश्वर, भवि रक्षक हो त्रिभुवन में। अक्षय पद देना, राह दिखाना, भटक गए हैं भव वन में।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु विषय विरत हो, आत्म निरत हो, ब्रह्माचर्य व्रत अतिशायी। मम काम नशा दो, आतम बल दो, कामशूर है बलशाली।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूजूं ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आप निराकुल, मैं हूँ व्याकुल, क्षुधा रोग का रोगी हूँ। प्रभु परम वैद्य हो, क्षुधा ध्वंस हो, कर्म फलों का भोगी हूँ।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूजूं ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 56 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन वचन तिहारे, कर्म निवारे, सत्पथ मारग प्रगटाये। अज्ञान हटायें, ज्ञान जगायें, आर कर मनहर्षाये।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आप सिद्ध हो, जग प्रसिद्ध हो, शुद्ध गंध को हम लाये। प्रभु शुद्ध बना दो, ऐसा वर दो, सिद्धालय को हम जाये।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आप सफल हैं, जग निष्फल है, इंद्रिय सुख को ना चाहूँ। सान्निध्य तिहारा, श्रीजिन प्यारा, मोक्ष महाफल पा जाऊँ।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई॥8॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा। हम दास तिहारे, आये द्वारे, सिद्धक्षेत्र में बस जायें। पद अर्घ्य चढ़ाये, शरणे आये, चन्द्रप्रभ सम बन जायें।। अष्टम तीर्थंकर, घाति क्षयंकर, भव्य हितंकर जिनराई। मैं पूनँ ध्याऊ, श्री गुण गाऊँ, श्री चन्द्रप्रभ सुखदाई।।9। ऊँ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 57 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद गर्भ दिवस पर मात लक्ष्मणा, देखे सोलह स्वप्न महान। चौत्र कृष्ण पंचमी को त्यागा, वैजयंत का महा विमान।। चंद्र कांति सम चन्द्रप्रभ की, महिमा वृहस्पति गाते। रत्नों की बौछार हो रही, सुर नरपति भी हर्षाते।।1।। ऊँ ही चौत्रकृष्णपंचम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पौष कृष्ण एकादशी को नृप, महासेन घर जन्म लिया। मेरु सुदर्शन पर ले जाकर, जिन बालक का न्हवन किया।। प्रभु के जन्म कल्याणक को लख, छाया हर्ष अपार हैं चन्द्रपुरी में गूंज रहें हैं, घर-घर मंगलाचार है।।2। ऊँ ही पौषकृष्णएकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। प्रभुवर के तप कल्याणक की, महिमा वच से कही न जाय। संयम तप वैरागय का उतसव, करके सुर नर मुनि हर्षाय।। वस्त्राभूषण त्याग दिये सब, पंच महाव्रत धार लिया। जन्म दिवस के दिन ही प्रभु ने, संयम से अनुराग किया।।3।। ऊँ ही पौषकृष्णएकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। तीन माह छद्मस्थ रहे प्रभु, निज आतम में होकर लीन। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन, केवलज्ञान हुआ स्वाधीन।। पूर्णज्ञान है कल्पवृक्ष सम, भविजन मनवांछित पाते। समवसरण में सुर नर पशु आ,सम्यग्दर्शन पा जाते।।4।। ॐ हीं फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 58 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महा मोक्ष कल्याण आपका, नमूँ जोड़कर हाथ प्रभो । और नहीं कुछ मुझे चाहिये, रहूँ आपके साथ प्रभो।। फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन, ललित कूट से मुक्त हुये। कर्म नष्ट कर सिद्धक्षेत्र में, मुक्तिरमा से युक्त हुये॥5॥ ऊँ हीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अर्हं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमो नमः । जयमाला ज्ञानोदय छंद वीतराग अरहंत प्रभु को, मन वच तन से करूँ प्रणाम। अनंत चतुष्टय के धारी हैं, करते हैं, भविजन कल्याण।। भावों से भरकर करते हैं, आज प्रभु का हम गुणगान। चिंतामणि श्री चन्द्रप्रभ जी, करते सब कर्मों की हा ॥ 1 ॥ चन्द्रपुरी के महासेन नृप, हुए यशस्वी अति गुणवान। उनकी प्रिय रानी के उर से, जन्मे तीर्थंकर भगवान ।। जन्म हुआ जब प्रभु आपका, देवों ने जयगान किया। प्रभु के तन को देख सभी ने, निज चेतन को जान लिया ||2| राज पाट में न्याय नीति से, यौवन में में जब लीनहुये। किंतु स्व-पर का भेद जानकर, सिंहासन आसीन हुये ।। देख चमकती बिजली तत्क्षण, नष्ट हुई तो किया विचार। सारा जग क्षणभंगुर माया, वस्त्राभूषण लिये उतार ॥ 3 ॥ तीन माह तक मौन रहे और, कठिन तपस्या की जिनवर। द्वादश तप के ही प्रभाव से, कर्म निर्जरा की प्रभुवर।। सप्तम गुणथानक में पहुँचे, आत्म तत्त्व का करके ध्यान। चार घातिया क्षय करते ही, प्रभु ने पाया केवलज्ञान॥4॥ 59 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे तिरानवे गणधर प्रभु के, मुख्य आर्यिका वरुणा मात। श्रोता दानवीर्य आदि ने, वचन सुने होकर नत माथ।। नाथ आपने समवसरण में, सार वस्तु को बतलाया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, अतः शरण में अब आया।।5।। हे चन्द्रप्रभ आप पंथ पर, चलकर जिन पद पाऊँगा। तव प्रसाद से लोक अग्र पर, सिद्धक्षेत्र को जाऊँगा।। चन्द्र चिह्न शोभित चरणों में, आज नवाऊँ अपना शीश। परम पवित्र सिद्ध पद पाऊँ, ऐसा दो मुझको आशीष ।।6।। दोहा कोटि भानु शशि से महा, जिनवर ज्योर्तिमान। चन्द्रप्रभ तीर्थेश हैं, अनंत गुण की खान।।7।। ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता चन्द्रप्रभ स्वामी, हे शिवधामी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 60 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुविधिनाथ जिन पूजन स्थापना गीता छंद जय-जय विदेही आप जिनवर, पुष्पदंत जिनेश्वरम्। श्री सुविधिनाथ जिनेश जय-जय, जय भवोदधि तारणम्।। मैं करूँ निर्मल भाव पूजन, ज्ञान सूर्य प्रकाशकम्। मम आतमा में आ पधारो, हे मेरे परमेश्वरम्।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण आडिल्ल छंद जन्म जरा मृत्यु से मैं भयभीत हूँ। काल अनंता से तृष्णा में लिप्त हूँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।1। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। तन की तपन मिटाने वाला है चंदन। भवाताप का नाश कराता जिन वंदन।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम शांत निराकुल अक्षय पद पाऊँ। अक्षत चरण चढ़ा कर जिन पद गुण गाऊँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। मार्दव गुण को आज पाने आया हूँ। काम विकास विनाश करने आया हूँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। इच्छाओं की भूख मिटाने आया हूँ। रत्नत्रय नैवेद्य पाने आया हूँ। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। अंतर को आलोकित करने आ गया। मोह महाबली नाश करने आ गया।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 62 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठों कर्म विचित्र आतम में छाये। प्रभु शरण में आते ही सब नश जाये।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।7। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सुविधिनाथ विधि अंत हमारे कीजिये। सिद्धों जैसा सुख अनंत फल दीजिये ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।8।। ॐ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जग में सबका मूल्य, आप अनमोल हैं। अनर्घ्य पद पाने को जिनवर ठोर हैं।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधुमन भा गया।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक आडिल्ल छंद दिखलाते हैं प्रभु के महा प्रभाव को। माँ ने देखे सोलह सपने रात को। फाल्गुन कृष्णा नवमी की यह बात थीं मैं जयरामा के उत्सव की रात थी।।1।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णनवम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 63 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम जन्म ही लिया धरा पर नाथ ने। नृप सुग्रीव के गृह काकंदी ग्राम में।। मगसिर शुक्ला एकम को शुभ लग्न में। मेरू पर अभिषेक हुआ सुर मग्न हैं।।2। ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मेघ विलय लख आ गये स्वामी वन में। लिये पालकी देव सब आये क्षण में।। जन्मोत्सव की शहनाई बदली तप में। लौकांतिक सुर कहे धन्य जिनवर जग में।।3।। ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां तपोमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जिन महिमा को गँथ सके ना शब्द हैं। नाश हो गई त्रेसठ प्रकृति कर्म हैं।। कार्तिक शुक्ला दूज केवलज्ञान लिया। झुका झुकाकर माथ सबने नमन किया।।4।। ऊँ ही कार्तिकशुक्लद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मोक्ष निकट यह प्रभु आपने जान लिया। मास पूर्व ही समवसरण का त्याग किया।। सुप्रभ कूट से जिनवर ने मुक्ति पाई। भाद्र शुक्ल अष्टम की शुभ बेला आई ।।5।। ॐ हीं भाद्रशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अहँ श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 64 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला ज्ञानोदय छंद मंगलमय श्री सुविधि जिनेश्वर, मंगलमय प्रभु की वाणी। दुखी देख जग सर्व अंग से, खिरी प्रभु अंतर्वाणी।। मकर चिह्न से चिहित पद है, मिले भाग्य से मुझको आज। भव सिंधु से पार लगा दो, जिनवर अद्भुत परम जहाज।।1।। प्रभु आपने समवसरण में, दश धर्मों का ज्ञान दिया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, राग-द्वेष का पान किया।। धर्म नीर बिन जीवन तरुवर, मिथ्यानल से जला दिया। मोक्ष तत्त्व का अर्थ न समझा, नंत काल यों बिता दिया।।2।। ___ पुण्योदय से आज प्रभु मैं, समवसरण में आया हूँ। दिव्यध्वनि से दश धर्मो का, अमृत पीने आया हूँ।। जहाँ क्षमा है वहाँ धर्म है, स्व-पर दया का मूल महान। क्रोध कषाय नरक ले जाती, सब दुःखों की यही प्रधान।।3।। मान कषाय सदा दुख देती, मार्दव मोक्ष नगर का द्वार। स्रल भाव सिद्धों का साथी, उत्तम आर्जव है सुखकार।। लोभ कषाय नाश कर देती, शौच धर्म करता कल्याण। सत्य धर्म मय जो हो जाता, निश्चित पाता है निर्वाण।।4।। धन्य-धन्य संयम की महिमा, तीर्थंकर भी अपनाते। उत्तम तप जो धारण करते, निश्चित शिव पदवी पाते।। अहो दान की महिमा न्यारी, तीर्थंकर भी लें आहार। उत्तम त्याग धर्म की जय हो, स्वर्ग मोक्ष का है दातार।।5।। सर्व परिग्रह त्याग आकिंचन, सिद्ध स्व पद का दाता है। सब धर्मो में श्रेष्ठ धर्म है, ब्रह्मचर्य सुख दाता है।। दिव्य वचन सुन लगा मुझेअब, भव सागर का अंत हुआ। शरण आपकी जो भी आया, भक्ति से भगवंत हुआ।।6।। 65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु आपकी धर्म सभा में, अट्टासी गणधर स्वामी। श्रीघोषा थी प्रमुख आर्या, बुद्धिवीर्य श्रोता नामी।। कर्म अंत करने को स्वामी, शरण आपकी आया हूँ। पंच परावर्तन मिट जाये, यही आस ले आया हूँ।।7।। सोरठा नाथ निरंजन आप, पुष्पदंत जिनराज जी। हो जाऊँ निष्पाप, कर्म नष्ट कर दो प्रभो ॥8॥ ऊँ हीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा घत्ता श्री सुविधि जिनेशा, हे परमेशा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 66 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलनाथ जिन पूजन स्थापना गीता छंद जय-जय विदेही आप जिनवर, पुष्पदंत जिनेश्वरम्। श्री सुविधिनाथ जिनेश जय-जय, जय भवोदधि तारणम्।। मैं करूँ निर्मल भाव पूजन, ज्ञान सूर्य प्रकाशकम्। मम आतमा में आ पधारो, हे मेरे परमेश्वरम्।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ___ ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण आडिल्ल छंद जन्म जरा मृत्यु से मैं भयभीत हूँ। काल अनंता से तृष्णा में लिप्त हूँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।1। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। तन की तपन मिटाने वाला है चंदन। भवाताप का नाश कराता जिन वंदन।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 67 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम शांत निराकुल अक्षय पद पाऊँ। अक्षत चरण चढ़ा कर जिन पद गुण गाऊँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। मार्दव गुण को आज पाने आया हूँ। काम विकास विनाश करने आया हूँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।4..।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। इच्छाओं की भूख मिटाने आया हूँ। रत्नत्रय नैवेद्य पाने आया हूँ॥ सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।5..॥ ॐ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। अंतर को आलोकित करने आ गया। मोह महाबली नाश करने आ गया।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 68 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठों कर्म विचित्र आतम में छाये । प्रभु शरण में आते ही सब नश जाये || सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया || 7 || ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सुविधिनाथ विधि अंत हमारे कीजिये । सिद्धों जैसा सुख अनंत फल दीजिये ॥ सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया ॥ 8 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जग में सबका मूल्य, आप अनमोल हैं। अनर्घ्य पद पाने को जिनवर ठोर हैं । । सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधुमन भा गया ॥ 9 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक आडिल्ल छंद दिखलाते हैं प्रभु के महा प्रभाव को। माँ ने देखे सोलह सपने रात को ।। फाल्गुन कृष्णा नवमी की यह बात थीं मँ जयरामा के उत्सव की रात थी॥1॥ ऊँ हीं फाल्गुनकृष्णनवम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 69 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम जन्म ही लिया धरा पर नाथ ने। नृप सुग्रीव के गृह काकंदी ग्राम में।। मगसिर शुक्ला एकम को शुभ लग्न में। मेरू पर अभिषेक हा सुर मग्न हैं।।2।। ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मेघ विलय लख आ गये स्वामी वन में। लिये पालकी देव सब आये क्षण में।। जन्मोत्सव की शहनाई बदली तप में। लौकांतिक सुर कहे धन्य जिनवर जग में।।3।। ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां तपोमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जिन महिमा को गँथ सके ना शब्द हैं। नाश हो गई त्रेसठ प्रकृति कर्म हैं।। कार्तिक शुक्ला दूज केवलज्ञान लिया। झुका झुकाकर माथ सबने नमन किया।।4।। ऊँ ही कार्तिकशुक्लद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मोक्ष निकट यह प्रभु आपने जान लिया। मास पूर्व ही समवसरण का त्याग किया।। सुप्रभ कूट से जिनवर ने मुक्ति पाई। भाद्र शुक्ल अष्टम की शुभ बेला आई ।।5।। ॐ हीं भाद्रशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला ज्ञानोदय छंद मंगलमय श्री सुविधि जिनेश्वर, मंगलमय प्रभु की वाणी। दुखी देख जग सर्व अंग से, खिरी प्रभु अंतर्वाणी।। मकर चिह्न से चिहित पद है, मिले भाग्य से मुझको आज। भव सिंधु से पार लगा दो, जिनवर अद्भुत परम जहाज।।1।। प्रभु आपने समवसरण में, दश धर्मों का ज्ञान दिया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, राग-द्वेष का पान किया।। धर्म नीर बिन जीवन तरुवर, मिथ्यानल से जला दिया। मोक्ष तत्त्व का अर्थ न समझा, नंत काल यों बिता दिया।।2।। पुण्योदय से आज प्रभु मैं, समवसरण में आया हूँ। दिव्यध्वनि से दश धर्मो का, अमृत पीने आया हूँ।। जहाँ क्षमा है वहाँ धर्म है, स्व-पर दया का मूल महान। क्रोध कषाय नरक ले जाती, सब दुःखों की यही प्रधान।।3।। मान कषाय सदा दुख देती, मार्दव मोक्ष नगर का द्वार। स्रल भाव सिद्धों का साथी, उत्तम आर्जव है सुखकार।। लोभ कषाय नाश कर देती, शौच धर्म करता कल्याण। सत्य धर्म मय जो हो जाता, निश्चित पाता है निर्वाण।।4।। धन्य-धन्य संयम की महिमा, तीर्थंकर भी अपनाते। उत्तम तप जो धारण करते, निश्चित शिव पदवी पाते।। अहो दान की महिमा न्यारी, तीर्थंकर भी लें आहार। उत्तम त्याग धर्म की जय हो, स्वर्ग मोक्ष का है दातार।।5।। सर्व परिग्रह त्याग आकिंचन, सिद्ध स्व पद का दाता है। सब धर्मो में श्रेष्ठ धर्म है, ब्रह्मचर्य सुख दाता है।। 71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य वचन सुन लगा मुझे अब, भव सागर का अंत हुआ। शरण आपकी जो भी आया, भक्ति से भगवंत हुआ।।6।। प्रभु आपकी धर्म सभा में, अट्टासी गणधर स्वामी। श्रीघोषा थी प्रमुख आर्या, बुद्धिवीर्य श्रोता नामी।। कर्म अंत करने को स्वामी, शरण आपकी आया हूँ। पंच परावर्तन मिट जाये, यही आस ले आया हूँ।।7।। सोरठा नाथ निरंजन आप, पुष्पदंत जिनराज जी। हो जाऊँ निष्पाप, कर्म नष्ट कर दो प्रभो ॥8॥ ॐ हीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री सुविधि जिनेशा, हे परमेशा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 72 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलनाथ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद मैं निज घर को भूला भगवन्, पर घर में फिरता रहता। बिना भाव से मात्र द्रव्य से, तुम्हें रिझाने में आता। निज गृह की पहचान नहीं प्रभो !तुमको कहाँ बिठाऊँगा। मैं अज्ञानी भगवन् कैसे, अनंत गुण गाऊँगा।। है विश्वास अटल यह मेरा, श्रद्धालय में आओगे। अपने एक अनन्य भक्त , जिन गृह में पहुँओगे।।1।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलानथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-नंदीश्वर श्री जिन धाम ........छंद जल से निर्मल जिनराज, रूप तुम्हारा है। जन्मादि रोग क्षय कार, नाथ सहारा है।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 73 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदन सी शीतल मिष्ट, वाणी तेरी। मैं क्रोधाग्नि में दग्ध, भूल रही मेरी।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ।।2।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। निर्मल अक्षय सुख कार, पदवी के धारी। प्रभु मुझमें भरे विकार, नाशो अविकारी ॥ शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥3॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। रत्नों सम गुण की राश, निज शुद्धातम है। फिर भी विषयों का दास, बनता आतम है।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ।।4।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। षट् रस नैवेद्य जिनेश, तृष्णा उपजावे। अष्टादश दोष विनाश, करने हैं आये।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 74 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु ज्ञान ज्योति तमहार, विश्व प्रकाश कियां जिन ज्ञान ज्योति हितकार, नहीं पुरुषार्थ किया। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥6॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु अष्ट कर्म कर नष्ट, आतम गुण प्रगटे । हम कर्मों से संतप्त, चारों गति भटके || शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥7॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पुण्योदय आया आज, फल को भेंट करूँ। निज मधुर मोक्ष फल काज, श्रद्धा बीज धरूँ ।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥8॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ अर्घ्य बनाकर ईश, चरणों में लाये। भक्तों के भाव मुनीश, आप समझ जाये ।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक चौपाई चौत्र वदी अष्टम तिथि आई, मात सुनंदा है हरषाई। स्वर्गपुरी से प्रभु जी आये पूर्वाषाढ़ नखत कहलाये।।1।। ऊँ हीं चौत्रकृष्णअष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। त्रिभुवन में शीतलता छायी,विश्व योग उत्तम फलदायी। माघ वदी बारस अवतारी, किया न्हवन देवों ने भारी।2।। ऊँ ही माघकृष्णद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। हिम का नाश् देख जिनवरने, जग वैभव सब त्यागा क्षण में। माघ वदी द्वादश के दिन में, बने मनीश सहेतुक वन में।।3।। ऊँ ही माघकृष्णद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पौष कृष्ण की चतुर्दशी थी, पूर्वाषाढ़ा शुभ घड़ियाँ थी। भद्दलपुर में चार कल्याणक, तीर्थंकर हैं ज्ञान प्रकाशक।।4।। ॐ हीं पौषकृष्णचतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। आश्विनशुक्ला अष्टमतिथि में, कूट विद्युतवर गिरि शिखर से। शेष पचासी प्रकृति नाशी, हुए जिनेश्वर मुक्तिवासी।।5।। ऊँ ही आश्विनशुक्लाष्टयां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अहँ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 76 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला तर्ज -अहो जगत गुरु...... सौम्य मूर्ति जिन आप, त्रिभुवन के हो स्वामी। कल्पतरु है चिह्न मुक्ति दो शिवधामी। जय-जय शीतलनाथ, जय-जय श्री भगवंता। दशम् तीर्थंकर आप, नमते मुनिगण संता।।1।। पंच महाव्रत धार, नाथ हुए वैरागी। पुनर्वसु नृपराज, दे आहार बड़भागी।। प्रभु कर में पयधार, दे भव सेतु बनाया। तीन वर्ष छद्मस्थ, मौन में समरस पाया।।2।। आर्त रौद्र दो ध्यान, भव-भव में दुखकारी। धर्म शुक्ल प्रशस्त, मुक्ति के अधिकारी। चार घातिया नष्ट, त्रेसठ प्रकृति नाशी। जीत अठारह दोष, निज चेतन गृहवासी।।3।। स्मवसरण में नाथ, शीतल की बलिहारी। सब प्राणी तज वैर, मन में समताधारी।। इक्यासी गणधर, प्रमुख थे कुंथु ज्ञानी। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ, धरणा गुण की खानी।।4।। चतुर्निकायी देव, प्रभु की महिमा गाये। मुनिगण भक्ति समेत बार-बार सिर नायें।। प्रभुवर आपके गुण, पार न कोई पावे। नाम मात्र से नाथ, भव सिंधु तिर जावे।।5।। 77 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु हम दीन अनाथ, चरण शरण में आये। वीतराग पद छोड़, और न दूजा भाये।। हे प्रभु दया निधान, मुझ पर करुणा कर दो। झोली मेरी रिक्त, उसमें शिव फल भर दो।।6।। दोहा इस अपार संसार में, जिन पूजा ही सार। वीतराग का ध्यान नही, मोक्षपुरी का द्वार ॥7॥ ऊँ हीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा घत्ता श्री शीतला नाथा,गाऊँ गाथा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, “विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुविधिनाथ जिन पूजन स्थापना गीता छंद जय-जय विदेही आप जिनवर, पुष्पदंत जिनेश्वरम्। श्री सुविधिनाथ जिनेश जय-जय, जय भवोदधि तारणम्।। मैं करूँ निर्मल भाव पूजन, ज्ञान सूर्य प्रकाशकम्। मम आतमा में आ पधारो, हे मेरे परमेश्वरम्॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण आडिल्ल छंद जन्म जरा मृत्यु से मैं भयभीत हूँ। काल अनंता से तृष्णा में लिप्त हूँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।। 1 ।। ॐ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। तन की तपन मिटाने वाला है चंदन । भवाताप का नाश कराता जिन वंदन ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया || 2 || ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 79 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपम शांत निराकुल अक्षय पद पाऊँ । अक्षत चरण चढ़ा कर जिन पद गुण गाऊँ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया || 3 || ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। मार्दव गुण को आज पाने आया हूँ। काम विकास विनाश करने आया हूँ ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया || 4 || ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। इच्छाओं की भूख मिटाने आया हूँ। रत्नत्रय नैवेद्य पाने आया हूँ ॥ सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया || 5 || ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। अंतर को आलोकित करने आ गया। मोह महाबली नाश करने आ गया || सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया || 6 || ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठों कर्म विचित्र आतम में छाये। प्रभु शरण में आते ही सब नश जाये।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।7। ॐ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सुविधिनाथ विधि अंत हमारे कीजिये। सिद्धों जैसा सुख अनंत फल दीजिये ।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधु मन भा गया।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। जग में सबका मूल्य, आप अनमोल हैं। अनर्घ्य पद पाने को जिनवर ठोर हैं।। सुविधिनाथ जिनराज शरण में आ गया। करुणासागर दयासिंधुमन भा गया।।9। ऊँ ह्रीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक आडिल्ल छंद दिखलाते हैं प्रभु के महा प्रभाव को। माँ ने देखे सोलह सपने रात को।। फाल्गुन कृष्णा नवमी की यह बात थीं मैं जयरामा के उत्सव की रात थी।।1।। ॐ हीं फाल्गुनकृष्णनवम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतिम जन्म ही लिया धरा पर नाथ ने। नृप सुग्रीव के गृह काकंदी ग्राम में।। मगसिर शुक्ला एकम को शुभ लग्न में। मेरू पर अभिषेक हुा सुर मग्न हैं।।2।। ऊँ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां जन्ममंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मेघ विलय लख आ गये स्वामी वन में। लिये पालकी देव सब आये क्षण में।। जन्मोत्सव की शहनाई बदली तप में। लौकांतिक सर कहे धन्य जिनवर जग में।।3।। ॐ हीं मार्गशीर्षशुक्लप्रतिपदायां तपोमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जिन महिमा को गूंथ सके ना शब्द हैं। नाश हो गई त्रेसठ प्रकृति कर्म हैं।। कार्तिक शुक्ला दूज केवलज्ञान लिया। झुका झुकाकर माथ सबने नमन किया।।4।। ॐ हीं कार्तिकशुक्लद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। मोक्ष निकट यह प्रभु आपने जान लिया। मास पूर्व ही समवसरण का त्याग किया।। सुप्रभ कूट से जिनवर ने मुक्ति पाई। भाद्र शुक्ल अष्टम की शुभ बेला आई ।।5।। ऊँ ही भाद्रशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला ज्ञानोदय छंद मंगलमय श्री सुविधि जिनेश्वर, मंगलमय प्रभु की वाणी। दुखी देख जग सर्व अंग से, खिरी प्रभु अंतर्वाणी।। मकर चिह्न से चिहित पद है, मिले भाग्य से मुझको आज। भव सिंधु से पार लगा दो, जिनवर अदभुत परम जहाज।।1।। प्रभु आपने समवसरण में, दश धर्मों का ज्ञान दिया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, राग-द्वेष का पान किया।। धर्म नीर बिन जीवन तरुवर, मिथ्यानल से जला दिया। मोक्ष तत्त्व का अर्थ न समझा, नंत काल यों बिता दिया।।2।। पुण्योदय से आज प्रभु मैं, समवसरण में आया हूँ। दिव्यध्वनि से दश धर्मो का, अमृत पीने आया हूँ।। जहाँ क्षमा है वहाँ धर्म है, स्व-पर दया का मूल महान। क्रोध कषाय नरक ले जाती, सब दुःखों की यही प्रधान।।3।। मान कषाय सदा दुख देती, मार्दव मोक्ष नगर का द्वार। स्रल भाव सिद्धों का साथी, उत्तम आर्जव है सुखकार।। लोभ कषाय नाश कर देती, शौच धर्म करता कल्याण। सत्य धर्म मय जो हो जाता, निश्चित पाता है निर्वाण।।4।। धन्य-धन्य संयम की महिमा, तीर्थंकर भी अपनाते। उत्तम तप जो धारण करते, निश्चित शिव पदवी पाते।। अहो दान की महिमा न्यारी, तीर्थंकर भी लें आहार। उत्तम त्याग धर्म की जय हो, स्वर्ग मोक्ष का है दातार।।5।। सर्व परिग्रह त्याग आकिंचन, सिद्ध स्व पद का दाता है। 83 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब धर्मो में श्रेष्ठ धर्म है, ब्रह्मचर्य सुख दाता है।। दिव्य वचन सुन लगा मुझे अब, भव सागर का अंत हुआ। शरण आपकी जो भी आया, भक्ति से भगवंत हुआ।।6।। प्रभु आपकी धर्म सभा में, अट्टासी गणधर स्वामी। श्रीघोषा थी प्रमुख आर्या, बुद्धिवीर्य श्रोता नामी।। कर्म अंत करने को स्वामी, शरण आपकी आया हूँ। पंच परावर्तन मिट जाये, यही आस ले आया हूँ।7। सोरठाः नाथ निरंजन आप, पुष्पदंत जिनराज जी। हो जाऊँ निष्पाप, कर्म नष्ट कर दो प्रभो ॥8॥ ॐ हीं श्रीसुविधिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री सुविधि जिनेशा, हे परमेशा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 84 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलाथ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद मैं निज घर को भूला भगवन्, पर घर में फिरता रहता। बिना भाव से मात्र द्रव्य से, तुम्हें रिझाने में आता। निज गृह की पहचान नहीं प्रभो !तुमको कहाँ बिठाऊँगा। मैं अज्ञानी भगवन् कैसे, अनंत गुण गाऊँगा।। है विश्वास अटल यह मेरा, श्रद्धालय में आओगे। अपने एक अनन्य भक्त , जिन गृह में पहुँओगे।।1।। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीशीतलानथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-नंदीश्वर श्री जिन धाम ........छंद जल से निर्मल जिनराज, रूप तुम्हारा है। जन्मादि रोग क्षय कार, नाथ सहारा है।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥1॥ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदन सी शीतल मिष्ट, वाणी तेरी । मैं क्रोधाग्नि में दग्ध, भूल रही मेरी || शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥2॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। निर्मल अक्षय सुख कार, पदवी के धारी । प्रभु मुझमें भरे विकार, नाशो अविकारी ॥ शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥3॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। रत्नों सम गुण की राश, निज शुद्धात है। फिर भी विषयों का दास, बनता आतम है। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥4॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। षट् रस नैवेद्य जिनेश, तृष्णा उपजावे। अष्टादश दोष विनाश करने हैं आये। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी । है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 86 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु ज्ञान ज्योति तमहार, विश्व प्रकाश कियां जिन ज्ञान ज्योति हितकार, नहीं पुरुषार्थ किया।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥6॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु अष्ट कर्म कर नष्ट, आतम गुण प्रगटे। हम कर्मो से संतप्त, चारों गति भटके।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥7॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। पुण्योदय आया आज, फल को भेंट करूँ। निज मधुर मोक्ष फल काज, श्रद्धा बीज धरूँ।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ अर्घ्य बनाकर ईश, चरणों में लाये। भक्तों के भाव मुनीश, आप समझ जाये।। शीतल जिनराज महान, दर्शन सुखकारी। है अनंत गुण की खान, भविजन हितकारी ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक चौपाई चैत्र वदी अष्टम तिथि आई, मात सुनंदा है हरषाई। स्वर्गपुरी से प्रभु जी आये पूर्वाषाढ़ नखत कहलाये।।1।। ऊँ हीं चैत्रकृष्णअष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। त्रिभुवन में शीतलता छायी,विश्व योग उत्तम फलदायी। माघ वदी बारस अवतारी, किया न्हवन देवों ने भारी।2।। ॐ हीं माघकृष्णद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। हिम का नाश् देख जिनवरने, जग वैभव सब त्यागा क्षण में। माघ वदी द्वादश के दिन में, बने मुनीश सहेतुक वन में।।3।। ॐ हीं माघकृष्णद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। पौष कृष्ण की चतुर्दशी थी, पूर्वाषाढ़ा शुभ घडियाँ थी। भद्दलपुर में चार कल्याणक, तीर्थंकर हैं ज्ञान प्रकाशक।।4।। ॐ हीं पौषकृष्णचतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। आश्विनशुक्ला अष्टमतिथि में, कूट विद्युतवर गिरि शिखर से। शेष पचासी प्रकृति नाशी, हुए जिनेश्वर मुक्तिवासी॥5॥ ऊँ ही आश्विनशुक्लाष्टयां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला तर्ज -अहो जगत गुरु...... सौम्य मूर्ति जिन आप, त्रिभुवन के हो स्वामी। कल्पतरु है चिह्न मुक्ति दो शिवधामी। जय-जय शीतलनाथ, जय-जय श्री भगवंता। दशम् तीर्थंकर आप, नमते मुनिगण संता।।1।। पंच महाव्रत धार, नाथ हुए वैरागी। पुनर्वसु नृपराज, दे आहार बड़भागी।। प्रभु कर में पयधार, दे भव सेतु बनाया। तीन वर्ष छद्मस्थ, मौन में समरस पाया।।2।। आर्त रौद्र दो ध्यान, भव-भव में दुखकारी। धर्म शुक्ल प्रशस्त, मुक्ति के अधिकारी। चार घातिया नष्ट, त्रेसठ प्रकृति नाशी। जीत अठारह दोष, निज चेतन गृहवासी।।3।। स्मवसरण में नाथ, शीतल की बलिहारी। सब प्राणी तज वैर, मन में समताधारी।। इक्यासी गणधर, प्रमुख थे कुंथु ज्ञानी। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ, धरणा गुण की खानी।।4।। चतुर्निकायी देव, प्रभु की महिमा गाये। मुनिगण भक्ति समेत बार-बार सिर नायें।। प्रभुवर आपके गुण, पार न कोई पावे। नाम मात्र से नाथ, भव सिंधु तिर जावे।।5।। 89 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु हम दीन अनाथ, चरण शरण में आये। वीतराग पद छोड़, और न दूजा - भाये। हे प्रभु दया निधान, मुझ पर करुणा कर दो। झोली मेरी रिक्त, उसमें शिव फल भर दो ||6|| दोहा इस अपार संसार में, जिन पूजा ही सार । वीतराग का ध्यान नही, मोक्षपुरी का द्वार ॥7॥ ऊँ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री शीतला नाथा, गाऊँ गाथा, भव-भव का संताप हरो । निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, “विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः ।। 90 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रेयांसनाथ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद हे श्रेयनाथ मेरे भगवन् !मैं श्रेय पंथ पाने आया। मैं चला अभी तक मोह पंथ, भगवंत संत को ना पाया।। निज रूप नहीं जाना मैंने, कैसे वसु द्रव् सजाऊँ मैं। श्रद्धा का थाल लिया कर मैं, हे स्वामी तुम्हें पुकारूँ मैं।। मैंने मन आँगन स्वच्छ किया, विश्वास प्रभु जी आयेंगे। प्रभु काल अनादि से सोये, बालक को आज जगायेंगे।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-हे दीनबंधु उत्तम क्षमा का जल नहीं, पिया मेरे प्रभ। कषायों की कलुषता मिटी नहीं प्रभो।। जन्मादि रोग नाशने को आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण ॥1॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतल सुगंध द्रव्य लेप भी किया प्रभो। निज आत्मा का ताप भी मिटा नहीं प्रभो।। राग ताप नाशने को आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। संयोग औ वियोग का ये सिलसिला रहा। उत्पन्न जो हुआ उसी का नाश भी हुआ।। गुण अखंड पाने हेतु आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।3। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा। श्रद्धा बिना ही धर्म को करता रहा प्रभो। निज ब्रह्म रूप को नहीं लखा मेरे प्रभो।। काम बाण नाशने को आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।4..॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। तृष्णा महाभयंकरी है नागिनी प्रभो। निज ज्ञान नागदमनी से बचाइये प्रभो।। तृष्णा का रोग नाशने को आ गया शरण।। हे श्रेयनाथ दर कीजिये जनम मरण।।5..।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहांधकार का विनाश कीजिये प्रभो। दैदीप्यमान पूर्णज्ञान दीजिये प्रभो।। ज्ञान दीप्ति पाने हेतु आ गया शरण।। हे श्रेयनाथ दर कीजिये जनम मरण।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। मैं पाप कर्म का विनाश कर नहीं सका। चिर काल से थका हुआ था आप दर रुका।। __ अष्ट कर्म नाश हेतु आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दर कीजिये जनम मरण।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। मैं पाप और पुण्य के फलों में लिप्त था। बोया बबूल और आम चाहता रहा।। मोक्ष फल की भावना से आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।8..।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। स्वानुभूति दिव्य अर्घ्य आपके समीप हैं। क्या चढ़ाऊँ नाथ अर्घ्य आपको विदित है।। थ्सद्ध पद के हेतु प्रभु आ गया शरण। हे श्रेयनाथ दर कीजिये जनम मरण।।9..॥ ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 93 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद माता विमला गर्भ पधारे, पुष्पोत्तर से कमन किया। ज्येष्ठ वदी मावस को सारे, देव लोक ने नमन किया।। सिंहपुरी में पिता विमल के, गृह में जय-जयकार किया। मात गर्म में प्रभुवर राजे, किञ्चित् भी नहीं कष्ट दिया॥1॥ ॐ हीं ज्येष्ठकृष्णाअमावस्यायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन वदी ग्यारस को जन्मे, देवासन भी कांप उठे। शचि कहे जिनवर से स्वामी, मेरा जन्म मरण छूटे।। शीतल मंद सुगंधित वायु, बहती है हौले-हौले। क्षीरोदधि का क्षीर नीर ले, देव सभी जय-जय बोले।2॥ ॐ हीं फाल्गुनकृष्णएकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। रूकी बहारें ऋतु बसंत की, देख प्रभु वैराग्य धरा। फाल्गुन कृष्णा ग्यारस के दिन, श्रवण ऋक्ष में तप धारा।। विमलप्रभा पालकी मनोकर, वन पहुँची सुर नर के साथ। किये तीन उपवास साथ में, एक हजार हुए मुनिनाथ।।3।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णएकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। माघ वदी मावस अपराह्ने, पूर्णज्ञान का सूर्य उगा। पंच सहस धनु उन्नत नभ में, समवसरण की लगी सभा।। दिव्यध्वनि से श्री जिनवर ने, जीवों का उद्धार किया। जय श्रेयांसनाथ तीर्थंकर, देवों ने गुणगान किया।।4।। ऊँ हीं माघकृष्णाअमावस्यायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 94 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावन के महिने में शीतल, पूर्ण चंद्र का उदय हुआ। सम्मेदाचल संकुल कूट से, जिन श्रेयांस को मोक्ष हुआ।। एक सहस मुनि साथ पधारे, शिवलक्ष्मी भी धन्य हुई। मोक्ष कल्याणक महिमा मेरे, पुण्योदय से गम्य हुई।।।5। ॐ हीं श्रावणशुक्लपूर्णिमायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला दोहा श्री श्रेयांश जिनेश को, नमन करूँ शत बार। मात्र आप आधार हैं, देख लिया संसार।।1।। जय श्रेयनाथ आप श्रेयपंथ दिखाते। संसारी जीव आप पाद पद्म में आते।। हे विश्व वंद्य श्रेयनाथ अर्चना करें। हो आपको नमोस्तु नाथ वंदना करें।।2।। जो भव्य जीव आप तीर्थ स्नान करें हैं। वे अष्ट कर्म मल समूह नष्ट करें हैं।।3।। हैं ग्यारवें तीर्थंकरा श्रेयांस जिनवर। प्रभु आप में रहे नहीं अब दोष अठारा।।4।। हे नाथ जग प्रकाश एक रूप आप ही। उपयोग नंत ज्ञान दर्श दोय रूप भी।।5।। जिन दर्श ज्ञान वृत्त से त्रिरूप हो तुम्हीं। आर्हन्त्य के अनंत चतुष्टय स्वरूप भी।।6।। पंच परम इष्ट ब्रह्म पंच रूप हो। जीवादि द्रव्य जानते तुम षट् स्वरूप हो।।7 ॥ सातो नयों की देशना दी सात रूप हो। 95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठों गुणो से युक्त सिद्ध आठ रूप हो।।8।। क्षायिकी नव लब्धियों से नव स्वरूप हो। दश धर्म के धारी जिनेश दश स्वरूप हो।।9।। ग्यारह प्रतिमाओ का उपदेश दे दिया। भक्तों ने ग्यारवें जिनेश को नमन किया।।10। जिनराज दिव्यदेशना सौभाग्य से मिली। पावनघड़ी है आज हृदय की कली खिली ॥11॥ कोई नहीं जिनेश है इस जग में हमारा। चारों गति में देख लिया तू ही सहारा।।12॥ दोहा अगणितगुण गण के धनी, मुक्तिरमा के नाथ। मेरा भी कल्याण हो, हूँ त्रियोग नत माथ।।13।। ऊँ हीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री श्रेयांस जिनेश्वर, श्री परमेश्वर, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 96 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वासुपूज्य जिन पूजन स्थापना गीता छंद जय वासुपूज्य जिनेश पद में, वंदना शत बार है। जिसने लिया है नाम श्रद्धा, से हआ भव पार है।। जबसे प्रभु तव दर्श पाया, एक अतिशय हो गया। कोई नहीं भाता मुझे अब, मन विरागी हो गया।। भव से बचाकर नाथ अपने, सिद्धमहल बुलाइये। या भक्त भव्यों के हृदय में, आइये प्रभु आइये।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण गीता छंद शुचि पंद्रह का नीर लेकर, आपको अर्पण करूँ। मिथ्यात्व मल मेरा नशा दो, हे प्रभु अर्चन करूँ।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव ताप को चंदन जिनेश्वर, मेट ना सकता कभी। प्रभु आ गया हूँ मैं भटक कर, पद शरण देना अभी।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा ॥2॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। तंदुल धवल के पुंज पावन, शुभ्र चरणों में धरूँ। मैं चार विध आराधना से, चार गति के दुःख हरूँ।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शुभ पुष्प नंदन वन सुगंधित, चरण में अर्पण करूँ। दुष्काम का संसताप हरने, शीश चरणों में धरूँ।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। यह सरस पावन सौम्य रस युत, चरु चरण युग में धरूँ। जिनराज भव व्याधि मिटा दो, नमन तव पद में करूँ।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 98 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तव पद कमल की आरती कर, ज्ञान दीप जला सकूँ। सब मोह पथ को त्या कर मैं, मोक्ष पथ अपना सकूँ।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकँ परमातमा।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ गंध लेकर आ गया हूँ, ध्यान निज का कर सकूँ। ये कर्म अष्ट विनष्ट कर मैं, मोक्षगामी हो सकूँ । श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।।7। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु कर्म फल के राग की रुचि, अब नहीं किञ्चित् करूँ। यह मोक्षफल परमात्म पदपा, शिवमहल में पग धरूँ।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। हो आप सर्व समर्थ जिनवर, अर्घ्य क्या अर्पण करूँ। प्रभु आप ही के नंत गुण का, राज दिन सुमिरण करूँ।। श्री वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।।9..॥ ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 99 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक तर्ज-जय जय आदिनाथ भगवान, इक्षुरस का किया पारणा ...छंद जय-जय वासुपूज्य भगवान, जय-जय तीर्थंकर भगवान.. महाशुक्र वैभव तज आये, आषाढ़ कृष्ण षष्ठी दिन आये। माँ विजया के गर्भ में आये, वसूपूज्य पितु हर्ष मनाये।। वासुपूज्य गर्भोतसव के दिन, देव करें जयगान । जय-जय वासुपूज्य भगवान, जय-जय तीर्थंकर भगवान ।।।1। ऊँ हीं आषाढ़कृष्णषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन कृष्णा का दिन आया, चौदस वारुण योग बताया। मेरु पर अभिषेक कराय, इंद्रों ने शुभ अवसर पाया। इंद्राणी ने हर्ष हर्षकर, नृत्य किया गुणगान। जय-जय वासुपूज्य भगवान, जय-जय तीर्थंकर भगवान |2| ऊँ हीं फाल्गुनकृष्णचर्तुदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी आई, पुष्पाभा पालकी भी आई। मनुज देव ने उसे उठाई, उद्यान मनोहर तक पहुँचाई।। जाति स्मरण हुआ प्रभुवर, तीन हुए जिन ध्यान। जय-जय वासुपूज्य भगवान, जय-जय तीर्थंकर भगवान ॥3॥ ऊँ हीं फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। माघ शुक्ल की दोज मनोरम, तेंदु तरु तल बाग मनोहर। केवलज्ञानप्रकाशितजिनवर, जय हो जय जगपूज्य जिनेश्वर ।। समवसरण में राजे स्वामी, दे उपदेश महान। जय-जय वासुपूज्य भगवान, जय-जय तीर्थंकर भगवान ॥4॥ ऊँ हीं माघशुक्लद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भादों शुक्ल चतुर्दशी आयी, उडु विशाख शिवलक्ष्मी पाई। छह सौ एक साथ मुनिराई, कर्म नष्ट कर मुक्ति पाई।। चंपापुर निर्वाण धाम जहाँ, हुए पाँच कल्याण। जय-जय वासुपूज्य भगवान,जय-जय तीर्थंकर भगवान ।।5।। ॐ हीं भाद्रशुक्लचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला ज्ञानोदय छंद इंद्र नरेंद सुरों से पूजित, वासुपूज्य मेरे भगवान। विश्व विजेता विश्व विभूति, जिनवर महिमा महा महान।। महिष चिह्न युत पद कमलों को, जो मनमंदिर में धारे। पूज्य पदों की परम कृपा से, भक्त स्वयं निज को तारे।।1।। तीन ज्ञान के धारी स्वामी, जन्म समय से थे गुणवान। वसुदेव पितु माँ विजया ने दिया सभी को अनुपम दान ।। प्रभु आपका जन्म जानकर, आनंदित सुर नर सारे। ऐरावत गज लेकर आये, लाए वाद्य यंत्र सारे।।2।। तीन प्रदक्षिणा दे नगरी की, इंद्राणी जिनगुह आई। निद्रालीन किया माता को, मन में हर्षित हो आई।। प्रथम किये जिन शिशु के दर्शन, सूरज जैसा अतिशायी। सौंप दिया कर में प्रभु जी को, इंद्र अचंभित था भारी।।3।। सहस्र नयन से निरख-निरख कर, मेरु सुदर्शन न्हवन किया। इंद्राणी ने वस्त्राभूषण, पहनाकर श्रृंगार किया। चंपापुर में आकर सबने, मात पिता को नमन किया। 101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तांडव नृत्य किया अति अद्भुत, जिन बालक को सौप दिया।।4।। अष्ट वर्ष की आयु में ही, प्रभु ने अणुव्रत धार लिया। ब्रह्मचर्य आजीवन रखकर, पंच मुष्टि कचलोंच किया।। दीक्षा लेकर चार ज्ञन युत, मौन रहे एक वर्ष प्रमाण। क्षपक श्रेणी चढ़ मोह नाश कर, पदपाया अरहंत महान।।।5।। देश-देश में विहार करके, मुक्ति का उपदेश दिया। धर्म-शुक्ल शुभ ध्यान के द्वारा, मोक्ष मिले संदेश दिया।। श्रावक मुनिव्रत को दर्शाया, दीक्षा विधि भी बतला दी। छयासठ गणधर थे जिनवर के, मुख्यार्या वरसेना थी।।6।। गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष, कल्याण हुए चंपापुर में। धन्य-धन्य चंपापुर नगरी, धन्य धरा इस भूतल में।। हे जिनवर में शिवपद पाऊँ, यही भावना है स्वामी। "पूर्ण' करो मेरी अभिलाषा, वासुपूज्य त्रिभुवननामी।।7।। दोहा प्रभु कृपा से प्राप्त हो, परम आत्म कल्याण। जयमाला चरणन धरूँ, हे जिन पूज्य महान।।8।। ऊँ हीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री वासुपूज्य जी, लाया अरजी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलनाथ जिन पूजन स्थापना चौपाई विमलनाथ प्रभु दर पर आया, श्री चरणों में शीश झुकाया। जब से भगवन् दर्शन पाया, और न कोई मन को भाया ।। 1 ॥ काल अनंता व्यर्थ बिताया, आतम को पहचान न पाया। पर को जान, मान ही आया, मन मंदिर में नहीं बिठाया ॥ 2 ॥ क्षमा कीजिए हे सुखधामी, हृदय वेदी पर आओ स्वामी। भक्ति भाव का चौक पुराया, श्रद्धा थाल सजाकर लाया ॥3॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। ज्ञानोदय छंद प्रमातम आनंद सरोवर, भावों से जल अपिर्तत है। रत्नत्रय की मुक्ता चुगता, मानस हंसा प्रमुदित है। सम्यग्दर्शन कलश कनकमय, ज्ञान नीर को ले आऊँ । जन्म मरण के नाश हेतु श्री, विमलप्रभु के गुण गाऊँ ॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। हे प्रभुवर तुम शांत सौम्य हो, शीतल चंदन ले आया। क्रोधानल से दूर रहूँ मैं, अतः शरण में हूँ आया ।। तप्त हो रहा भवाताप से, समता रस का पान करूँ। अनंत मय चंदन पाने, आत्म तत्त्व का ध्यान धरूं ॥2॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथ जिनेन्दाय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 103 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान नहीं पाते अक्षर से, अक्ष अगोचर जिनवर हैं। ज्ञान परोक्ष प्रभु जी मेरा, ध्याऊँ कैसे जिनवर मैं।। आत्म शक्ति के द्वारा फिर भी, जिन पद का सम्मान करूँ। इंद्रिय सुख क्षणभंगुर सारा, शाश्वत सुख का पान करूँ ॥3॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। तन की ही परिणति को मैंने, अब तक माना धर्म प्रभो। शुद्धातम के भाव न जागे, बना रहा अनजान प्रभो।। गुण अनंत मय पुष्प खिले हैं, हे जिनवर तव उपवन में। कभी नही मुरझाने वाले, महके ज्ञान सरोवर में।।4।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। क्षुधा तृषा से रहित जिनेश्वर, दोष अठारह रहित रहें। आनंद रव नैवेद्य अनुपम, पाकर निज में लीन रहें।। विषय भोग की चाह नहीं हैं, हे जिनवर मेरे मन में । अनाहारी विमलेश्वर प्रभु को, धारूँ मैं अपने मन में।।5।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। काल अनादि ज्ञान स्वरूपी, निजानंद को पा न सका। तत्त्व ज्ञान की अद्भुत महिमा, नहीं इसे पहचान सका।। आत्म ज्ञान का दीप जलाकर, पूजा मेरी सफल करो। असंख्यात आतम प्रदेश के, दीपों में प्रभु तेल भरो॥6॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दायमोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वेष भाव भी नहीं आपके, राग अंश का नाम नहीं। ध्यानाग्नि प्रगटी है ऐसी, जला दिये हैं कर्म सभी।। आत्म विशुद्धि अनुपम ऐसी, भाव सुगंधी फैल रही। सिद्धक्षेत्र तक जा पहुँची है, पथ दिखला दो हमें वहीं ॥7॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। सुख-दुखी मैं हुआ आज तक, कर्म फलों का वेदन कर । स्वानुभूति मय अमृत फल को, चखा नहीं अब तक जिनवर।। मोक्ष महाफल शीघ्र मिलेगा, मुझको ये विश्वास प्रभो । सम्यक् मूल चरित्र वृक्ष पर, शिवफल पाना आश प्रभो ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। मैं पर का नहीं कर्ता होता, पर भी मेरा क्या करता। निमित्त भाव से कर सकता पर, उपादान से क्या करता ।। पुण्योदय से आप कृपा से, भास रहा है आत्म स्वरूप। पा जाऊँ अब निज प्रभुता को, छूट जाए यह भव दुःख कूप ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक सखी छंद वदी ज्येष्ठ दशमी आई, माँ जयश्यामा हरषाई । तजकर शतार जिन आये, कंपिला देव सजवाये ।। पद्रह महिने तक बरसे, बहुमूल्य रतन नभगण से। सब जन-जन मंगल गाये, हम गर्भ कल्याण मनाये ॥ 1 ॥ ऊँ हीं ज्येष्ठकृष्णदशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीविमलनाथजिनेन्दायअर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु जन्म पुनः नहीं धारे, नृप कृतवर्मा सुत प्यारे। जिन पांडु शिला पर लाये, इंद्रों ने न्हवन कराये।। सुद माघ चौथ थी प्यारी, सुरपति शचि भी हरषाई। शचि जन्मोत्सव मनाये, एक भव में मुक्ति पाये ।2।। ॐ हीं माघशुक्लचतु,यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जब मेघ नाश को देखा, सब छोड़ दिया जग लेखा। लौकांतिक विभु गुण गाया, तप दुद्धर विभु मन भाया।। पालकी देवदत्ता थी, उद्यान सहेतुक पहुँची।। तप कल्याणक सुखदाई, जय विमलनाथ जिनराई ॥3॥ ॐ हींमाघशुक्लचर्तुत्र्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। त्रय वर्ष रहे छद्मस्था, प्रभु मौन रहे निज स्वस्था। वदि माघ सु षष्ठी आई, प्रभु केवलज्ञान उपाई।। पहले पाटल तरु नीचे, फिर अधर गगन में पहुंचे। जय विमलनाथ क्षेमंकर, जय त्रयोदशम् तीर्थंकर।।4।। ॐ हीं माघकृष्णषष्ठयां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। शुभ कृष्ण अष्टमी आई, आषाढ़ मास सुखदाई। गिरि कुट सुवीर शिखर से, शिवनार वरी गिरिवर से। प्रभु आठों करम नशाये, और निजानंद पद पाये। हम मोक्ष कल्याण मनाये, कब पास आपके आये।।5।। ॐ हीं आषाढकृष्णाअष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाप्य ऊँ ह्रीं अर्हं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय नमो नमः । जयमाला चौपाई विमलनाथ जिन भवभय हारी, ज्ञान मूर्ति शिशु सम अविकारी। परम दिगंबर मुद्रा धारी, शरणागत को मंगलकारी ॥1॥ तेरहवें तीर्थंकर स्वामी, दयामूर्ति समता अभिरामी तेरह विध चारित्र बताया, दिव्यध्वनि में ज्ञान कराया || 2 || पाँच महाव्रत पाँच समितियाँ, तीन गुप्ति पाले दिन रतियाँ। निश्चय पंच महाव्रत धारी, पाता शिवपद अतिशय कारी ॥ 3 ॥ हिंसा 'झूठ परिग्रह सारे, कुशील चोरी पाप निवारे । पूर्ण रूप से इनको त्यागे, सम्भ्यग्दर्शन युत अनुरागे।।4। मिथ्यादर्शन जब तक रहता, शून्य सभी हो चारित चर्या। मिथ्यातम है पहले जाता, फिर संयम है क्रम से आता।॥5॥ ईर्या भाषैषणा समिती, निक्षेपण आदान सुनीती। प्रतिष्ठापन ये पाँच समिती, मुनी जनों को इनसे प्रीती ॥6॥ बिन विवेक है क्रिया अधूरी, मोक्षमहल से रहती दूरी । जब तक है मिथ्यात्व वासना, समिति का है नाम लेश ना || 7 || वचन गुप्ति मनो गुप्ति पाले, काय गुप्ति धारे ठीाव टाले। मन वच तन जो संयम धारे, योगों की दुष्प्रवृत्ति निवारे ॥ 8॥ तीर्थ प्रवर्तक आप कहाये, आतम हित चारित्र बताये। गुरू कृपा से जागे शक्ती, प्रभु चरणों की कर लूँ भक्ती ॥9॥ दुर्भावों को दूर भगाऊँ, सोयी आतम शक्ती जगाऊँ। नाथ आपका पथ अनुगामी, बन जाऊँ मैं शिवपथ गामी।।10।। 107 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा पूजा विमल जिनेश की, भक्ति भरी जयमाल। अल्पमति मम पूर्ण' हो, गाऊँ तव गुणमाल।।11॥ ॐ हीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता जय जय विमलेश्वर, हे अखिलेश्वर, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 108 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अनंतनाथ जिन पूजन स्थापना आडिल्ल छन्द अनंत ज्ञानी ज्योतिर्मय जिनराय जी। कर्म अंत कर मोक्ष गये शिवराय जी।। करुणाकर स्वीकारो प्रभु वंदन मेरा। आ गया चरणों में मेटो भव फेरा।।1।। शक्ति जब तक मुझमें दर ना छोडूंगा। जैसी आज्ञा प्रभु आपकी मानूँगा।। आह्वानन करता हूँ नाथ आ जाओं। भावों के उच्चासन प्रभु समा जाओ।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण ज्ञानोदय छंद अनादि काल से जनम मरण किया प्रभो। इक बार भी सम्यक् मरण नहीं किया विभो।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। जन्म मृत्यु नाश हेतु अर्चना करूँ।।1।। ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 109 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतल मलय सुगंधित चंदन है चढ़ाया। नश्वर सुखों में रुल रहा दुख महान है ।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। संसार ताप नाश हेतु अर्चना करू ||2|| ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। अक्षय प्रभु अनंतनाथ सुख निधान हैं। नश्वर सुखों में रुल रहा दुख महान हैं ।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। अखण्ड पद की प्राप्ति हेतु अर्चना करूँ || 3 || ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा। निष्काम आप नाम है न कोई काम है । न नाम है न धाम है निज में विराम है || अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। अखण्ड ब्रह्मचर्य हेतु अर्चना करूँ ॥4॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। आनंद सरोवर निमग्न आप हैं प्रभो । तृष्णा के जाल में फँसा उबार लो प्रभो ॥ अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। क्षुधा व्यथा के नाश हेतु अर्चना करूँ ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 110 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान भानु का उदय हुआ प्रभो तुम्हें। दिखता नहीं अज्ञान अंधकार में हमें।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। ज्ञान के प्रकाश हेतु अर्चना करूँ॥6॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। द्रव्य कर्म भाव कर्म नाश कर दिये। ध्यान लीन हो गये निज दर्श पा लिये।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। अष्ट कर्म मेटने को अर्चना करूँ।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। भौतिक सुखों की कामना से धर्म भी किया। अतएव क्रिया मात्र से शिव शर्म ना लिया।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त हेतु अर्चना करूँ।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। वसु द्रव्यलेय श्रेष्ठ आत्म द्रव्य मिलाऊँ। अनंतनाथ के चरण में शीघ्र चढ़ाऊँ। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। सिद्ध पद के हेतु अर्चना करूँ।।9..॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 111 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक सखी छंद कार्तिक कृष्णा एकम् को, आये सपने माता को। पुष्पोत्तर तजकर आये, सुर नर मुनि जन हर्षाये।।1।। ॐ हीं कार्तिककृष्ण प्रतिपदायां गर्भमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ज्येष्ठा वदी बारस आई, सुर गृह गूंजी शहनाई। नृप सिंहसेन हर्षाये, सारी साकेत सजाये ।2।। ऊँ ही ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। बजी जन्मोत्सव की बधाई, उल्का गिरने को आई। तब एक हजार नृप संग में, दीक्षा ली सहेतुक वन में ॥3॥ ऊँ हीज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ज्ब चौत्र अमा काली थी, तब ज्ञान सूर्य लाली थी। प्रभु समवसरण में राजे, और बारह सभा विराजे।।4।। ऊँ ही चौत्रकृष्णअमावस्यायां केवलज्ञानप्राप्ताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जब केवलज्ञान हुआ था, उस तिथि में मोक्ष हुआ था। गिरि शिखर स्वयंभू कूट, प्रभु गये करम से छूट।।5।। ॐ हीं चौत्रकृष्णअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अर्ह ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला दोहा अनंत गुण गण युक्त हे, अनंत जिन भगवंत। गुणमाला अर्पण करूँ, पा जाऊँ शिवपंथ।1॥ जय-जय चौदहवें तीर्थंकर , अनंतनाथ प्रभु दया निधान। दे उपदेश भव्य जीवों का, करते आप सदा कल्याण।। दीक्षा धर सर्वज्ञ हुए जब, जन-जन का उद्धार किया। रत्नत्रय मय मोक्षमार्ग है, दिव्यध्वनि का सार दिया तेरह विध चारित्र बताया, दिव्यध्वनि में ज्ञान कराया।।2।। जीव समास चतुर्दश चौदह, मुख्य मार्गणा बतलाई। गुणास्थान जीवों के चौदह, परिभाषा भी बतलाई।। तत्त्वों का श्रद्धान नहीं वह, मिथ्यातम कहलाता है। उपशम सवमकि से गिरकर ही, सासादन में आता है।।3।। सम्यक् मिथ्या दही गुड़ मिश्रित, भाव मिश्र गुण में आते। चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि, स्व-पर तत्त्व श्रद्धा लाते।। त्रस थावर में विरताविरति, पंचम देश विरत कहते। सायम सकल प्रगट हो जाता, उसे प्रमत्तविरत करते।।4।। जहाँ संजवलन मंद उदय हो, अप्रमत्तविरति होते। अष्टम गुण से ही उपशम औ, क्षपक श्रेणी भी चढ़ जाते।। ___ कभी पूर्व में प्राप्त हुए ना, वो अपूर्व परिणाम धरे।। नवमाँ है अनिवृत्तिकरण समकालीन भाव अभेद धरे।।5।। दशम सूक्ष्म सांपराय गुण है, सूक्ष्म लोभ का उदय रहे। पूर्ण रूप से दबे मोह तो, ग्यारहवाँ गुणथान कहे।। सकल मोह का क्षय हो जता, क्षीण मोह द्वादश प्यारा। चार घातिया नाश हुए तो, सयोग केवली गुण न्यारा।।6।। 113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग नाश कर चौदहवाँ शुभ, अयोग केवली थान कहा। कर्म नष्ट कर सिद्धक्षेत्र में, पहुंच गए है सिद्ध महा।। ज्ञाता दृष्टा रहे जीव तो, राग-द्वेष मिट जाता है। स्व सन्मुख दृष्टि जो रखता, मोक्ष परम पद पाता है।।7। समवसृति में प्रभु आपने, इस विध जो उपदेश दिया। दिव्यध्वनि सुन लगा मुझे यों, चिदानंद निज देश दिया।। हर्ष भाव से पुलकित होकर, प्रभु मैंने की है पूजन। पूजा का सम्यक् फल होवे, कटे हमारे भव बंधन।।8।। ऊँ हीं ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता जय जय जिनवर जी, अंनतनाथ जी, भव-भव का संताप हो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अनंतनाथ जिन पूजन स्थापना आडिल्ल छन्द अनंत ज्ञानी ज्योतिर्मय जिनराय जी । कर्म अंत कर मोक्ष गये शिवराय जी ॥ करुणाकर स्वीकारो प्रभु वंदन मेरा | आ गया चरणों में मेटो भव फेरा ॥1॥ शक्ति जब तक मुझमें दर ना छोडूंगा। जैसी आज्ञा प्रभु आपकी मानूँगा।। आह्वानन करता हूँ नाथ आ जाओ। भावों के उच्चासन प्रभु समा जाओ || 2 || ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण ज्ञानोदय छंद अनादि काल से जनम मरण किया प्रभो । इक बार भी सम्यक् मरण नहीं किया विभो ।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। जन्म मृत्यु नाश हेतु अर्चना करूँ ।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतल मलय सुगंधित चंदन है चढ़ाया। नश्वर सुखों में रुल रहा दुख महान है।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। संसार ताप नाश हेतु अर्चना करू।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। अक्षय प्रभु अनंतनाथ सुख निधान हैं। नश्वर सुखों में रुल रहा दुख महान हैं।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। अखण्ड पद की प्राप्ति हेतु अर्चना करूँ ।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। निष्काम आप नाम है न कोई काम है। न नाम है न धाम है निज में विराम है।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। अखण्ड ब्रह्मचर्य हेतु अर्चना करूँ।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। आनंद सरोवर निमग्न आप हैं प्रभो। तृष्णा के जाल में फँसा उबार लो प्रभो।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। क्षुधा व्यथा के नाश हेतु अर्चना करूँ।।5।। ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान भानु का उदय हुआ प्रभो तुम्हें। दिखता नहीं अज्ञान अंधकार में हमें।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। ज्ञान के प्रकाश हेतु अर्चना करूँ।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। द्रव्य कर्म भाव कर्म नाश कर दिये। ध्यान लीन हो गये निज दर्श पा लिये।। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। अष्ट कर्म मेटने को अर्चना करूँ।।।7। ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। भौतिक सुखों की कामना से धर्म भी किया। अतएव क्रिया मात्र से शिव शर्म ना लिया।। __अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त हेतु अर्चना करूँ।।8।। ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। वसु द्रव्य लेय श्रेष्ठ आत्म द्रव्य मिलाऊँ। अनंतनाथ के चरण में शीघ्र चढ़ाऊँ। अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। सिद्ध पद के हेतु अर्चना करूँ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 117 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक सखी छंद कार्तिक कृष्णा एकम् को, आये सपने माता को। पुष्पोत्तर तजकर आये, सुर नर मुनि जन हर्षाये।।1।। ॐ हीं कार्तिककृष्ण प्रतिपदायां गर्भमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ज्येष्ठा वदी बारस आई, सुर गृह गूंजी शहनाई। नप सिंहसेन हर्षाये, सारी साकेत सजाये ।2।। ऊँ ही ज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। बजी जन्मोत्सव की बधाई, उल्का गिरने को आई। तब एक हजार नृप संग में, दीक्षा ली सहेतुक वन में ॥3॥ ऊँ हींज्येष्ठकृष्णद्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। ज्ब चौत्र अमा काली थी, तब ज्ञान सूर्य लाली थी। प्रभु समवसरण में राजे, और बारह सभा विराजे॥4॥ ॐ हीं चौत्रकृष्णअमावस्यायां केवलज्ञानप्राप्ताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जब केवलज्ञान हुआ था, उस तिथि में मोक्ष हुआ था। गिरि शिखर स्वयंभू कूट, प्रभु गये करम से छूट।।5।। ॐ हीं चौत्रकृष्णअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अर्ह ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 118 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला दोहा अनंत गुण गण युक्त हे, अनंत जिन भगवंत। गुणमाला अर्पण करूँ, पा जाऊँ शिवपंथ।1।। जय-जय चौदहवें तीर्थंकर, अनंतनाथ प्रभु दया निधान। दे उपदेश भव्य जीवों का, करते आप सदा कल्याण।। दीक्षा धर सर्वज्ञ हुए जब, जन-जन का उद्धार किया। रत्नत्रय मय मोक्षमार्ग है, दिव्यध्वनि का सार दिया तेरह विध चारित्र बताया, दिव्यध्वनि में ज्ञान कराया।।2।। जीव समास चतुर्दश चौदह, मुख्य मार्गणा बतलाई। गुणास्थान जीवों के चौदह, परिभाषा भी बतलाई।। तत्त्वों का श्रद्धान नहीं वह, मिथ्यातम कहलाता है। उपशम सवमकि से गिरकर ही, सासादन में आता है।।3।। सम्यक् मिथ्या दही गुड़ मिश्रित, भाव मिश्र गुण में आते। चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि, स्व-पर तत्त्व श्रद्धा लाते।। त्रस थावर में विरताविरति, पंचम देश विरत कहते। सायम सकल प्रगट हो जाता, उसे प्रमत्तविरत करते।।4।। जहाँ संजवलन मंद उदय हो, अप्रमत्तविरति होते। अष्टम गुण से ही उपशम औ, क्षपक श्रेणी भी चढ़ जाते।। ___ कभी पूर्व में प्राप्त हुए ना, वो अपूर्व परिणाम धरे।। नवमाँ है अनिवृत्तिकरण समकालीन भाव अभेद धरे।।5।। दशम सूक्ष्म सांपराय गुण है, सूक्ष्म लोभ का उदय रहे। पूर्ण रूप से दबे मोह तो, ग्यारहवाँ गुणथान कहे।। सकल मोह का क्षय हो जता, क्षीण मोह द्वादश प्यारा। चार घातिया नाश हुए तो, सयोग केवली गुण न्यारा।।6।। 119 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग नाश कर चौदहवाँ शुभ, अयोग केवली थान कहा। कर्म नष्ट कर सिद्धक्षेत्र में, पहुंच गए है सिद्ध महा।। ज्ञाता दृष्टा रहे जीव तो, राग-द्वेष मिट जाता है। स्व सन्मुख दृष्टि जो रखता, मोक्ष परम पद पाता है।।7। समवसृति में प्रभु आपने, इस विध जो उपदेश दिया। दिव्यध्वनि सुन लगा मुझे यों, चिदानंद निज देश दिया।। हर्ष भाव से पुलकित होकर, प्रभु मैंने की है पूजन। पूजा का सम्यक् फल होवे, कटे हमारे भव बंधन।।8।। ॐ हीं ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता जय जय जिनवर जी, अंनतनाथ जी, भव-भव का संताप हो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मनाथ जिन पूजन स्थापना नरेन्द्र छन्द धर्मनाथ जिनवर चरणों में, अपना शीश झुकाता। सूरज से भी तेज उजाला,नाथ आपमें पाता।। कृपा दृष्टि मिल जाये तो मैं, बिना पंख उड़ सकता। मध्यलोक से लोक शिखर तक, क्षण भर में जा सकता।। यदि आप मम गृह आये तो, कर्मो से लड़ पाऊँ। शाश्वत मुझमें ठहर गये तो, तुम जैसा बन जाऊँ।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-पाँचों मेरु असि... शुद्ध ज्ञान का जल भर लाया, धार देत त्रय शान्ति कराय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।1।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज स्वभाव चंदन सुखदाय, मन को अतिशय तृप्त कराया। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय। धर्मनाथ जिनवर गुणगाय । आत्म ध्यान का करूँ उपाय, परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय ||2|| ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। संसारिक पद नहीं सुहाय, उत्तम अक्षय ध्रुव पद पाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय । परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय || 3 || ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। शील पुष्प की सुरभि प्रदाय, कामदेव को शीघ्र भग परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय ।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय । परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय||4|| ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। वंदन तीनों कालजिनाय, क्षुधा रोग अविलंब नशाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय ।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय । परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय | 5 || ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान ज्योति शाश्वत जल जाय, कर्म हवायें बुझा न पाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय ।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धर्म धूप साधन बन जाय, अष्ट कर्म विध्वंस कराय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।।।7।। ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। भक्ति भाव से जिन गुणगाय, प्रभु कृपा से शिव फल पाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। शुभ भावों का अर्घ्य बनाय, पद अनर्घ्य जिनवर दर्शाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।। आत्म ध्यान का करूँ उपाय, धर्मनाथ जिनवर गुणगाय। परम जिनराय, जय-जय नाथ परम सुखदाय।।9। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 123 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक सखी छंद सर्वार्थसिद्धि तज आये,सुरबाला मंगल गाये। तेरस वैशाख वदी है, माँ सुव्रता उर हर्षी है।।1। ऊँ ही वैशाखकृष्णत्रयोदश्यां गर्भमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सुद माघ त्रयोदशि आयी, प्रभु जन्मोतसव सुखदायी। नृप भानुराज हर्षाये, तीर्थंकर सुत को पाये।।2।। ऊँ हीं माघशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। जब जन्मोत्सव खुशियाँ थी, तब उल्कापात हुयी थी। वैराग्य धरे जिनराजा, एक लाख संग मुनिराजा ।।3।। ऊँ हींमाघशुक्लत्रयोदश्यां तपोमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्रायअर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जब पौष पूर्णिमा आयी, प्रभु केवलज्ञान उपायी। प्रभु राजे हैं पद्मासन, है दिव्य आपका शासन।।4।। ॐ हीं पौषशुक्लपूर्णिमायां केवलज्ञानप्राप्ताय ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। सुदि ज्येष्ठ चतुर्थी आयी, शिरमा वरी जिनरायी। सूदत्त कूट मन भाया, सम्मेद शिखर सिर नाया।।5।। ऊँ ही ज्येष्ठशुक्लचतु,यां मोक्षमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ हीं अहँ श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। 124 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमाला दोहा धर्मनाथ तीर्थेश के, गुण है नंतानंत गुणमाला कंठे धरे, होता भव का अंत ॥1॥ चौपाई धर्मनाथ जिनवर को वंदू{, धर्म विधायक विभुवर वंदूँ। भानुराज सुत को अभिनंदूँ, मात सुव्रता नंदन वंदूँ॥2॥ चार ध्यान उपदेशक वंदूँ, धमध्यान आराधकवंदूँ। शुक्लध्यान के धारक वंदूँ, प्राणिमात्र उपकारकवंदूँ।।3।। कूट सुदत्त अधीश्वर वंदूँ, सिद्धालय के वासीवंदूं। कर्म अरिंजय स्वामीवंदूँ, मृत्युजंय अभिनामी वंदूँ||4| चिन्मय चिदानंद जिन वंदूँ, परमानंद जिनेश्वर वंदूं। परम शांत मूरत अभिवंदूँ। महापूज्य त्रिपुरारि वंदूँ।।5।। पंचम गति के दायक वंदूँ, इंद्रिय रहित जिनेश्वर वंदूं। काय रहित निष्कायकवंदूँ, योग रहित योगीश्वर वंदूँ।।6। वेद रहित जिन लिंगी वंदूँ, रहित कषाय जिनेश्वर वंदूं । ज्ञानी परम संयमी वंदूँ,केवलदर्शी जिन को वंदूँ | | 7 ॥ लेश्यातीत भाव को वंदूँ, भव्यातीत दशा को वंदूं क्षायिक समकित जिन को वंदूँ, सैनी रहित मार्गणा वंदूं ॥ 8 ॥ सदा अनाहारी प्रभु वंदूँ, ज्ञान शरीरी जिनवर दूँ पंद्रहवें तीर्थेश्वर वंदूँ, धर्मनाथ अखिलेश्वर वंदूं || 9 || 2 125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ हीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता हे धर्म दिवाकर, गुण रत्नाकर, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 126 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शांतिनाथ जिन पूजन स्थापना नरेन्द्र छन्द उध्र्व लोक के अग्रभाग पर, रहते हो त्रिभुवननामी। सात राजू दूरी पर स्वामी, दूर रहूँ मैं भवगामी।। प्रभु आप और बीच हमारे, आज बहुत ही दूरी है। आप वीतरागी मैं रागी, श्रद्धा बंधन डोरी है। वचनों में नहीं शक्ति प्रभु जी कैसे आज बुलाऊँ मैं। भाव भक्ति मेरी सुन लेना, शांति जिनेश पुकारूँ मैं।। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज-पाँचों मेरु असि........ शुद्धातम का शुद्ध नीर श्रद्धाझारी में भर लाया। प्रभु दर्श करते ही मिथ्यातम का अंतिम दिन आया।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ जिनवर चरणों मे, स्वभाव जल पाने आया।1॥ ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल अनादि भवाताप से, दुःख अनंत सहा करता। निज चौतन्य सदन में प्रभुवर, क्रोधानल धू-धू जलता।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ जिनवर चरणों में, शीतलता पाने आया।॥2॥ ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। हीरा मोती माणिक आदि, अक्षत लेकर आया हूँ। राग-द्वेष बंधन मिट जाये, यही भावना लाया हूँ।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ जिन चरणांबुज में, अक्षय पद पाने आया।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। निजानंद पुष्पित बगियाँ में, प्रभु विहार नित करते हो। अपनी ही फुलवारी में निज, ब्रह्म रूप रस पीते हो।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ प्रभु के चरणों में, कामजयी होने आया।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। श्रद्धा रस से भरा हुआ, नैवेद्य समर्पित करता हाँ निजानुभव से तृप्त प्रभु की, वीतरागता वरता हूँ।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ जिनवर चरणों में, शुचिमय चरु पाने आया।।5॥ ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 128 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति विरक्त होकरजिन मेरे, आप निरखते निज निधियाँ। रत्नदीप से करूँ आरती, मेरी भी खोलो अखियाँ।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ प्रभु के चरणों में, परम ज्योति पाने आया।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आपके सिद्धमहल में, ज्ञान धूप घट जलते हैं। अतः कर्म के कीट पतंगे, दूर-दूर ही रहते हैं। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ प्रभु के चरणों में, शुद्धि धूप पाने आया ।। 7 ।। ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। मम श्रद्धा मंडप में आओ, मुक्ति का उत्सव कर दो। फल लाया हूँ प्रभु चढ़ाने, एक नजर मुझ पर कर दो।। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ प्रभु के चरणों में, मुक्तिरमा वरने आया ॥ ४॥ ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। बिन श्रद्धा के नाथ हजारों, मैंने अर्घ्य चढ़ाये हैं। दिखा दिखाकर इस दुनिया को,धर्मी भी कहलाये हैं। सारे दर को छोड़ प्रभु जी, आज आपके दर आया। शांतिनाथ प्रभु के चरणों में, मुक्तिरमा वरने आया॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । 129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक सखी छंद भादों वदी सप्तमी आई, कुरुवंश में खुशियाँ छाई । छप्पन दिक् देवी आई, माता ऐरा हर्षाई || नृप विश्वसेन अर्चित है, प्रभु के कारण चर्चित है। सर्वार्थसिद्धि तज आये, इंद्रों ने रत्न बरसाये ।। 1 ।। ॐ हीं भाद्रकृष्णसप्तम्यां गर्भमंगलमंडिताय ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। वदी जेठचतुर्दशी आई, जन्मे त्रिभुवन जिनराई। सब जग में आनंद छाया, सुर गिरि अभिषेक कराया।। हस्तिनापुर नगरी प्यारी, प्रभु तीन पदों के धारी। अतिशय दश है सुखकारी, जय शांतिनाथ त्रिपुरारि ।।2।। ऊँ हीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु जातिस्मरण हो आया, वैराग्य सहस मन भाया। छह खंड राज को छोड़ा, विष भोगों से मुख मोड़ा || सिद्धार्थ पालकी चढ़के, सु आम्रवनी में पहुँचे। लौकांतिक शीश नवाय, मुनि शांतिनाथ गुण गाये॥3॥ ऊँ हीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां तपोमंगलमंडिताय ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। बैठे नंदी तरु नीचे, फिर ज्ञान गगन में पहुँचे। सुदी पौष तिथि दशमी को, उपदेश दिया भवि जन को खिरी समवसरण में वाणी, गणधर गूँथी कल्याणी। दश केवलज्ञान के अतिशय, प्रभु शांतिनाथ की जय-जय।4। ऊँ ह्रीं पौषशुक्लदशम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब जेठ वदी चौदस थी, तब पाई शिव लक्ष्मी थी। संग नौ सौ थे मुनिराया, गिरि कूट कुंदप्रभ भाया।। प्रभु अष्टम वसुधा पाये, हम भी शिव आस लगाये। सम्मेद शिखर की जय-जय,श्री शांतिनाथ की जय-जय।।5।। ऊँ ही ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय ऊँ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ऊँ हीं अहँ श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला दोहा जिन शासन के दीप को, प्रभो शांत अवधूत। मान मात्र से शांति हो, पाऊँ शांत स्वरूप।।1।। ज्ञानोदय छंद शांति विधायक शांति जिनेश्वर, नगर सुरपति से वंदित हैं। सेलहवें तीर्थंकर स्वामी, तीन लोक में पूजित हैं।। द्वादश कामदेव चक्रीश्वर, पंचम पद के धारी हैं। बलपने से अणुव्रत धारी, प्राणी मात्र हितकारी हैं ।।2।। छह खंडों के अधिपतियों को, शीघ्र आपने जीत लिया। चक्र दिखाकर मात्र पुण्य से, चक्री का नहीं मान किया। नव निधि चौदह रत्न प्राप्त कर, धर्मादि पुरुषार्थ कियां जाति स्मरा जब हुआ आपको, राज तजा वैराग्य लिया।3।। रत्नत्रय साधन के द्वारा, तुमने जिनपद राज किया। चक्रवर्ती की अतुल निधि का, सहज भाव से त्याग किया।। मंदरपुर के नृप सुमित्र ने, भक्ति से आहार दिया। क्षीरधार मुनि कर में देकर, शिवपथ को पहचान लिया।।4।। 131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षपक श्रेणी आरूढ़ हुये तब, केवलज्ञान प्रकाश हुआ। विचरण करके देश-देश में, मोक्षमार्ग उपदेश दिया।। राज्य दशा में चक्ररत्न के, भय से नृप ने नमन किया। प्रगट हुई चिद्रूप दशा तो, श्रद्धा से तव शरण लिया।।5।। श्रीसम्मेद शिखर पर स्वामी, शुक्लध्यान आसीन हुये। कूट कुंदप्रभ पुनीत धरा से, सिद्धक्षेत्र में पहुँच गये।। अहो भाग्य है मेरा प्रभुवर, दर्श करूँ दो नयनों से। शांति जिनेश्वर का गुण गाऊँ, तन से मन से वचनों से।।6।। शांतिनाथ जगदीश्वर स्वामी, मुझको भी ऐसा वर दो। अनुकूल प्रतिकूल योग में, समता हो ऐसा कर दो।। प्रभु आपके चरण पखारूँ, मिथ्या तिमिर विनाश करूँ। तीर्थंकर पद वंदन करके, पंच पाप मल नाश करूँ।।7। शांतिनाथ प्रभु का दर्शन कर, सम्यग्दर्शन प्राप्त करूँ। शांति विधाता का सुमिरण कर, सम्यग्ज्ञान प्रकाश वरूँ।। शांतिनाथ मरत अर्चन कर, सम्यग्चारित हृदय धरूँ। विघ्न विनाशक चरण चित्त धर, बारंबार प्रणाम करूँ।।8।। श्री जिनवर का सुयश गान कर, शाश्वत मुक्तिधाम वरूँ। शांति जिनेश मोक्ष पद दाता, परम शांत रस पान करूँ।। करुणासागर चरणांबुज का, दर्शन कर भव भार हरूँ। प्रभु आपके पथ पर चलकर, भव समुद्र को पार करूँ।।9।। दोहा शांति प्रभु के चरण को, चित् सिंहासन धार। __ श्रद्धा द्वीप उजाल कर, ध्याऊँ बारंबार।।!!10 ॐ हीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। 132 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता श्री शांति जिनेशा, भविजन ईशा, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 133 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुंथुनाथ जिन पूजन स्थापना अडिल्ल छन्द कुंथुनाथ जिनराज दया के सिंधु हैं। नाथ दिवाकर आप सुधाकर इंदु हैं।। प्राणीमात्र की रक्षा करते नाथ हैं। इसीलिए शत इंद्र झकाते माथ हैं।।1।। सिद्धालय में जिनवर आप समा गये। निज देहालय में परमेश्वर आ गये।। प्रभो आपका भक्ति से आह्वान करूँ। आकर फिर ना जाना ये ही अरज करूँ।।2।। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण ज्ञानोदय छंद प्रासुक जल अर्पण करने से, शुद्ध बनेंगे सोचा था। किंतु अशुभ भावों को हमने, नहीं मिटाना चाहा था।। जनम मरण से व्याकुल होकर, वचनामृत पाने आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, प्रासक जल पूजन लाये।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाषनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 134 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी अतीत के विकल्प करते, कभी नआगत के संकल्प। भव आताप बढ़ाते रहते, बीत गया यों काल अनंत।। सिद्धक्षेत्र की शांति पाने, भवाताप हरने आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, श्रद्धा चंदन ले आये।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाषनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। जगत उपाधि पाने हेतु, आधि व्याधि से ग्रसित रहे। कुगुरु कुदेव कुधर्म की सेवा, मिथ्यादर्शन गृहीत धरें।। __ इसीलिए अविनाशी बनने, निज वैभव पाने आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, अखंड अक्षत ले आये।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। इंद्रिय मन के विषय मनोहर, मिष्ट जहर जैसे लगते। आत्म शील के नाशक हैं सब, दुख उत्पन्न सदा करते।। चिन्मय रूप मनोहर पाने, आप्त काम होने आये। कुंथुनाथ जिनशरण में, पुष्प अचेतन ले आये।।4। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। तन के कारण किञ्चित् किंतु, मन के हित आहार किया। तन की भूख तनिक से मिटती, क्षुधा व्याधि को बढ़ा दिया।। क्षुधा रोग उपसर्ग मिटा दो, ज्ञान सुधा पाने आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, ले नैवेद्य चले आये।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाषनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य रोशनी से बाहर में, सारा तमस मिटा डाला। चेतन गृह में मोह बढ़ाकर, मिथ्यातम से भर डाला।। महाबली नृप मोह कर्म का, सर्वनाश करने आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, मणिमय दीपक ले आये।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाषाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। धूप दशांगी चढ़ा चढ़ाकर, धूम्र उड़ाई नभ तल में। कर्म शक्ति को बढ़ा बढ़ाकर, भटक रहे है भव-वन में।। तप अग्नि में कर्म काठ को नाथ जलाने हैं आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, धूप सुगंधी ले आय।।7। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। कर्तापन से कार्य जगत में, किये बहुत दुख पाया है। फल पाने की इच्छा ने ही, आतम को तड़पाया है।। जग के फल दुखदायी तजकर, शिवफल पाने हैं आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, शुद्ध मनोहर फल लाये।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पर द्रव्यों का भोग अभी तक, किया बहत मैंने स्वामी। पर पद की अभिलाषा में ही, जीवन व्यर्थ किया स्वामी।। जड़ वैभव को चढ़ा आज, चैतन्य विभव पाने आये। कुंथुनाथ जिनराज शरण में, अर्घ्य बनाकर ले आये।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 136 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक आडिल्ल छंद श्रीमती को सोलह सपने दिखलाये। श्रावण वदी दशमी को गर्भ में आये।। तीनों पद के धारी प्रभुवर धन्य हैं। नगर हस्तिनापुर भी लगता रम्य है।।1।। ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णदशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। सूर्यसेन राजा के घर में जन्म लिया। एकम सुदी वैशाख दिवस पावन किया।। कामदेव तेरहवें रूप मनहारी। पांडु शिला अभिषेक हुआ अतिशयकारी॥2॥ ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां जन्ममंगलमंडिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाति स्मरण से प्रभु आप संयम धरा। सब संसार असार जाना तप निखरा।। विजय पालकि चढ़े चले निर्जन वन में। तिलक तरु के नीचे प्रभुवर तप करने।।3।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां तपोमंगलमंडिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। चैत्र शुक्ला तृतीया घाति नष्ट किया। तृतीया घाति नष्ट किया। समवसरण को रच कुबेर हर्षित हुआ। शिवपथ बतलाया प्रभो ने ज्ञान दिया। दिव्यध्वनि से प्रभु विश्व कल्याण किया॥4॥ ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानाग्नि से अष्ट कर्म को दग्ध किया। एकम सुदी वैशाख मुक्ति वरण किया।। श्री सम्मेदाचल से जिनवर सिद्ध हुए। कूट ज्ञानधर गिरिवर की जय बोल रहे।।5।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लप्रतिपदायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला दोहा कुंथुनाथ भगवान है, करुणा के अवतार। इस असार संसर में प्रभु भक्ती ही सार।।1। पद्धरि छंद जय कुंथुनाथ हे जगन्नाथ, करुणा के सागर प्राणिनाथ। जय कुमति निकंदन कुंथुनाथ, हे कल्मषी भंजन कुंथुनाथ।।2।। जय सुख वारिधि हे कुंथुनाथ, गुणवंत हितंकर कुंथुनाथ। जय शिवरमणी के प्राणनाथ, छठवें चक्रेश्वर कुंथुनाथ।।3।। जय श्रीमति नंदन कुंथुनाथ, पितु सूर्यसेन सुत कुंथुनाथ। पैंतिस गणधर थे आप नाथ, थे मुख्य स्वयंभू मुनीनाथ।।4।। हैं कई हजार शिष्यों के नाथ, श्रोता नर नारी इंद्रनाथ। अष्टादश दोष विमुक्त नाथ, प्रभु नंत चतुष्टय युक्त नाथ।।5। ___ मोहारिजयी श्रीकुंथुनाथ, शत इंद्र नमाते शीश नाथ। चिन्मय चिंतामणि आप नाथ, कुन्थादि जीव के दया नाथ।।6।। जब कौरव वंशी कुंथुनाथ, अज चिह्न चरण है आप नाथ। मैं तब चरणों में नमूं माथ, मुक्ति तक देना साथ नाथ।।7।। 138 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु मोक्षनगर में करें वास, जिनपदवी की बस लगी आस। जिनराज दर्श की अभिलाष, वसु कर्म दुष्ट का करूँ नाश।।8।। __ अब हो जाऊँ स्वाधीन नाथ, इसलिए नवाऊँ आज माथ। प्रभु सादर सविनय नमन आज, जयमाला अर्पण मुक्ति काज॥9॥ दोहा नंत चतुष्टय लीन है, चित् स्वभाव अविकार। मुझ पर भी कर दो कृपा, करूँ भवोदधि पार।।10॥ ऊँ ह्री श्री कुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री कुंथु जिनेश्वर, हे करुणेश्वर, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ऊयान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ।।इत्याशीर्वादः।। 139 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अरनाथ जिन पूजन स्थापना अडिल्ल छन्द अरहनाथ के चरण कमल को, निशदिन बारंबार प्रणाम। निष्कलंक निश्चल निष्कामी, निजानंद निष्कल गुणधाम। जग आकर्षण छोड़ सभी मैं, आया जिनवर द्वार प्रभो । पुण्योदय से आज मिले हो, कर देना उद्धार विभो ।। 1 ॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज- नंदीश्वर श्री जिन.... जल मल का करता नाश, जल वो ले आया। हो कर्म कलंक विनाश, आश लिये आया ।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व- पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया॥1॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। चंदन है जग विख्यात, तन आतप हारी। मन का मेटो संताप, भव व्याधि घे ॥ अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया॥2॥ ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। 140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नश्वरतन के अनुकूल, बहुविधकर्म करे । शाश्वत आतम को भूल, रूप अनेक धरे॥ अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया॥4॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। यह पुष्पांजलि सुखकार, शील स्वभाव जगे। भव सिंधु के उस पार, मेरी नाव लगे। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया ॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। यह चरु करूँ मैं भेंट, ऐसा वर देना । क्षुध् व्याधि पूर्ण हो नष्ट, ऐसा कर देना।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया॥5॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। सूरज उगते ही प्रात, तम को विनशाये। यह दीप समर्पित आज, आतम उजियारे।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया॥6॥ ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु आत्म ध्यान की धूप, सम्यक् ज्ञानमयी। यह राग द्वेष दुःख रूप, होऊँ कर्म जयी।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया।।7। ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। फल चरण चढ़ाऊँ नाथ, शिवफल चाह रखू। कर्मों का करके नाश, शिवफल को निरखू।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया।।18।। ॐ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पद मद में हो आसक्त, निज पद को भूला। जब हुआ दर्श अनुरक्त, मुक्तिद्वार खुला।। अरनाथ जिनेश महान, चरण शरण आया। हो स्व-पर भेद विज्ञान, श्रद्धा उर लाया॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 142 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद मंगल छिन्न स्वप्न सोलह, श्री मात समुत्रि को आये। अपराजित अनुत्तर तजकर, नगर हस्तिनापुर आये।। फाल्गुन शुक्ला तृतीया को नृपराज सुदर्शन हर्षाये। सुरपति रत्नों को बरसाये, कल्याणक मन को भाये।।1।। ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लतृतीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। मगसिर शुक्ला चौदश के दिन, तीर्थंकर जग में आये। इन्द्र हाथ में स्वर्णिम सुंदर, सहस आठ कलशा लाये।। सिद्धक्षेत्र जाने को, पाण्डु शिला पे ले आये। कोटी साढ़े बारह बाजे, तरह-तरह के बजवाये।।2।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लचतुर्दश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। मगसिर सुदि दशमी को स्वामी, मेघ नाश होते देखा। वस्त्राभूषण तजे तुरत ही, नश्वर जग से मुख मोड़ा।। चक्री पद को त्याग पालकी, वैजयंती में बैठ चले। हजार नृप संग तेला करके, अरहनाथ मुनिनाथ बने।।3।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। कार्तिक सुदि बारस को प्रभु ने, जिनवर कीपदवी पायी। छयालीस गुण प्रकट हुए और क्षायिक नव लब्धि पायी।। नाम कर्म की तीर्थंकर शुभ, प्रकृति आज उदय आयी। अरहनाथ के जयकारों से, सारी धरती [जायी।।4।। ऊँ ह्रीं कार्तिकशुक्लद्वादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 143 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र अमावस्या को स्वामी, नाटक कूट निर्वाणलिया। एक सहस मुनिनाथ साथ में, सम्मेदाचल धन्य किया।। अव्याबाध सुखी होकर प्रभु, देह रहित स्वाधीनहुये। पंचमगति को पाने हेतु, तव चरणों में लीन हुये।।5।। ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्ण अमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीअरनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ ह्रीं अर्ह श्रीअरनाथजिनेन्द्राय नमो नमः।' जयमाला दोहा अरहनाथ भगवान को, मैं पूनँ धर ध्यान। आप भक्ति की शक्ति से, करूँ आत्म कल्याण।।1॥ चाल - शेर अरनाथ आपके चरण को नित्य मैं नमूं। धर ध्यान आपका प्रभु भव सिंधु से तरूँ।। देवाधिदेव अरहनाथ आपको नमूं। हे सातवें चक्रेश मुनिनाथ को नम।।2।। हे वर्तमान तीर्थनाथ आपको नमूं। हो कामदेव चौदहवें जिन आपको नम।। सौधर्म इंद्र आपके चरणों में है नमे। गणधर मुनीन्द्र आपकी भक्ति में रमे।।3।। जो नित्य प्रभु आपके दर्शन को है पाता। वो पाप नाश करके शीघ्र मोक्ष है पाता।। हे नाथ भक्ति आपकी मन से करे सदा। उसको न विघ्न व्याधियाँ सताती हैं कदा।।4।। 144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा करे विनय से अरहनाथ आपकी । हो पूर्ण मनोकामना उस भक्त के मन की ।। शंकादि दोशटारके समदर्श को पाता । वो आठ अंग धारता निज ज्ञान को पाता ॥ 5॥ तेरह प्रकार के चरित्र धार वो लेते। शुद्धोपयोगी होय मुनि आत्म को ध्या।। वे ग्रीष्मकाल में गिरि शिखरों पे रहे हैं। वर्षा ऋतु में तरु तले परीषह को सहे हैं॥6॥ हेमंत काल में मुनि बाहर शयन करें। द्वादश प्रकार तप तपे मुनि को मन करें || उपवास वास करते निज में रहें मुनीश । चऊँ घाति घात करके पद पा गये हैं ईश || 7 | रचना हुई समवसरण सब ताप अघहरा। है तीस जिसमें श्री कुंथुमुख्य गणधरा।। हे नाथ आपका सुयश सुना मैं आ गया। मैं भी बनूँ परमात्माये मन को भा गया ॥ 8 ॥ अज्ञान मान वश यदि जो दोष हैं हुये। हे नाथ माफ कीजिये तुम हो दया निधे।। अरनाथ आपके चरण को नित्य मैं नमूँ। धर ध्यान प्रभु भव-सिंधु से तरूं ॥ 9 ॥ दोहा मीन चिन्ह युत है चरण, वंदन बारम्बार। भावों सेदर्शन करूँ, हो जाऊँ भव पार ॥ 10 ॥ ऊँ ह्रीं श्री अरनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घत्ता हे अरहनाथ जी, मेरी अरजी, भव-भव का संताप हरो। नित पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 146 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मल्लिनाथ जिन पूजन स्थापना चौबीला छंद बहुत बुलाया मैंने भगवन्, अब मैं ही खुद आऊँगा। नहीं सुनाया अब तक तुमको, अब निज व्यथा सुनाऊँगा।। सुनकर मेरी व्यथा कथा को, है विश्वास पुकारोगे। अनंत दुख से व्याकुल मुझको, भव से पार लगाओगे।। मल्लिनाथ है नाम तुम्हारा, दयासिंधु कहलाते हो। श्रद्धा से जो भक्त पुकारे, उसके हृदय समाते हो।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण आडिल्ल छंद ज्ञान कलश में शुद्ध नीर निर्मल लिया। मिथ्यातम धोने हेतु पद धार किया।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करने जन्म रोग को मैं हरूँ।।1। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। अनंत युग का प्यासा ज्ञान पिपासा है। शांति शाश्वत मुझको मिलेगी आशा है।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करके भवाताप को मैं हरूँ।।2।। 147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। जन्म मरण की वेदना से रोता हूँ। कर्म बंध के भार को मैं ढोता हूँ।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करने अक्षय जिनपद को हरूँ।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। पंचेन्द्रिय की अभिलाषाएँ भटकाती। ब्रह्म रूप में लीन नहीं होने देती।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करके परम् ब्रह्म पद में रम।।4।। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। पूर्ण शुद्ध चेतन चिन्मय चिद्रप हैं। फिर भी जड़ संबंध किया विद्रूप हूँ।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करके समता रस का पान करूँ।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। दीप भू पर नभ में सूरज तारे हैं। अंधकार हरने बेवस बेचारे हैं।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करके ज्ञान दीप उर में ध रूँ।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनिाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। 148 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म सदा मेरी बुद्धि को भ्रष्ट करें। धूप चढ़ाऊँ आज सारे कर्म जरें।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शनर मैं करूँ। पूजन करके वसु कर्म को नष्ट करूँ।।7। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। इंद्रिय सुख के फल हेतु मैं व्याकुल हूँ। प्रभु दर्श पा, शिव फल पाने आकुल हूँ। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ। पूजन करकेमोक्ष महापद मैं वरूँ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। अर्घ्य अर्पण कर निज गुण में लीन रहूँ। जिन समान ही शीघ्र नाथ अरिहंत बनूँ।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शनर मैं करूँ। पूजन करके मुक्तिवध् को मैं वरूँ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 149 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक तर्ज -कर लो जिनवर का गुणगान देव मनाये गर्भ कल्याण, आई शुभ की घड़ी। आई शुभ की घड़ी, देखो मंगल घड़ी....॥ अपराजित अनुत्तर छोड़ा, मिथिलापुर में आये। निद्रा में शुभ स्वप्न देख, माँ प्रभावती सुख पाये।। सुरपति करें गुणगान, चैत्र सुदी एकम् है महान | करलो जिनवर का गुणगान, आई शुभ की घड़ी || 1 ।। ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लप्रतिपदायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अग्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। मगसिर सुदी एकादशमी को कुंभराज गृह आये। जन्मोत्सव में मंगल उत्सव, गा अभिषेक कराये ॥ देव मनाये जन्म कल्याण, ले गये पाण्डुक शिला महान । करलो जिनवर का गुणगान, आई जन्म की घड़ी||2| ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लएकाश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जन्मोत्सव के समय प्रभु ने, विद्युत अस्थिर देखा। जयंत पालकी में लेकर, सुर दल शालीवान पहुँचा।। देव मनाये तप कल्याण, करने चले आत्म कल्याण। करलो जिनवर का गुणगान, आई तप की घड़ी || 3 | ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लएकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। 150 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोक तरु के नीचे प्रभु ने, केवलज्ञान उपाया। चार घाति कर्मों का क्षयकर, समवसरण ही भाया ।। देव मनाये ज्ञान कल्याण, प्रभु की ध्वनि खिरी है महान। करलो जिनवर का गुणगान, आई ज्ञान की घड़ी॥4॥ ऊँ ह्रीं पौषकृष्णद्वितीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन शुक्ला पंचम को अपराह्न समय जब आया। सम्मेदाचल संबल कूट से, महा मोक्ष पद पाया।। देव मनाये मोक्ष कल्याण, पहुँचे जिनवर मुक्तिधाम। कर लो जिनवर का गुणगान, आई मोक्ष की घड़ी || 5॥ ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्ण अमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य 'ॐ ह्रीं आईं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः । ' जयमाला दोहा मल्लिनाथ जिनराज की, जग में कीर्ति विशाल। बाल ब्रह्मचारी प्रभो, नमन करूँ त्र्य काल ।।1।। चौपाई वंदन जिन श्री मल्लिनाथ, हम गाये तव गुण की गाथा । भेष दिगम्बर आतम रुचि जागी, बिन उपदेश नाथ वैरागी । विद्युत अस्थिर होते देखा, छोड़ दिया जग वैभव लेख ॥। 3 ॥ जय श्री मल्लिनाथ हमारे, लाखों भविजन तुमने तारे। जय-जय मुक्तिरमा पति देवा, सौ-सौ इंद्र करे तुम सेवा॥4॥ 151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जय आनंद निधान जिनेशा, हरो अमंगल दोष अशेषा। बाल ब्रह्मचारी जिनराई, मुक्तिरमा से प्रीत लगाई।।5।। कुमार वय में दीक्षा धारी, द्रव्य भाव हिंसा परिहारी। मोह मल्ल को नाश किया है, निज आतम को जान लिया है।।6।। प्रभु सोलह कारण आराधे, तीर्थ प्रवर्तन सब सुख भासे। मास पूर्व ही योग निरोधा, योग रहित हो शिव को साधा।।7।। ___ गणधर हुए अट्ठाईस सारे, उन्हें त्रियोग से नमन हमारे। मैं संयम की पाऊँ नैया, शिवपथ के हो आप खिवैया।।8।। स्वानुभूति तरणी गंभीरा, आये मोक्षपुरी के तीरा। जिनवर काटे कर्म जजरा, चऊ गतियों की नाशी पीरा।।9। मैं भी ऐसा जीवन पाऊँ, निकट कापके शीश झुकाऊँ। जपूँ सदैव प्रभु दिन रैना, जाग मेरी पुण्य सुसेना।।10॥ महानजिन श्रीमल्लिनाथा, नष्ट किया वसुविधि का खाता। जिनवर मुक्तिपुरी के वासी, उसी पंथ का मैं प्रत्याशी।।11।। प्रभुवर आत्म भवन में आये, अनंत सुख के उपवन पाये। मल्लिनाथ पद शीश नवाये, प्रभु समान निज पद हम पाये।।12।। दोहा कलश चिह्न लख चरण में, इंद्र करें जयकार। संबल मल्लीनाथ दो, हो जाऊँ भव पार।।13। ऊँ ह्रीं श्री मल्लिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता हे मल्लिनाथ जिनेश्वर, मेरे ईश्वर, भव-भव का संताप हरो। नित पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन पूजन स्थापना ज्ञानोदय छंद हे मुनिसुव्रत मेरे भगवन्, सिद्धालय के वासी हो। आह्वान करूँ आओ जिनवर, मम हृदय कम विश्वासी हो। भावों के पीले पुष्पों से, बुला रहा हूँ, आ आजो। शत्रु भी शांत हुए हैं, शीघ्र हृदय में बस जाओ || 1 || मैं हूँ भक्त आपका सच्चा, आप मेरे सच्चे भगवान। मेरी दुनिया छोटी सी है, रखना मेरा भगवन् हृदयांगन में करूँ प्रतीक्षा, बोलो ना कब आओगे। कर्म ध्यान।। आश है विश्वास पूर्ण है, नाथ मेरे गृह आओगे॥2॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण हरिगीतिका छंद जग में जनम लेकर अनंतों, बार मैं मरता रहा। जब आपका वैभव लखा तो, देखता ही मैं रहा ।। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 153 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताप मिट पाया नहीं। स्पर्शित किया चंदन बहुत पर, गंगाम्बु मुक्ताहार शीतल, काम कुछ आया नहीं। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। नश्वर सुखों की कामना में, शिवभवन ना पा सका। पर भाव में अटका रुला हूँ, आत्म पद ना पा सका।। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव- सिंधु पार उतारिये ॥3॥ ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। यह चाह विषयों की मिटा दो, पुष्प अर्पण है प्रभो। दुष्कर्म का नेता यही ह, काम को नाशो प्रभो ।। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये॥4॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। चिरकाल से जड़ वस्तुओं में, स्वाद आया है प्रभो। निज ज्ञान रस का स्वाद अब तक, जान ना पाया प्रभो ।। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 154 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीपक शिखा से तम मिटेगा, भ्रम रहा मेरा प्रभो। तमहारिणी वो ज्ञान छैनी, दूरतम करती विभो। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये।।6।। ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आपके ही ज्ञान घट में, ध्यान धूप सुगंध हैं। मम पास धूप, सुगंध बिन है, गंध आप अनूप हैं।। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। चिर काल से इंद्रिय सुखों के, फल रहा मैं चाहता। प्रभु दर्श जो मैंने किया नित, आत्म सुख फल चाहता।। हे नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव- सिंधु पार उतारिये ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। निज आत्म वैभव का अतिशय, नाथ बतला दीजिये । मम अघ्ज्ञ को स्वीकार लो प्रभु, ज्ञानधार बहाइये।। नाथ मुनिसुव्रत हमारे, पूर्ण व्रत कर दीजिये । सब कष्ट बाधायें मिटा भव-सिंधु पार उतारिये॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 155 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक सखी छंद प्रभु आनत दिवि से आये, और राजगृहे में आये। कृष्णा श्रावण द्वितीया दिन, माँ पद्मा उर आये जिन।। छप्पन कुमारियाँ आई, अंतःपुर बजे बधाई। माँ स्वप्न देख हर्षायें, नृपराज सुमित्र सुनाये।।1।। ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। वैशाख वदी तिथि आई, बारस जन्मे जिनराई। अभिषेक किया मेरु पर, बस अर्ध निमिष में जाकर।। जो जन्म मरण से डरते, वे प्रभु की पूजा करते। मैं जामन मरण मिटाऊँ, जन्मोत्सव आज मनाऊँ।2।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। वैशाख वदी दशमी थी, प्रभु जाति स्मृति हुई थी। जब केशलोंच कर लीना, सुर क्षीरोदधि में दीना।। तेला कर दीक्षा धारी, थे संग सहस मुनिराई। इंद्राणी चाौक बनाया, दीक्षाकल्याण मनाया।।3।। ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 156 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जबक प्रभु रहे छद्मस्था, तब मोन रहे भगवंता। वैशाख वदी तिथि नवमी, हो गये पूर्ण प्रभु भानी।। चरणों में कमल रचे हैं, जब प्रभु विहार करें हैं। गुणथान सयोगी पाया, ज्ञानोत्सव देव मनाया।।4।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृरूणनवम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। फाल्गुन कृष्णा बारस को, प्रभु पाये सिद्धालय को। ज्यों हैं कपूर उड़ जाता, त्यों प्रभु तन भी उड़ जाात।। प्रभु सम्मेदाचल आये, निज आतम ध्यान लगाये। हम भी शुभ अध्य चढ़ायें, और मुक्तिरमा को पायें।।5।। ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णद्वादश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला दोहा सूरज से नीरज खिले, और स्वाति से सीप। भव्य कमल तुम से खिले, आओ हृदय समीप।।1। ज्ञानोदयछंद दोहा जय-जय मुनिसुव्रत तीर्थंकर, भक्ति सुमन चढ़ाता हूँ। है विशाल तव यशगाथा मैं, पूर्ण नहीं कह सकता हूँ।। शरणआपकी जो आता है, कर्मों का ग्रह मिट जहाता। जन्म मरण के दुःखों से वह, पल में छुटकारा पाता।।2।। प्रभु स्वयं में आप विराजे, जान रहे हो सभी जहान। भव्य जनों के कष्ट मिटाते, सदा प्रभु जी आप महान।। गर्भ जन्म तप ज्ञान हुए हैं, राजगृही में शुभ कल्याण। 157 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊध्वं मध्य पाताल लोक में, गूंजा प्रभु का यश-जयगान।।3।। रत्नत्रय आभूषण पहने, जड़ आभूषणका क्य काम। दोष अठारा रहित हुए है, वस्त्रा शस्त्र का लेश ननाम।। तीन लोक के स्वयं मुकुट हो, स्वर्ण मुकुट का क्या है काम। नाथ त्रिलोकी कहलाते हो, फिर भी रहते हो निज धाम।।4।। भक्त निहारे प्रभु आपको, आप निहारे अपनी ओर। आप हुए निर्मोही स्वामी, अनंत गुण का कहीं नछोर। धन्य आपकी वीतरागता, नहीं भकत को कुछ देते। फिर भी भक्त शरण में आकर, सब कुछ तुमसे पा लेते।।5।। प्रभु आपके वचन श्रवण कर, आत्म ज्ञान को पाते हैं। रत्नत्रय धारण कर साध्क, शिव पथ में लग जाते हैं।। चक्री इंद्रादिक के वभव, पुण्य सातिशय से मिलते। नहीं चाहते किंतु पुण्य को, ज्ञानी निज में रहते।।6।। काल अनंता बीत गया है, मोह शनीचर सता रहा। लाखों को प्रभपार किया है, भक्त हृदय यह बता रहा।। नाथ अपकी महिमा को मैं, अल्पबुद्धि कैसे गाऊँ। यही भावना भाता हूँ निज का, निज में दर्शन पाऊँ।।7।। दोहा प्रभो भक्त मैं आपका, दुख से हूँ संयुक्त। एक नजर कर दो प्रभो, होऊँ दुख से मुक्त।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता मुनिसुव्रत स्वामी, हो जगनामी, भव-भव का संताप हरो। निजपूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' हरो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 158 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमिनाथ जिन पूजन स्थापना नरेन्द्र छंद नमिनाथ प्रभु नमन करूँ मैं, मन मेरा हर्षाया। चरण कमल की पूजन करने, भाव हृदय में आया।। चरण पखारूँ भक्ति भाव से, भव्य भवना भावना भाऊँ। दृढ़ वैराग्य जगा अंतर में, सिद्धालय में जाऊँ।।1।। जिन भक्ती से प्रेरित होकर, नाथ शरण में आया। मेरे जिनवर तुमको निजगृह, आज बुलाने आया।। श्रद्धा गुण युत मम मंदिर में, शाश्वत नाथ समाना। निकट रहूँगा सदा आपके, नमिनाथ प्रभु आना।।2।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण ज्ञानोदय छंद आतम कमों से मलीन है इसको धोने आया हूँ। प्रभो !आपकी वाणी को श्रद्धा से पीने आया हूँ। सुधा नीर लेकर आया प्रभु जन्म जरामृत नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 159 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जड़ द्रव्यों की चिंता में ही जीवन चिता बनाई। शीत द्रव्य का लेप किया पर शांति आप में पाई है।। बावनचंदन ले आया हूँ भवाताप प्रभु नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।2। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। आयुपल-पलघटती रहती मृत्यु से भय भारी है। अक्षयपुर का वासी होकर नश्वर का अभिलाषी है।। अतः आज भावों से अक्षत लाया हूँ भव नाश करो। नमिनाथ दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। निज स्वभाव की गंध मिली ना, पुष्प सुगंधी लाये हैं। तन के सुंदर आकर्षण में नरकों के दुःख पाये हैं।। नाथ मुझे निष्काम बना दो काम बाण का नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।4।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। रसना की लोलुपता में ही शुद्धि का ना ध्यान रखा। स्वातम रस का स्वाद लिया ना व्रत संयम से दूर रहा।। निराहार जिन आप स्वभावी क्षुधा रोग मम नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर के दोष दिखे हैं लेकिन निज के दोष न दिख पाये। अंतर मं है घना अँधेरा सत्य स्वरूप नप दिख पाये।। ज्ञान दीप प्रगटाओ स्वामी, मिथ्यातम का नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। ये कर्म बहत दुख देते हैं कर्मों को दोष दिया करता। स्वयं नहीं पुरुषार्थ जगाया भाव शुद्ध भी ना करता।। धूप समर्पित करता हूँ अब, दुर्भावों का नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।7।। ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। भाव शुभशुभ जब करता हूँ पुण्य-पाप फल पाता हूँ। कर्म उदय में जब आते हैं व्याकुल हो फल सहता हूँ।। मोक्ष निवासी जिनवर मेरे, कर्म फलों का नाश करो। नमिनाथ प्रभु दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। सारे पद जग के झूठे हैं शाश्वत ना मिट जाते हैं। शिवपद ही मन को भाया प्रभु तुम सा कहीं न पाते हैं।। मद का काम नहीं शिवपथ में मम मद पूर्ण विनाश करो। नमिनाथ प्रभ दर्शन देकर, ज्ञान वेदी पर वास करो।।9॥ ऊँ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 161 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक ज्ञानोदय छंद विजयराज फल स्वप्न कहे, अपराजित तजकर प्रभु आये। आश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन, माता वप्रा उर आये।। मिथिलापुर नगरी में प्रतिदिन, नूतन मंगल गान करें। धन्य गर्भ कल्याण देवियाँ, मना-मनाकर नृत्य करें।।1।। ॐ ह्रीं आश्विनकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। आषाढ़ वदी दशमी तिथि को जिनबाल धरा पर जन्म लियेष्। चार प्रकार सुरों के गृह में वाद्य बजे, घट नीर लिये।। माया पुत्र रचा इंद्राणी, माँ की गोद सुला आई। बाल प्रभु को निरख-निरख कर, पाण्डु शिला पर ले आई ॥2॥ ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णदशम्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जन्म दिवस के दिन प्रभुवर को, जाति स्मरण हुआ शुभ ज्ञान। उत्तर कुरू पालकी बैठे, अंतर में निज आत्म विमान॥ द्वादश भावन भाई प्रभु ने, किया चैत्रवन में निज ध्यान। एक सहस नृप ने दीक्षा ली, जय-जय जय दीक्षा कल्याण।।3।। ऊँ ह्रीं आषाढकृष्णदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। मगसिर सुदी एकादशमी को, कर्म घातिया नाश किया। समवसरण में भव्यों के हित, प्रभुवर ने उपदेश दिया।। मैंने भी सत्पथ पहिचाना, आतम का उद्धार किया। परम ज्ञान कल्याण महोत्सव, आरति करके नमन किया।।4।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लएकादश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। 162 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाख वदी चैदस को धारा, प्रभु ने प्रतिमा योग महान । अंतिम शुक्लध्यान के द्वारा, पद पाया अनुपम निर्वाण ।। कूट मित्राधर से जिनवर ने, मुक्तिरमा से मैत्री की। इसीलिए सम्मेदाचल में, भव्य जनों ने यात्रा की ।।5।। ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य 'ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः। जयमाला दोहा वंदनीय प्रभु आप हैं, नमिनाथ मुनीनाथ । गुण मुक्ता जयमाल है, आत्मसिद्धि के काज ॥1॥ पद्धरि छंद जय-जय श्री नमिनाथ आप देव हैं महान। त्रय ज्ञान धार जन्म लिया है दया निधान । इक्कीसवें तीर्थेश प्रभु आपको नमन। मुझको भी करो पार प्रभु नाशिये करम || 2 || जाति स्मरण हुआ प्रभु वैराग्य हो गया। तन से ममत्व छोड़ केशलोंच भी किया ।। श्री दत्तराज नृप ने आहार दे दिया। पय धार देके पाप का संहार कर लिया || 3 | प्रभु शिष्य न धरे न चातुर्मास ही करे । छद्मस्थ दश मौन में विहार जो करे || जब घातिया को घात प्रभु केवली हुये। नव लब्धियों को पाय ज्ञान के रवि हुये || 4 || 163 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धरती पे ना चले अधर में ही गमन किया। प्रभु भव्य के उद्धार को विहार है किया। प्रभु आपके सर्वांग से जो देशना खिरी। गणधर कृपा हुई हमें जिनवाणी हैं मिली||5|| आतम स्वरूप शुद्ध है निश्चय स्वयप से। वसु कर्म मल मलीन है व्यवहार रूप से।। प्रभु आपने ही वस्तु तत्त्व ज्ञान कराया। प्रभु आपने ही मोक्षये पंथ बताया ॥6॥ प्रभु सर्वं कर्म नाश मुक्तिधाम पा लिया। इंद्र ने भी हर्ष से उत्सव मना लिया। अग्नि देव ने संस्कार रचाया। भक्ति से भस्म को तभी मस्तक पे लगाया ॥ 7 ॥ प्रभु नील कमल चिह्नित है चरण आपके। मैं कर्म मल को धो सकूँ तब दर्श को पाके नमिनाथ तीर्थनाथ का मैं वंदन करूँ । शीघ्र मोक्ष को वरूँ मैं बंध ना करूँ ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्री नमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री नमिनाथ जिन स्वामी, हो जगनामी, भव-भव का संताप हरो । पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो। निज ॥ इत्याशीर्वादः ॥ 164 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथ जिन पूजन स्थापना नरेन्द्र छंद आयेंगे प्रभु नेमिनाथ जी, ऐसा मन यह कहता। देव दुंदुभी बजा रहे हैं, ऐसा मुझको लगता।। मंद सुगंध बयारें चलती, यह संदेशा देती। गगन मार्ग से प्रभो आ रहे, श्रद्धा इंगित करती।।1।। मन मंदिर में दीप जलाया, प्रभु आपके स्वागत में। पलक पावड़े बिछा रखे हैं, प्रभु आपके आने में।। नेमिनाथ जिन आप ज्ञान में, नहीं किसी को लाते। किंतु भक्ति वश भक्तों के मन, प्रभुवर आप समाते।।2।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। __ ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण नरेन्द्र छंद जन्म मरण से पीडित होकर, निज आतम तड़पाया। तत्त्वज्ञान से प्यास बुझाने, नाथ शरण में आया। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। जन्म जरा मृत्यु से सवमी, मुझको आज छुड़ाना॥1॥ ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहंकार से दग्ध हुआ हूँ, अंतर में ही जलता। कृपा दृष्टि जब हुई प्रभु की, उसी कृपा पर पलता।। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। भवाताप में झुलस रहा हूँ, मुझको आन बचाना।।2।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। उज्ज्वल धवल भवन के वासी, धवल आपका जीवन। नश्वर से संबंध नहीं प्रभु, रहते हो निज उपावन। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। अक्षय पद का पथ नहीं जाना, मुझको नाथ बताना।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। भक्ति भाव के पुष्प मनोहर, श्री चरणों में अर्पित। इंद्रिय मन की विषय वासना, प्रभुवर आज विसर्जित।। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। संयम से सुरभित हो जीवन, निज का दर्श दिखाना।।4।। ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। क्षुधा रोग को दूर करो प्रभु, यही हृदय को भया। करुणा सागर सरल स्वभावी, वैद्य समझकर आया।। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। समता रस का पान कराकर, क्षुधा व्याधि को हरना।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 166 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु भक्ति से भेदज्ञान का, अंतर दीप जलाऊँ। निज को निज पर को पर जानें, ज्ञान कला प्रगटाऊँ। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। ज्ञानमहल में घना अँधेरा, केवल ज्याति जगाना।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। मोह बली के कारण जग में, छाया घोर अँधेरा। किंतु आपने मोह बली को, निज शक्ति से घेरा।। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। कर्मों की आँधी से स्वामी, मुझको आप बचाना।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु आपकी भक्ति तरु पर, शाश्वत शिवफल फलता। पंच परावर्तन मिटता है, स्वतंत्रता को पाता। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। कर्म फलों का सर्व नाशकर, जीवन सफल बनाना।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। कर्म शक्ति को क्षय करने प्रभु, चरण शरण में आया। ध्रुव अनर्घपद पाने का अब, अपूर्व अवसर आया।। नेमिनाथ तीर्थंकर स्वामी, चेतन गृह में आना। एक अकेला भटक रहा हूँ, शिवपथ मुझको दिखाना।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 167 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक भक्ति बेकार है, आनंद अपार है... खुशियाँ अपरंपार हैं, आनंद अपार है। देखो आज शौरीपुर में हो रही जय-जयकार है।। कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन, शिवादेवी उर आये जी। अपराजित विमान से आये, सुर नर मंगल गाये जी।। जग का तारण हार है, गर्भ कल्याणक सार है। देखो आज शौरीपुर में हो रही जय-जयकार है।।1।। ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठ्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन, शौरी में जनमे जी। समुद्र विजय नृप के आँगन में, देव नृत्य कर हरषे जी।। जन्म कल्याणक सार है, अभिषेक की धार है। देखो आज पांडु शिला पे हो रही जय-जयकार है।।2।। ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठयां जन्ममंगलमंडिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। पशु बंधन को देख प्रभु जी, करुणा उर में आई जी। राजमति तज वन में जाकर, जिन दीक्षा को पाई जी।। तप कल्याणक सार है, दीक्षा से भवपार है। देखो सहस्र आम्र वन में, हो रही जय-जयकार है।। यह तिथि महा सुखकार है, मेरा भी उद्धार है। देखो सहस्र आम्र वन में हो रही जय-जयकार है।।3।। ऊँ ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठयां तपोमंगलमंडिताय श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 168 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्विन शुक्ला एकम् को, प्रभु केवलज्ञान उपाया जी। ऊर्जयंत पर समवसरण में, दर्शन कर सुख पाया जी।। ज्ञान कल्यशणक सार है, शिवनगरी का द्वार है। देखो प्रभ के समवसरण में हो रही जय-जयकार है।।4।। ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लप्रतिपदायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा। आषाढ़ सुदी सप्तम को स्वामी, वसु विध कर्म नशाया जी। श्री गिरनार उच्च पर्वत से, मोक्ष महा पद पाया जी।। मोक्ष कल्याणक सार है, सर्व कर्म की हार है। देखो श्री गिरनार गिरि पर देव करें जयकार हैं।।5।। ऊँ ह्रीं आषाढ़शुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य ॐ ह्रीं अहँ श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय नपमो नमः।' जयमाला त्रिभंगी छंद त्रिभुवन के नायक, आतम ज्ञायक, प्रभु चितक में खो जाऊँ। अघ्यों से वंदन, नायूँ बंधन, मोक्षपुरी में बस जाऊँ।।1।। हम शीश नवाये, प्रभु गुणगाये, हे नेमीश्वर विपद हरो। शुभ आश लगाये, आनंद पाये, हमको निज पद माहिं धरो।।2।। ज्ञानोदय छंद जय जय नेमिनाथ तीर्थंकर, बालब्रह्मचारी भगवान। हे तीर्थेश परम उपकारी, करुणासागर दया निधान।।3।। नृप समुद्र के सुत हो प्यारे, शिवा देवी माँ के नंदन। 169 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शौरीपुर में आनंद छाया, धरा हो गई ज्यों चंदन।।4।। बचपन से ही प्रभु आपने, अणुव्रत सा आचरण किया। बाल क्रियायें देख देखकर, यादव कुल में हर्ष हुआ।।5।। नारायण श्री कृष्ण देव ने, प्रभु का नाता जोड़ दिया। राजुल से परिणय करने को, जूनागढ़ रथ मोड़ दिया।6।। ___ जीवों की सुन करुण पुकारें, प्रभु के उर वैराग्य हुआ। पशु बंधन को मुक्त किया कंगन तोड़ा निज भान हुआ।।7।। राजुल ने तब देख लिया स्वामी ने रथ क्यों मोड़ लिया। मुझसे आतम प्रीत तोड़ मुक्ति से नाता जोड़ लिया।।8। धिक् धिक् है संसार यहाँ औ, विषयभोग को है धिक्कार। इंद्रिय सुख की ज्वाला में ही, धू धू कर जलता संसार।।9।। जेग की नश्वरता का प्रभु ने, किया चिंतवन बारंबार।। वस्त्राभूषण त्याग दिये औ, दूर किये है सभी विकार।।10। मोह शत्रु को नाश किया औ, पहुँच गये स्वामी गिरनार। भवसागर के आप किनारे, भवि जीवों के हैं आधार।।11।। इंद्रिय सुख के कारण मैंने, नाथ आज तक पूजा की। आत्म स्वरूप लखा नहीं मैंने, भव सागर की वृद्धि की।।12।। माना आप नहीं पर कर्ता, आत्म तत्व के ज्ञाता हो। भक्तों को कुछ ना देते निज सम भगवान बनाते हो।।13।। सर्वदर्शी हैं आप किंतु नहीं तुमको देख सके कोई। ज्ञात हो हम सब ही के नहीं जान सके तुमको कोई।।14।। वंदनीय है स्वयं आप पर को नहीं वंदन करें मुनीश। ऐसे त्रिभुवन तीर्थनाथ को कर प्रणाम धरकर पद शीश।।15।। 170 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोहा मंगल उत्तम शरण हैं, नेमिनाथ भगवान। भाव ‘पूर्ण' प्रभु भक्ति से, होता दुख अवसान।।16।। ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता श्री नेमि जिनेश्वर, दया अधीश्वर, भव-भव का संताप हरो। नित पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' हरो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ जिन पूजन स्थापना नरेन्द्र छंद हे पार्श्वनाथ आनंदधाम प्रभु, आज वंदना करते। बाल ब्रह्मचारी जगतारी, नाथ अर्चना करते।। तीन लोक में ढोल बजाकर, देव दंभी गाते। मोही जन को जगा जगाकर, शुभ संदेशा लाते।। आज मेरे उर आँगन में प्रभु, उत्सव जैसा लगता। त्रिभुवन के स्वामी आयेंगे, निश्चित ही मन कहता है।। इसीलिए सम्यक् रत्नों के, मैंने चौक पराये। श्रद्धा गृह के प्रमुख द्वार पर, तोरण हार सजाये। प्रभु प्रतीक्षा में रत्नों के, जगमग दीप जलाये। पद प्रक्षालन हेतु स्वर्ण के, थाल यहाँ ले आये। दोहा आओ पारसनाथ जी, आओ आओ नाथ। हृदयांगन सूना पड़ा, द्वार खड़ा नत माथ।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। __ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र !अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र !अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। 172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यार्पण गीता छंद क्षेरोदधि सम क्षीर जल मैं, ला नहीं सकता प्रभो। हे क्षीरसागर नाथ तुम हो, क्षारसागर मैं प्रभो।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, जन्म रोग नशाइये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।1।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। भवताप से मैं जल रहा हूँ, और जलता जा रहा। क्या हो गया मुझको स्वयं को, और छलता जा रहा।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, भवाताप नशाइये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। सब नाशवान पदार्थ को मैं, स्थिन बनाना चाहता। शाश्वत अनुपम तत्त्व हूँ मैं, शब्द से ही जानता।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, दान अक्षय दीजिये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। भोगे अनेकों भोग फिर भी, चाह यह जाती नहीं। यह वासना की आग जिनवर, अब सही जाती नहीं। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, ब्रह्म पदवी दीजिये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।4।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। 173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीता अनंता काल फिर भी, कर्म धारा बह रही। औ ज्ञान धारा को प्रभुवर, जानता ही मैं नहीं। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, ज्ञान धारा बहाइये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।5।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। दीपक जले सूरज उगे पर, माह तम मिटता नहीं। बाहर उजाला तेज भीतर में उजाला है नहीं।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मुझमें, ज्ञान दीप जलाइये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। भव राग से रागी हुआ मैं, द्वेष से द्वेषी हुआ। पर आप सा सान्निध्य पाकर, क्यों नहीं ज्ञानी हुआ।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, अष्ट कर्म निवारिये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।7।। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। प्रभु बीज कर्मों का जला दो, उग नहीं सकता कभी। मेरा मिलन मुझसे करा दो, फिर न आना हो कभी। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मेरे, मिष्ट शिवफल दीजिये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये।।8। ऊँ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। 174 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निज आत्म वैभव खो चुका हूँ, क्या चढ़ाऊँ अर्घ्य मैं। प्रभु आपका ही हो चुका हूँ, आ गया हूँ शर्ण में ।। श्री पार्श्वनाथ जिनेश मुझको, लीजिए अपनाइये। आवागमन से हूँ व्यथित, उद्धार मेरा कीजिये||9|| ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। पंचकल्याणक सखी छंद वैशाख कृष्ण दिन पावन, द्वितीया तिथि है मन भावन। गर्भस्थबाल जिन आभा, से हुई नगर में शोभा। पितु अश्वसेन हर्षित हे, सारा परिवार मुदित है। प्रभु प्राणत स्वर्ग विहाये, छप्पन देवी गुण गाय॥1॥ ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णद्वितीयायां गर्भमंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। वदी पौष ग्यारसी आई, शुभ जन्म लिया जिनराई। ऐरावत गज ले आये, निज गोद इंद्र बैठाये || प्रभु बनकर आये सूरज, जग तरसे पाने पद रज। वाराणसी नगरी प्यारी, प्रभु जन-जनके मन हारी || 2 | ऊँ ह्रीं पौषकृष्णएकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जन्मोत्सव खुशियाँ छाई, तब जाति स्मृति हो आई। वैराग्य सहज मन भाया, लौकांतिक ने गुण गाया।। विमलाभ पालकी चढ़के, अश्वत्थ वनी सुर पहुँचे। जिन दीक्षा है सुखकारी, भवि जीवों को हितकारी ॥3॥ ऊँ ह्रीं पौषकृष्ण एकादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अग्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। 175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब कमठ क्रोध बरसाये, प्रभु समता नीर बहाये। सब विनाश गई शठ माया, कर जोड़ शरण वह आया ।। प्रभु तन मन हुआ नगन है, शिव वधू की लगी लगन है। वदी चैत्र चतुर्थी आई, प्रीभु ज्ञान ज्योति प्रगटाई || 4 ॥ ऊँ ह्रीं चैत्रकृष्णचतुथ्र्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। श्रावण शुक्ला दिन आया, शुभ मुकुट सप्तमी भाया। स्वर्णाभद्र कूट प्रभु आये, अष्टम वसुधा को पाये।। छत्तीस संग मुनिराया, शिव गये सिद्ध पद पाया। बोलो पार्श्वप्रभु की जय-जय, सम्मेदशिखर की जय-जय ॥ 5॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य पार्श्व ॐ ह्रीं अर्हं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमो नमः । ' जयमाला - दोहा कामधेनु चिंतामणी, हे पारस भगवान । कल्पवृक्ष से भी अधिक, पारसनाथ महान।।1।। पार्श्वनाथ वंदँ सदा, चिदानंद छलकाय । ܬ चरण शरण हूँ आपकी, सहज मुक्ति प्रगटाय॥2॥ ज्ञानोदय छंद परम श्रेष्ठी पावन परमेष्ठी, पार्श्वनाथ को वंदन है। माता वामा देवी के सुत, अश्वसेन के नंदन हैं। कर्मजयी हो कामजयी उपसर्ग विजेता कहलाये । परम पूज्य परमेश्वर हो शिवमार्ग विधाता बन आये ॥3॥ 176 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर बनारस है अति सुंदर, अश्वसेन नृप परम उदार। तीर्थंकर बालक को पाकर, भू पर हर्ष अपार।। देव कल्याणक मना रहे पर, निज में आप समाये थे। भोगों को स्वीकार किया ना, कामबली भी हारे थे।।4।। अल्प आयु में पंच महाव्रत, धरे स्वयंभू दीक्षा ली। चार मास छद्मस्थ मौन रह, आतम निधि को प्रगटा ली।। तभी कमठ ने पूर्व वैर वश, पूर्व भवों का स्मरणकिया। आँधी तूफाँ झंझाओं से, प्रभो आपको कष्ट दिया।।5।। घोर उपद्रव जल अग्नि से, महा विघ्न करने आया। जल से भर आई धरती पर, किञ्चित् नहीं डिगा पाया।। आत्म गुफा में लीन रहे प्रभु, तन उपसर्ग सहे भारी। इसीलिए भू पर गूंजी जय, पारस प्रभु अशियकारी।।6।। वैर किया नौभव तक भारी, आखिर माया विनश गयी। ध्यान सूर्य की किरणों से शठ, कमठ अमा भी हार गयी।। प्रभो आपने तन चेतन का, भेद ज्ञान जो पाया हैं। इसीलिए शठ की माया को, पल भर में विनाशाया है।।7।। पूर्व जन्म के उपकारी को, कृतज्ञ होकर जान लिया। पद्मावती ओर धर इन्द्र ने, आ विघ्नों को दूर किया।। साम्य भाव धर प्रभु आपनपे, कमों पर जय पाई है। इसीलिए श्री पार्श्व प्रभु की, अतिशय महिमा गाई है।।8। क्रोध अग्नि में जलते हैं जो, भव-भव में दुख पाते हैं। वैर निरंतर जो रखते हैं, निज को ही तड़फाते हैं।। भेद ज्ञान कर निज आतम के, आश्रय में जो आते हैं। सर्व कर्म का क्षय करके वे, शिवरमणी को पाते हैं।।9।। हे जिनवर उपदेश आपका, श्रवण करूँ आचरण करूँ। क्षमा भाव की महा शक्ति से क्रोध शत्रु को नष्ट करूँ।। 177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग आपने जो बतलाया, मेरे मन को भया है। मुझको भी भव पार करो, यह भक्त शरण में आया है।।10। श्री सम्मेदाचल से स्वामी, मोक्ष महापद है पाया। चरण चिह्न का दर्शन करके, शिवपद पाने मैं आया।। पार्श्व तीर्थंकर सर्व प्रियंकर, श्री चरणों में सिरनाया। दिव्य शक्ति को संचित करने, आप शरण में हूँ आया।।11। दोहा परं ज्योति परमातमा, पार्श्वनाथ जिनराज। वंदौ परमानंद मय, आत्मशुद्धि के काज।।12।। ऊँ ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता जय-जय तीर्थंकर, पार्श्वनाथ जिनेश्वर, भव-भव का संताप हरो। नित पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' हरो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 178 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर जिन पूजन स्थापना नरेन्द्र छंद महावीर प्रभु दर्श दिखाना, दर्शन करने आया। हृदय विराजो अतिवीर प्रभो, पूजनकरने आया।। चरण शरण में अरजी लाया, निज सम मुझे बनाना। प्रभु कृपा कर कष्ट मिटाकर, सरे बंध छुड़ाना ॥ 1 ॥ शक्ति नहीं है मुझमें भगवन्, अनंत शक्ती देना। तव गुणगण जान सकूँ प्रभु, इतनी भक्ती देना।। शत्रु नाश प्रभु नाम आपका ध्याऊँ। ज्ञान वेदी पर वीर प्रभु को, सविनय आज बिठाऊँ ||2|| ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। द्रव्यार्पण तर्ज -माता तू दया करके.... श्रद्धा की वापी से, भक्ति जल भर लाय। समकित कलश लेकर, प्रभु चरण शरण आया।। आनंद रस छलका दो, जग दाह मिटे स्वामी । प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी ॥1॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। 179 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदन से अति शीतल, प्रभु की पद रज धूलि। नहीं चरणन स्पर्श किये, यह भारी भूल हुई।। प्रभु शांति जल देना, भवताप मिटे स्वामी। प्रभु वीर दरशदेना, शरणा दो अभिरामी।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। क्षणभुगर वैभव है, भव का वर्द्धन करता। मैं राग किया करता, प्रतिपल उलझा रहता।। प्रभु अक्ष अगोचर हो, अक्षय पद दो स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।3।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। जग मान सरोवर में, शत दल सुरभित होता। रस में फँसकर मधुकर, नित प्राण गँवा देता।। प्रभु पद पंकज अलि बन, गुण गान करूँ स्वामी। प्रभु वीर दरशदेना, शरणा दो अभिरामी।।4।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। इस कर्म असाता ने, चिरकाल सताया है। जितना उपचार किया, तृष्णा को बढ़ाया है।। निज दोष समझ आया, यह व्याधि हरो स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।5।। ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। 180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे चेतन गृह में घनघोर अँधेरा है। नहीं सूझ रहा आतम, मिथ्यातम घेरा है।। रत्नत्रय दीपजला, निज ज्ञान जगे स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। उपयोग भटकता है, कैसे निज में लाऊँ। औरों को समझाऊँ, पर खुद न समझ पाऊः।। प्रभु ध्यान धूप पाकर, सब कर्म नशें स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।7। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा कर्मों के फल खाकर, बेहोश हुआ जग में। जब से प्रभु दर्श किया, निज दर्श हुआ निज में।। चऊ गति के भ्रमण मिटा, शिव फल पाऊँ स्वामी। - प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। पर को देखा मैंने, निज को ही ना परखा। अब सुख अनंत पाने, संबंध तनँ पर का।। ज्ञायक पद पा जाऊँ, होशक्ति प्रगट स्वामी। प्रभु वीर दरश देना, शरणा दो अभिरामी।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 181 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचकल्याणक तर्ज -बाजे कुंडलपुर में बधाई.... आषाढ़ सुदी छठ आई, कि स्वर्ग से जिन आये महावीर जी। माँ प्रियकारिणी हर्षाई, कि गर्भ में प्रभु आयेमहावीर जी।। हैं चौबीसवें तीर्थंकर, कि सुर नर गुण गाये महावीर जी। माँ ने सोलह सपने देखे, कि त्रिपावन के नाथ पाये महावीर जी।। बजे कुण्डलपुर में बधाई, कि गर्भ में वीर आये महावीर जी।।1।। ऊँ ह्रीं आषाढ़शुक्लषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। धन्य घड़ी जन्म की आई, कि ज्ञान धन बरसाये महावीर जी। तिहुँ लोक में आनंद छाया, कि सुख की बाहर लाये महावीर जी।। अभिषेक करे मेरु पर, कि क्षीर जल भर लाये महावीर जी। हम जन्म कल्याणक मनाये, कि चैतसुदी तेरसआये महावीर जी।। बजे कुण्डलपुर में बधाई, कि अंगना में वीर आये महवीर जी॥2॥ ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा। मगसिर वदी दशमी आई, प्रभु वैराग्य हुआ महावीरा जी। चंद्राभा पालकी लेकर, सुरपति वन आ गये महावीर जी।। प्रभु !सिद्ध नमः कहते ही, जिन दीक्षा धारी जमहावीर जी। हो गए स्वयंभू स्वामी, परम जग उपकारी महावीर जी।। बाजे आतम में शहनाई, कि निज गृह वीर आये महावीर जी।3।। ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा 182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋजुकूल सरित तट तिष्ठे, वैशाख सुदि दशमी है महावीर जी। प्रभु शुक्ल ध्यान के धारी, घाति चउ नाश किये हैं महावीर जी।। हुई समवसरण शुभ रचना, भविक जन हितकारी महावीर जी। बिन इच्छा ध्वनि खिरी है, कि प्रभु की अमृतवाणी महावीर जी।। बाजे समवशरण शहनाई, कि गगन में वीर आये महावीर जी॥4॥ ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अत्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। जब कार्तिक अमावस आई, कि दीपावली आई महावीर जी। घड़ी स्वाति नखत की आई, कि प्रभु मुक्ति पाई महावीर जी।। प्रभु पूर्ण परम पद पाये, कि अष्टम भू पाये महावीर जी। सब जयबोले धरती पर, कब निर्वाण पाये, महावीर जी।। बाजे आत्म नगर शहनाई, कि वीर प्रभु मोख पाये महावीर जी॥5॥ ऊँ ह्रीं कार्तिककृष्णाअमावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीमहावीरजिनेन्द्राय अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा। जाप्य 'ॐ ह्रीं अर्हं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय नमो नमः।' जयमाला दोहा बाल ब्रह्मचारी प्रभु, महावीर जिननाथ । गुण वर्णन कैसे कहूँ, अतः धरूँ पद माथ।।1॥ 183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तर्ज -स्रग्विणी छंद जय महावीर अतिवीर पद को न। सन्मति नाथदाता सुवीर न। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।2।। वर्द्धमानेश सिद्धार्थ सुत को नमूं। मात त्रिशला के नंदन को मन से नमूं। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।3।। है पुरुरवासे जीवन कहानी शुरू। भव धरे अनगिनत कैसे गिनती करूँ।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।4।। पुण्योदय से भरत सुत मारीचि हुये। भाव मिथ्यात्व के वश भटकते रहे। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हँ शरण दीजिये आसरा।।5।। बनबये अर्ध चक्री त्रिपृष्ठ पती। भवारमण ही किया नहीं सुधरी मति।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥6॥ भाव अज्ञान में कर्म बंधन किया। चार गति में रुला क्रूर सिंह बन गया।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।7।। पुण्यसे ऋद्धि चारण मुनि मिलगये। देशना पाके अश्रु नयन भर गये।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। 184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा ॥8॥ मिथ्यातम हट कया दीप सम्यक् जला। श्री गुरु की शरण से ही बंधन टला।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥9॥ फिर प्रथम स्वर्ग में सिंहकेतु हुये । देव फिर विद्याधर से मुनिव्रत लिये || वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा ॥10॥ स्वर्ग सप्तम से राजा हरिषेण हुये। फिर महाशुक्र से राजपुत्र हुये ।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥11॥ स्वर्ग द्वादश गये नंद राजा हुये। दीक्षा लेकर तीर्थंकर की सत्ता लिये || वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥12॥ सोलवें स्वर्ग से माँ को सपने दिये । माता त्रिशला के नैन सितारे हुये ।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा ॥13॥ धन की वृद्धि से श्री वर्द्धमान हुये। मेरु पर्वत दबाया तो वीर हुये ।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा ॥14॥ मुनि संजय विजय मन में शंकित हुये। देखकरबाल जिन को निःशंकित हुये ।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा । आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥15॥ 185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति नाम तत्क्षण रखा मनिवरा। दृष्टि सम्रयक् करो हे मेरे महावीरा।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।16।। देव संगम परीक्षा को विषधरा बना। उसके फण पर चढ़े नाथ ताली बजा।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥17॥ धन्य हो वीर स्वामी चरण में नमा। दास हूँ आपका मुझको कर दो क्षमा।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।18।। एक हाथी मदोन्मत अवश हो रहा। वीर को देखकर शांत ही हो गया।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥19॥ तब अतिवीर कहने लगे जन सभी। पाँचही नाम सार्थक किये नाथजी।। ___ वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥20॥ तीस ही वर्ष में तप धरा आपने। रुद्र का विघ्न जिनवर सहा आपने।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥21।। वर्ष बारह प्रभु मौन की साधना। घातिया नष्ट हो ज्ञान केवल घना।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।22।। दिन छयासठ हुए देशना नाखिरे। 186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये गौतम प्रभु पद में शीश धरे।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।23।। प्रभु वाणी खिरी जैसे फुलवा झरें। भव्य जीवों के जिनवाणी कल्मष हरे।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।24।। तीस ही वर्ष प्रभु ने विहार किया। आये पावापुरी योग रोध किया।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।25।। कर्म संपूर्ण को नाश कर सुख लिया। मुक्तिकांता वरी लक्ष्य को पा लिया।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।26।। है परम पूज्य पावापुरी की धरा। नाथ निर्वाण पाया है पुण्य धरा।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥27॥ दीप माला हुई ज्ञानज्योति जली। जैसे जन्मांध को रोशनी है मिली।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा॥28॥ सारे जग में दीपाली मनाई गई। मोक्षलक्ष्मी मिले भावना की गई।। वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हूँ शरण दीजिये आसरा।।29।। आत्म गुण हेतु हे नाथ पूजा करूँ। एक भव में ही मैं नाथ मुक्ति वरूँ।। 187 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदना मैं करूँ वीर तीर्थंकरा। आ गया हँ शरण दीजिये आसरा॥30॥ ऊँ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता अंतिम तीर्थेशा, वीर जिनेशा, भव-भव का संताप हरो। नित पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' हो।। // इत्याशीर्वादः॥ 188