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नगर बनारस है अति सुंदर, अश्वसेन नृप परम उदार।
तीर्थंकर बालक को पाकर, भू पर हर्ष अपार।। देव कल्याणक मना रहे पर, निज में आप समाये थे। भोगों को स्वीकार किया ना, कामबली भी हारे थे।।4।।
अल्प आयु में पंच महाव्रत, धरे स्वयंभू दीक्षा ली। चार मास छद्मस्थ मौन रह, आतम निधि को प्रगटा ली।। तभी कमठ ने पूर्व वैर वश, पूर्व भवों का स्मरणकिया। आँधी तूफाँ झंझाओं से, प्रभो आपको कष्ट दिया।।5।। घोर उपद्रव जल अग्नि से, महा विघ्न करने आया। जल से भर आई धरती पर, किञ्चित् नहीं डिगा पाया।।
आत्म गुफा में लीन रहे प्रभु, तन उपसर्ग सहे भारी। इसीलिए भू पर गूंजी जय, पारस प्रभु अशियकारी।।6।।
वैर किया नौभव तक भारी, आखिर माया विनश गयी। ध्यान सूर्य की किरणों से शठ, कमठ अमा भी हार गयी।।
प्रभो आपने तन चेतन का, भेद ज्ञान जो पाया हैं। इसीलिए शठ की माया को, पल भर में विनाशाया है।।7।।
पूर्व जन्म के उपकारी को, कृतज्ञ होकर जान लिया। पद्मावती ओर धर इन्द्र ने, आ विघ्नों को दूर किया।।
साम्य भाव धर प्रभु आपनपे, कमों पर जय पाई है। इसीलिए श्री पार्श्व प्रभु की, अतिशय महिमा गाई है।।8। क्रोध अग्नि में जलते हैं जो, भव-भव में दुख पाते हैं।
वैर निरंतर जो रखते हैं, निज को ही तड़फाते हैं।। भेद ज्ञान कर निज आतम के, आश्रय में जो आते हैं। सर्व कर्म का क्षय करके वे, शिवरमणी को पाते हैं।।9।। हे जिनवर उपदेश आपका, श्रवण करूँ आचरण करूँ। क्षमा भाव की महा शक्ति से क्रोध शत्रु को नष्ट करूँ।।
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