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वैशाख वदी चैदस को धारा, प्रभु ने प्रतिमा योग महान । अंतिम शुक्लध्यान के द्वारा, पद पाया अनुपम निर्वाण ।।
कूट मित्राधर से जिनवर ने, मुक्तिरमा से मैत्री की। इसीलिए सम्मेदाचल में, भव्य जनों ने यात्रा की ।।5।।
ऊँ ह्रीं वैशाखकृष्णचतुर्दश्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य
'ॐ ह्रीं अर्हं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय नमो नमः।
जयमाला
दोहा
वंदनीय प्रभु आप हैं, नमिनाथ मुनीनाथ । गुण मुक्ता जयमाल है, आत्मसिद्धि के काज ॥1॥
पद्धरि छंद
जय-जय श्री नमिनाथ आप देव हैं महान। त्रय ज्ञान धार जन्म लिया है दया निधान ।
इक्कीसवें तीर्थेश प्रभु आपको नमन। मुझको भी करो पार प्रभु नाशिये करम || 2 ||
जाति स्मरण हुआ प्रभु वैराग्य हो गया। तन से ममत्व छोड़ केशलोंच भी किया ।। श्री दत्तराज नृप ने आहार दे दिया। पय धार देके पाप का संहार कर लिया || 3 | प्रभु शिष्य न धरे न चातुर्मास ही करे । छद्मस्थ दश मौन में विहार जो करे || जब घातिया को घात प्रभु केवली हुये। नव लब्धियों को पाय ज्ञान के रवि हुये || 4 ||
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