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जयमाला
ज्ञानोदय छंद मंगलमय श्री सुविधि जिनेश्वर, मंगलमय प्रभु की वाणी।
दुखी देख जग सर्व अंग से, खिरी प्रभु अंतर्वाणी।। मकर चिह्न से चिहित पद है, मिले भाग्य से मुझको आज। भव सिंधु से पार लगा दो, जिनवर अदभुत परम जहाज।।1।।
प्रभु आपने समवसरण में, दश धर्मों का ज्ञान दिया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, राग-द्वेष का पान किया।।
धर्म नीर बिन जीवन तरुवर, मिथ्यानल से जला दिया। मोक्ष तत्त्व का अर्थ न समझा, नंत काल यों बिता दिया।।2।।
पुण्योदय से आज प्रभु मैं, समवसरण में आया हूँ। दिव्यध्वनि से दश धर्मो का, अमृत पीने आया हूँ।। जहाँ क्षमा है वहाँ धर्म है, स्व-पर दया का मूल महान। क्रोध कषाय नरक ले जाती, सब दुःखों की यही प्रधान।।3।।
मान कषाय सदा दुख देती, मार्दव मोक्ष नगर का द्वार। स्रल भाव सिद्धों का साथी, उत्तम आर्जव है सुखकार।। लोभ कषाय नाश कर देती, शौच धर्म करता कल्याण। सत्य धर्म मय जो हो जाता, निश्चित पाता है निर्वाण।।4।।
धन्य-धन्य संयम की महिमा, तीर्थंकर भी अपनाते। उत्तम तप जो धारण करते, निश्चित शिव पदवी पाते।।
अहो दान की महिमा न्यारी, तीर्थंकर भी लें आहार। उत्तम त्याग धर्म की जय हो, स्वर्ग मोक्ष का है दातार।।5।। सर्व परिग्रह त्याग आकिंचन, सिद्ध स्व पद का दाता है।
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