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कर्म सदा मेरी बुद्धि को भ्रष्ट करें।
धूप चढ़ाऊँ आज सारे कर्म जरें।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शनर मैं करूँ।
पूजन करके वसु कर्म को नष्ट करूँ।।7। ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
इंद्रिय सुख के फल हेतु मैं व्याकुल हूँ। प्रभु दर्श पा, शिव फल पाने आकुल हूँ। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शन मैं करूँ।
पूजन करकेमोक्ष महापद मैं वरूँ॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अर्घ्य अर्पण कर निज गुण में लीन रहूँ। जिन समान ही शीघ्र नाथ अरिहंत बनूँ।। मल्लिनाथ जिनवर के दर्शनर मैं करूँ।
पूजन करके मुक्तिवध् को मैं वरूँ॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीमल्लिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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