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जयमाला
तर्ज -अहो जगत गुरु...... सौम्य मूर्ति जिन आप, त्रिभुवन के हो स्वामी।
कल्पतरु है चिह्न मुक्ति दो शिवधामी। जय-जय शीतलनाथ, जय-जय श्री भगवंता। दशम् तीर्थंकर आप, नमते मुनिगण संता।।1।।
पंच महाव्रत धार, नाथ हुए वैरागी। पुनर्वसु नृपराज, दे आहार बड़भागी।। प्रभु कर में पयधार, दे भव सेतु बनाया। तीन वर्ष छद्मस्थ, मौन में समरस पाया।।2।। आर्त रौद्र दो ध्यान, भव-भव में दुखकारी। धर्म शुक्ल प्रशस्त, मुक्ति के अधिकारी।
चार घातिया नष्ट, त्रेसठ प्रकृति नाशी। जीत अठारह दोष, निज चेतन गृहवासी।।3।। स्मवसरण में नाथ, शीतल की बलिहारी। सब प्राणी तज वैर, मन में समताधारी।।
इक्यासी गणधर, प्रमुख थे कुंथु ज्ञानी। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ, धरणा गुण की खानी।।4।।
चतुर्निकायी देव, प्रभु की महिमा गाये। मुनिगण भक्ति समेत बार-बार सिर नायें।।
प्रभुवर आपके गुण, पार न कोई पावे। नाम मात्र से नाथ, भव सिंधु तिर जावे।।5।।
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