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जान नहीं पाते अक्षर से, अक्ष अगोचर जिनवर हैं।
ज्ञान परोक्ष प्रभु जी मेरा, ध्याऊँ कैसे जिनवर मैं।। आत्म शक्ति के द्वारा फिर भी, जिन पद का सम्मान करूँ।
इंद्रिय सुख क्षणभंगुर सारा, शाश्वत सुख का पान करूँ ॥3॥ ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
तन की ही परिणति को मैंने, अब तक माना धर्म प्रभो।
शुद्धातम के भाव न जागे, बना रहा अनजान प्रभो।। गुण अनंत मय पुष्प खिले हैं, हे जिनवर तव उपवन में।
कभी नही मुरझाने वाले, महके ज्ञान सरोवर में।।4।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधा तृषा से रहित जिनेश्वर, दोष अठारह रहित रहें।
आनंद रव नैवेद्य अनुपम, पाकर निज में लीन रहें।। विषय भोग की चाह नहीं हैं, हे जिनवर मेरे मन में ।
अनाहारी विमलेश्वर प्रभु को, धारूँ मैं अपने मन में।।5।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
काल अनादि ज्ञान स्वरूपी, निजानंद को पा न सका। तत्त्व ज्ञान की अद्भुत महिमा, नहीं इसे पहचान सका।।
आत्म ज्ञान का दीप जलाकर, पूजा मेरी सफल करो।
असंख्यात आतम प्रदेश के, दीपों में प्रभु तेल भरो॥6॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दायमोहांधकारविनाशाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
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