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कर्म बंधन की कारा में कब से पड़ा। नाथ मुझको छुड़ा लो मैं दर पे खड़ा।।
आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो।
अष्टकर्मों का नाश करूँगा विभो।।7। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
यूँ ही जीवन गंवाया है निष्फल रहा। राग-द्वेष ने लूटा है उपवन महा।।
आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो।
मोक्ष लक्ष्मी का स्वामी बनूँगा विभो।।8।। ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही मोक्षलक्ष्मी के स्वामी महा। भव से तारो मुझे मैं व्यथित हँ यहाँ।।
आज भावों से पूजा करूँगा प्रभो।
अर्चना से जिनेश्वर बनूँगा विभो॥9॥ ऊँ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक
स्रग्विणी छंद भाद्र शुक्ला की षष्ठी मनोहर अति। गर्भ में आ गये तीन जग के पति।। स्वप्न को देख माँ पृथ्वी हरषा गई।
जय सुपार्श्व प्रभो देवियाँ कह रही।।1।। ॐ हीं भाद्रशुक्लषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
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