SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किंतु स्व-पर का भेद जानकर, सिंहासन आसीन हुये।। देख चमकती बिजली तत्क्षण, नष्ट हुई तो किया विचार। सारा जग क्षणभंगुर माया, वस्त्राभूषण लिये उतार।।3। तीन माह तक मौन रहे और, कठिन तपस्या की जिनवर। द्वादश तप के ही प्रभाव से, कर्म निर्जरा की प्रभुवर॥ सप्तम गुणथानक में पहुँचे, आत्म तत्त्व का करके ध्यान। चार घातिया क्षय करते ही, प्रभु ने पाया केवलज्ञान।।4।। थे तिरानवे गणधर प्रभु के, मुख्य आर्यिका वरुणा मात। श्रोता दानवीर्य आदि ने, वचन सुने होकर नत माथ।। नाथ आपने समवसरण में, सार वस्तु को बतलाया। नहीं सुनी मैंने जिनवाणी, अतः शरण में अब आया।।5।। हे चन्द्रप्रभ आप पंथ पर, चलकर जिन पद पाऊँगा। तव प्रसाद से लोक अग्र पर, सिद्धक्षेत्र को जाऊँगा।। चन्द्र चिह्न शोभित चरणों में, आज नवाऊँ अपना शीश। परम पवित्र सिद्ध पद पाऊँ, ऐसा दो मुझको आशीष ।।6।। दोहा कोटि भानु शशि से महा, जिनवर ज्योर्तिमान। चन्द्रप्रभ तीर्थेश हैं, अनंत गण की खान।।7।। ॐ हीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। घत्ता चन्द्रप्रभ स्वामी, हे शिवधामी, भव-भव का संताप हरो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो।। ॥ इत्याशीर्वादः॥ 48
SR No.009250
Book TitleJin Pujan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy