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तीन माह छद्मस्थ रहे प्रभु, निज आतम में होकर लीन। फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन, केवलज्ञान हुआ स्वाधीन।।
पूर्णज्ञान है कल्पवृक्ष सम, भविजन मनवांछित पाते।
समवसरण में सुर नर पशु आ,सम्यग्दर्शन पा जाते।।4।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
महा मोक्ष कल्याण आपका, नमूं जोड़कर हाथ प्रभो।
और नहीं कुछ मुझे चाहिये, रहूँ आपके साथ प्रभो।। फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन, ललित कूट से मुक्त हुये।
कर्म नष्ट कर सिद्धक्षेत्र में, मुक्तिरमा से युक्त हुये।।5।। ॐ हीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य
ऊँ हीं अहँ श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय नमो नमः।
जयमाला
ज्ञानोदय छंद वीतराग अरहंत प्रभु को, मन वच तन से करूँ प्रणाम। अनंत चतुष्टय के धारी हैं, करते हैं, भविजन कल्याण।।
भावों से भरकर करते हैं, आज प्रभु का हम गुणगान। चिंतामणि श्री चन्द्रप्रभ जी, करते सब कर्मों की हान।।1।।
चन्द्रपुरी के महासेन नृप, हुए यशस्वी अति गुणवान। उनकी प्रिय रानी के उर से, जन्मे तीर्थंकर भगवान।।
जन्म हुआ जब प्रभु आपका, देवों ने जयगान किया। प्रभु के तन को देख सभी ने, निज चेतन को जान लिया।।2।।
राज पाट में न्याय नीति से, यौवन में में जब लीनहुये।
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