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जयमाला
ज्ञानोदय छंद जय सुपार्श्वसप्तम तीर्थंकर, दीनानाथ कहाते हो। ळम अज्ञानी रागी-द्वेषी, तम जगनाथ कहाते हो।। स्वस्तिक चिहित पद कमलों में, करते वंदन बारम्बार। श्री स्पार्श्व जिनराज हमारे, करते हैं भविजन को पार।।1।। कहूँ नाथ क्या आज आपसे, मैं दुखिया भववासी हूँ। तेरी अनुपम करुणा का ही, नाथ हुआ अभिलाषी हूँ। आज आपकी महिमा सुनकर, आया हूँ श्री चरणों में। कृपा आपकी हो जाये तो, लीन रहूँगा चरणों में।2।।
नहीं सुनोगे मेरी अरजी, और कहाँ मैं जाऊँगा। अन्य आपसा सच्चा भगवन्, और कहाँ मैं पाऊँगा।। भटक रहा हूँ भव-वन में, सन्मार्ग मुझे अब दे देना। कौन सुनेगा जग में मेरी, नाथ मुझे अपना लेना।।3।। बहुविध उपसर्गों को सहकर, जगत पूज्य अरहंत हुये। ऊध्व मध्य औ अधोलोक से, प्रभु आप जगवंद्य हुये।। पंचानवे गणधर प्रभु के थे, मीनार्या थी प्रमुख महान। बारह कोठे में श्रोतागण, सुन वाणी करते कल्याण।।4।।
अरहंत पद पाकर प्रभु ने, सप्त तत्त्व उपदेश दिया। राग-द्वेष से भव बढ़ता है, जीवों को संदेश दिया।। श्रीसुपार्श्व जिनवर को पूनँ, नित्य उन्हीं का ध्यान करूँ। श्रागादिक का नाश करूँ मैं, मक्तिवधू अविराम वरूँ।।5।। जिसने भी तव चरण धूल को, अपने शीश चढ़ाया है।
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