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दुर्लभ नर तन पाकर प्रतिपल, कर्म फलों में अटग गया।।4। प्रभु आपने जग वैभव को, हेय जानकर ठुकराया। आत्म साधना के साधन से, परम शुद्ध पद को पाया।। भव्य जनों को समवसरण में, वस्तु तत्त्व का ज्ञान दियां है अनंत उपकार आपका, परमातम का ज्ञान दिया ॥5॥ एक शतक ग्यारह थे गणधर, उनको भी मैं नमन करूँ । साम्य भाव धर उर अंतर में, राग-द्वेष का हनन करूँ।
पद्म जिनेश्वर आप कृपा से, शरण तिहारी आया हूँ। बालक पर उपकार करो प्रभु, तुम सम बनने आया हूँ||6|
नाथ आपने भूले भटके, भव्यों को शिव द्वार दिया। सिद्धालय की आशा लेकर, मैं भी चरण शरण आया ।।
बाल सूर्य समवर्ण आपका, पøप्रभ जिनराज महान । जयमाला अर्पण करता हूँ, नर जाऊँ मैं भी निर्वाण ॥17॥ ऊँ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घत्ता
श्री पद्म जिनेशा, नमित सुरेशा, भव-भव का संताप हरो । निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण' करो ।। ॥ इत्याशीर्वादः ॥
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