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फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन, अष्ट कर्म का नाश किया।
मोहन कूट सम्मेदाचल से, सिद्धालय में वास किया।। अंतिम शुक्लध्यान धरकर जब, ऊर्ध्व लोक में किया गमन।
सादि अनंत सिद्ध पद पाया, भव्य जनों ने किया नमन।।5।। ऊँ ही फाल्गुनकृष्णचतुथ्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जाप्य
ऊँ हीं अहँ श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय नमो नमः।
जयमाला
दोहा पदम चिन्ह शोभित चरण, न| अनंतों बार। प्रभु कृपा हो भक्त पर, करें भवाम्बुधि पार।।1।।
ज्ञानोदय छंद जय-जय पद्मप्रभ जगनामी, आप सर्व जग हितकार। शरण आ गया नाथ आपकी, दुःख सह रहा अति भारी। ___ बहु आरंभ परिग्रह से प्रभु, नरक गति में जा पहुँचा। दुःख सहे अनगिनती स्वामी, वचनों से नहीं जाए कहा ।।2।।
वैतरणी में गिरा कभी तो, सेमर तरु असि धार ने। क्षुधा तृषा से व्यथित हुआ औ, शीत उष्ण के दुःख सहे।।
राग भाव से अपना माना, वो ही वैरी बने वहाँ। आर्तध्यान से मरकर स्वामी, पशु गति में जा पहुँचा।।3।। एकेन्द्रिय भी कभी बना तो, दुष्कर्मों का बोझ सहा। देव गति भी पाकर भगवन्, विषय भोग में मस्त रहा।। प्रभु पूजन भक्ति नहीं कीनी, पर परिणति में भटक गया।
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