________________
बाह्य रोशनी से बाहर में, सारा तमस मिटा डाला। चेतन गृह में मोह बढ़ाकर, मिथ्यातम से भर डाला।।
महाबली नृप मोह कर्म का, सर्वनाश करने आये।
कुंथुनाथ जिनराज शरण में, मणिमय दीपक ले आये।।6।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाषाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांगी चढ़ा चढ़ाकर, धूम्र उड़ाई नभ तल में। कर्म शक्ति को बढ़ा बढ़ाकर, भटक रहे है भव-वन में।।
तप अग्नि में कर्म काठ को नाथ जलाने हैं आये।
कुंथुनाथ जिनराज शरण में, धूप सुगंधी ले आय।।7। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्तापन से कार्य जगत में, किये बहुत दुख पाया है। फल पाने की इच्छा ने ही, आतम को तड़पाया है।। जग के फल दुखदायी तजकर, शिवफल पाने हैं आये।
कुंथुनाथ जिनराज शरण में, शुद्ध मनोहर फल लाये।।8।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
पर द्रव्यों का भोग अभी तक, किया बहत मैंने स्वामी। पर पद की अभिलाषा में ही, जीवन व्यर्थ किया स्वामी।।
जड़ वैभव को चढ़ा आज, चैतन्य विभव पाने आये।
कुंथुनाथ जिनराज शरण में, अर्घ्य बनाकर ले आये।।9।। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
136