________________
योग नाश कर चौदहवाँ शुभ, अयोग केवली थान कहा। कर्म नष्ट कर सिद्धक्षेत्र में, पहुंच गए है सिद्ध महा।।
ज्ञाता दृष्टा रहे जीव तो, राग-द्वेष मिट जाता है। स्व सन्मुख दृष्टि जो रखता, मोक्ष परम पद पाता है।।7।
समवसृति में प्रभु आपने, इस विध जो उपदेश दिया। दिव्यध्वनि सुन लगा मुझे यों, चिदानंद निज देश दिया।।
हर्ष भाव से पुलकित होकर, प्रभु मैंने की है पूजन।
पूजा का सम्यक् फल होवे, कटे हमारे भव बंधन।।8।। ॐ हीं ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
घत्ता जय जय जिनवर जी, अंनतनाथ जी, भव-भव का संताप हो। निज पूज रचाऊँ, ध्यान लगाऊँ, 'विद्यासागर पूर्ण’ करो।।
॥ इत्याशीर्वादः॥
120