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शीतल सुगंध द्रव्य लेप भी किया प्रभो। निज आत्मा का ताप भी मिटा नहीं प्रभो।।
राग ताप नाशने को आ गया शरण।
हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।2।। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
संयोग औ वियोग का ये सिलसिला रहा। उत्पन्न जो हुआ उसी का नाश भी हुआ।।
गुण अखंड पाने हेतु आ गया शरण।
हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।3। ऊँ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा।
श्रद्धा बिना ही धर्म को करता रहा प्रभो। निज ब्रह्म रूप को नहीं लखा मेरे प्रभो।।
काम बाण नाशने को आ गया शरण।
हे श्रेयनाथ दूर कीजिये जनम मरण।।4..॥ ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तृष्णा महाभयंकरी है नागिनी प्रभो। निज ज्ञान नागदमनी से बचाइये प्रभो।। तृष्णा का रोग नाशने को आ गया शरण।।
हे श्रेयनाथ दर कीजिये जनम मरण।।5..।। ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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