Book Title: Fool aur Parag
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग श्री देवेन्द्र मुनि Mandalaa Jain Education Internationa Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल * पराग श्री देवेन्द्र मुनि Jain Education Internationa Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तारक गुरु ग्रन्थमाला का ७ वाँ पुष्प फूल और पराग लेखक परम श्रद्धय पण्डित प्रवर प्रसिद्धवक्ता राजस्थान केसरी श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के सुशिष्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न प्रकाशक श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय पदराडा (उदयपुर) Jain Education Internationa Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक लेखक प्रकाशक मूल्य प्रकाशन तिथि : प्रथम बार : मुद्रक : फूल और पराग देवेन्द्र मुनि, शास्त्री श्री तारक गुरु ग्रन्थालय पदराडा, जिला उदयपुर (राजस्थान ) एक रुपया पचास पैसे १५ अगस्त १९७० बारह सौ : श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस, आगरा - २ Jain Education Internationa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अपने साहित्यप्रेमी पाठकों के कर कमलों में 'फल और पराग' कहानी संग्रह प्रदान करते हुए हमें अत्यधिक प्रसन्नता है। कहानी कला विश्व की एक महान् कला है। चाहे बालक हो, वृद्ध, या युवक वह सभी को प्रिय है धर्म, दर्शन, अध्यात्म और नीति जैसे गंभीर विषय भी कहानियों के द्वारा सरलता से समझाया जा सकता है। उसका प्रभाव चिरस्थायी रहता है। विश्व के सभी महापुरुषों ने कहानी को महत्व दिया है। आगम, उपनिषद और त्रिपिटक आदि में प्रचुर कहानियां प्रयुक्त हुई हैं। प्रस्तुत पुस्तक में देवेन्द्रमुनि जी द्वारा लिखित ऐतिहासिक, सामाजिक व धार्मिक कहानियाँ हैं। प्रत्येक कहानी जीवन को पवित्र, व विचारों को निर्मल बनाने की प्रेरणा देती है। श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री, स्थानकवासी जैन समाज के एक चमकते हए साहित्यकार हैं। उन्होंने अनेकों महत्वपूर्ण शोध प्रधान, चिन्तन प्रधान, मौलिक ग्रन्थ लिखे हैं जिसकी चोटी के विद्वानों ने व पत्र पत्रिकाओं ने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। Jain Education Internationa Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक में वे एक कहानीकार के रूप में हमारे सामने आ रहे हैं। उन्होंने सैकड़ों कहानियाँ व हजारों रुपक भी लिखे हैं। हमारा हार्दिक प्रयास है कि वे यथाशीघ्र पाठकों के सामने प्रस्तुत किये जायें, पर ग्रन्था लय की अपनी आर्थिक मर्यादा है। अर्थ सहयोगियों का उदार सहयोग प्राप्त होने पर हम क्रमशः प्रकाश में ला सकेंगे। देवेन्द्रमुनि जी की द्वितीय रुपकों की पुस्तक 'खिलती कलियाँ मुस्कराते फूल' भी प्रेस में जा चुकी है, आशा है वह भी शीघ्र पाठकों की सेवा में प्रस्तुत हो जायेगी। मंत्री, शांतिलाल जैन श्री तारक गुरु ग्रन्थालय, पदराडा Jain Education Internationa Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की कलम से.... कहानी कला के मर्मज्ञ सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुशी प्रेमचन्द ने एक स्थान पर कहा है 'कहानी साहित्य का एक मधुर प्रकार है।' मनोविनोद और ज्ञानवर्धन का जितना सुगम, सरल व सरस साधन कहानी साहित्य है उतनी साहित्य की अन्य विधाएं नहीं है। कहानियों में मित्र सम्मत व कान्ता सम्मत उपदेश प्राप्त होता है, जो श्रवण करने में मधुर और आचरण करने में सुगम होता है। यही कारण है कि मानव अपने गुलाबी बचपन में ही कहानी से प्रेम करने लगता है। माता, नानी व दादी की गोद में बैठकर वह कहानी सुनना पसन्द करता है। कहानी के द्वारा जीवन और जगत के, आत्मा और परमात्मा के, तत्त्वज्ञान और दर्शन के, उपदेश और नीति के, इतिहास और भूगोल के, सभ्यता और संस्कृति के जैसे गम्भीर विषय भी वह सहज ही हृदयंगम कर लेता है। वेद, उपनिषद्, महाभारत आगम और त्रिपिटक की हजारों लाखों कहानियां इस बात की प्रबल प्रमाण हैं कि मानव कहानी को कितने चाव से कहता और सुनता आया है। कथाशिल्पी बाबू शरतचन्द्र ने ठीक लिखा है कि जिसे पढ़कर आनन्दातिरेक से आँखें गीली न हो जाए तो वह कहानी कैसी?' Jain Education Internationa Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाना साहित्य उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता। सभ्यता और संस्कृति के आदिकाल से ही मानव अपने अनमोल अनुभव सुनाने के लिए कथाओं का सहारा लेता रहा है। पर देश काल और परिस्थिति के अनुसार कभी उसमें अनुभवों की प्रधानता रही है तो कभी कमनीय कल्पना का प्राधान्य रहा है। मानव की विचार पद्धति और जीवन पद्धति में जब-जब नया मोड़ आया तब-तब कहानियों में भी परिवर्तन होते रहे हैं । नये-नये आयाम प्राप्त होते रहे हैं । नये-नये आयास प्राप्त होते रहे हैं। परी-लोक की कहानियों से लेकर अद्यतन वैज्ञानिक कहानियों का पर्यवेक्षण करें तो सूर्य के उजाले की भाँति स्पष्ट ज्ञात होगा कि कहानियों में अनेक उतारचढ़ाव आये हैं, वे उतार-चढ़ाव कहानी साहित्य के इतिहास के विभिन्न पडाव कहे जा सकते हैं। आज हिन्दी साहित्य का कहानी साहित्य प्रतिक्षण प्रगति कर रहा है। पर परिताप है कि अधिकांश कहानियाँ सेक्स प्रधान भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। वे कहानियाँ जीवन का विकास नहीं, विनाश करती हैं। प्रस्तुत पुस्तक में मेरे द्वारा लिखित इक्कीस कहानियाँ जा रही हैं। इनमें कुछ कहानियाँ जैन लोक कथाओं पर आधृत हैं तो कुछ इतिहास से सम्बन्धित हैं तो कुछ कल्पना प्रधान है। सभी कहानी का मूल उद्देश्य मानव के विमल विचारों का विकास करना है। कुछ कहानियाँ Jain Education Internationa Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल की तरह विकसित हैं तो कुछ पराग की तरह महक रही है अतः इस संकलन का नाम मैंने फल और पराग पसन्द किया है। श्रद्धय सदगुरुवर्य श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के मंगलमय आशीर्वाद से मैं साहित्यिक क्षेत्र में प्रगति कर रहा हूँ अतः उनके असीम उपकार को मैं विस्मृत नहीं हो सकता। साथ ही श्राचन्द जी सुराना 'सरस' को भी भुलाया नहीं जा सकता जिन्होंने पुस्तक को मुद्रण कला की दृष्टि से सर्वथा सुन्दर बनाया है, संशोधन आदि कर मेरे भार को हलका किया है। श्री स्थानकवासी जैन उपाश्रय १२ ज्ञान मन्दिर रोड दादर-बम्बई २८ १५-अगस्त १९७० -देवेन्द्र मुनि Jain Education Internationa Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाक्रम १. अनीति का धन २. बड़ा बनने का मूल मंत्र ३. धूर्त की अमानत ४- मृत्यु के पश्चात् ५. पिता की सीख ६. बड़ी कौन ? ७. मयणल्ल देवी ८. अभिमान गल गया ह. पारसमणि १०. हार ११. क्या मेरा संवत चलेगा ? १२. खून का असर १३. घेवर १४. रानी का न्याय १५. करनी जैसी भरनी १६. बुद्धि का चमत्कार १७. नमक से प्यारे १८. आदमी की पहचान १६. चोर नहीं, देवता २०. परिवर्तन २१. कसाई केवली बना RASH2M sial १०२ १०७ ११४ Jain Education Internationa Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फू ल औ र प रा ग • देवेन्द्र मुनि Jain Education Internationa Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M अनीति का धन प्रकृति के प्राङ्गण में ऋतुराज वसन्त का आगमन हो चुका था । चारों ओर नये जीवन, नई सुषमा का संचार हो रहा था। राजा उग्रसेन के अन्तर्मानस में वसन्त की रमणीय छटा को निहार कर एक विचार उद्बुद्ध हुआ कि "मैं ऐसा कोई कार्य करू, जो मेरे नाम को हजारों वर्षों तक उजागर करता रहे।" उसने एक नव्य भव्य भवन बनाने की योजना बनाई । योजना को मूर्त रूप देने के लिए राजा ने एक प्रसिद्ध पण्डित को बुलाया और कहा - " पण्डित प्रवर ! ऐसा शुभ मुहूर्त देखो, कि मेरा भवन बिना बाधा के शीघ्र पूर्ण हो जाय ।" पण्डित ने पञ्चाङ्ग को टटोल कर कहा - "राजन् ! कल का दिन ही सर्वश्रेष्ठ है । शुभ कार्य के लिए 'शुभस्य शीघ्रम्' ही उचित है, किन्तु यह बात है कि सर्व प्रथम भवन की नींव में न्याय और नीति से प्राप्त दो मोहरें डाली जाय। उन मोहरों के प्रबल प्रभाव से भवन को कोई भी शत्रु नष्ट नहीं कर सकेगा । पर प्रश्न है कि उन मोहरों को कहाँ से प्राप्त करना ?" . Jain Education Internationa Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग राजा ने एक व्यंग्यपूर्ण हंसी के साथ कहा - " पण्डित | वस्तुतः तुम दरिद्र ही हो, इसीकारण दो मोहरों के लिए इतने चिन्तित हो गये, क्या मेरे खजाने में मोहरों की कमी है, वहाँ तो उसके अम्बार लगे हुए हैं ।" पण्डित ने गम्भीर होकर कहा - "महाराज ! मुझे मालूम है आपके राज्यकोष में मोहरों की कमी नहीं है, पर क्या वे न्याय और नीति से प्राप्त ही हैं ? नींव में डालने के लिए न्याय और नोति से प्राप्त मोहरें चाहिए ।" राजा को पण्डित का सत्य कथन विष घंट-सा लगा, परन्तु वह इस समय किसी से भी वाद-विवाद करना नहीं चाहता था । राजा ने अपने मंत्रियों से नीति से प्राप्त मोहरें मांगी। किन्तु मंत्रियों ने स्पष्ट इन्कार करते हुए कहा* राजन् ! हमारे पास न्याय नीति से अर्जित मोहरें कहाँ हैं ? हमारे पास जो भी धन है, वह तो आपके द्वारा ही प्राप्त है । न्याय और नीति से प्राप्त मोहरें तो आपको किसी सच्चे धर्मनिष्ठ व्यक्ति के पास ही मिल सकती है ।" राजा ने जानना चाहा कि मेरे राज्य में ऐसा कौन व्यक्ति है, जो धर्मनिष्ठ हो । सभी ने एक स्वर से सेठ धर्मपाल का और कहा - " राजन् ! सेठ धर्मपाल सच्चे धन से भी अधिक धर्म उनको प्यारा है । प्रारण से भी अधिक प्ररण उनको प्रिय है ।" नाम बताया धर्मात्मा हैं । Jain Education Internationa Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनीति का धन राजा ने अपने अनुचर को आदेश देते हुए कहा"जाओ, शीघ्र सेठ धर्मपाल को बुला लाओ।" सेठ धर्मपाल आया। राजा ने अपने महल की योजना उसके सामने रखी और कहा-"महल की नींव में डालने के लिए न्याय नोति से अजित दो मोहरें मुझे चाहिए।" धर्मपाल ने नम्र निवेदन करते हुए कहा -"महाराज! आपको जितनी आवश्यकता हो उतनी मोहरें में दे सकता है। पर अन्याय के कार्य के लिए नहीं। मेरी मोहरें अन्याय के कार्य में खर्च नहीं हो सकतीं।" राजा ने भोंहे तानकर कहा-"क्या कहा तुमने ? क्या भवन निर्माण का कार्य अनैतिक कार्य है ?" ___"हाँ राजन् ! विलासिता के पोषण के लिए, अपने मिथ्या अहंकार की अभिवृद्धि के लिए, अपने नाम की भूख के लिए आप भवन बनाना चाहते हैं ?" सेठ ने निर्भयता पूर्वक कहा-"आपको कहां भवन की आवश्यकता है ? आपके पास पूर्वजों के बनाए हुए इतने भवन हैं कि सैकड़ों व्यक्ति उसमें आनन्द से रह सकते हैं। पर वे भवन आपके नाम की भूख को मिटा नहीं सकते. एतदर्थ हो आप नया भवन बनाना चाहते हैं ? किन्तु यह धन का सदुपयोग नहीं, दुरुपयोग है।" । राजा ने आदेश के स्वर में कहा-"मैं तुम्हारे से अधिक वाद-विवाद नहीं करना चाहता। बताओ ! तुम मोहरें सहर्ष अर्पित करते हो या नहीं ? तुम चाहो तो Jain Education Internationa Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग राज्य कोष से जितना धन लेना चाहो ले लो और मोहरें शीघ्र हमें दे दो।" सेठ ने कहा- "राजन् ! नीति और अनीति का विनिमय कैसा ? कितना किसके बदले में दिया व लिया जाय ?" राजा ने कडक कर कहा-"तुम्हें तो अपने धन पर बड़ा घमण्ड है, ऐसी उसमें क्या विशेषता है, जरा देख तो सही।" सेठ ने दृढ़ता के साथ कहा-"अवश्य, धन की परीक्षा होनी ही चाहिए।" राजा ने उसी समय राज्य भण्डार से मोहरों की एक थैली मंगाई, और सेठ ने भी अपनी जेब से पाँच मोहरें निकाल कर दी। दोनों प्रकार की मोहरें मन्त्री को देते हुए कहा-"जरा परीक्षा कर बताओ कि इनका जीवन और विचारों पर क्या प्रभाव पड़ता है।" _____ मंत्री ने सेठ की पांचों मोहरें एक मच्छीमार को दी। मच्छीमार के हाथ में ज्यों ही मोहरें पहुंची, उसके विचार बदल गये । “आज से अब में कभी भी जीव हिंसा का निकृष्ट कार्य नहीं करूंगा। इन मोहरों से मैं अहिंसक रीति से व्यापार करूंगा। आज से मैं ऐसा जीवन जीऊंगा जो आदर्श होगा।" उसने मछलियां पकड़ने के जाल को एक तरफ फेंक दिया। वह अहिंसक जीवन जीने लगा। राजा से प्राप्त मोहरें मंत्री ने एक पहँचे हुए योगी को अर्पित की। योगी, जो वर्षों से तप तप रहा था, ध्यान और जप की साधना कर रहा था, राजा की मोहरें मिलते Jain Education Internationa Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनीति का धन ही योगी के विचारों में उन्माद छा गया। वह रात होने पर मोहरों की थैली लेकर एक वैश्या के कोठे पर पहुँचा। ___मंत्री के गुप्तचर दोनों के पीछे थे, उन्होंने मच्छीमार व योगी के विचार परिवर्तन की बात मंत्री से कही । मन्त्री ने राजा को सही-स्थिति की सूचना दी । और तब राजा को सेठ की बात पर पूरा विश्वास हो गया कि अन्याय से अजित हजार मोहरों की तुलना न्याय से प्राप्त दो मोहरों से नहीं हो सकती। Jain Education Internationa Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || बड़ा बनने का मूल मंत्र मध्याह्न का समय था। चिलचिलाती धूप में सड़क पर खड़ी एक मजदूरन राहगिरों से कह रही थी ''श्रीमान् ! जरा घास के इस गट्टर को मेरे सिर पर रखवा दो न ? मेरे घर पर बच्चे भूख से छट-पटा रहे हैं, मुझे शीघ्र ही घर जाना है, उन बच्चों की सुध-बुध लेने के लिए।" सड़क पर तेजगति से बढ़ते हुए एक युवक ने कहा"बहिन ! मैं तुम्हारी मदद अवश्य करता, किन्तु इस समय मुझे बिल्कुल समय नहीं है। मुझे बड़ा आदमी बनना है । बड़ा आदमी बनने के लिए ही इस समय मैं जा रहा हूँ।" ___मजदूरन हाथ जोड़कर प्रार्थना करती रही, किन्तु युवक आगे बढ़ गया । युवक कुछ कदम आगे बढ़ा । एक बूढा गाड़ी वाला सड़क पर खड़ा था। उसने युवक के रास्ते को रोकते हुए कहा-"मेरी गाड़ी कीचड़ में फंस गई है, जरा तुम सहारा दे दो तो वह निकल जायेगी। मुझे गाड़ी का माल बेचकर शीघ्र ही डाक्टर को लेकर घर जाना है, क्यों कि मेरा इकलौता लड़का बहुत बीमार Jain Education Internationa Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बनने का मूल मंत्र है । मेरे पास डाक्टर और दवाई के लिए पैसा नहीं है. इसीलिए गाडी का माल बेचने बाजार जा रहा हूँ ." युवक ने वृद्ध के हाथ को झटका देते हुए कहा"तुम्हारा लड़का कल मरता हो तो आज मरे, मुझे उसकी चिन्ता नहीं है, मैं इस समय बड़ा आदमी बनने के लिए जा रहा हूँ। मझे बिल्कुल ही समय नहीं है, में अपने वह मूल्य वस्त्र कीचड़ से खराब नहीं कर सकता।" बूढा गिड़गिड़ाता रहा, युवक आगे बढ़ गया। युवक कुछ आगे बढ़ा ही था कि एक अन्धी भिखारिन जोर-जोर से रो रही थी। युवक के पद-चाप को सुनकर उस ने कहा"बाबूजी ! मैं कभी से धूप में बैठी हूँ, गर्मी से मेरा जी घबरा रहा है, पेट में भयंकर दर्द हो रहा है, जरा सड़क के किनारे किसी वृक्ष की शीतल छाया में मुझे बिठादो न ! मैं तुम्हारा उपकार कभी न भूलगी।" यूवक ने झझलाकर कहा- 'तुझे शर्म नहीं आती, कहां मैं और कहां तुम ? मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता। मुझे तो बड़ा आदमी बनना है और उसी के लिए मैं भागा जा रहा हूं।" इस प्रकार सभी की उपेक्षा व तर्जना कर युवक महात्मा के आश्रम में पहुँचा । महात्मा को नमस्कार कर उसने कहा--- "गुरुदेव ! आज से सातवें दिन आपने मेरी नम्र प्रार्थना को सन्मान देकर कहा था कि मैं तुझे बड़ा आदमो बनने का उपाय बताऊंगा. ऐसा मंत्र दूंगा जिससे तू वड़ा आदमी बन जायेगा। गुरुदेव ! एतदर्थ ही आपके Jain Education Internationa Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग बताए हुए समय पर मैं उपस्थित हो गया है।" महात्मा ने कहा- "एक शिष्य और भी आने वाला है, उसे भी मैंने यही समय दिया था, वह आता ही होगा, जरा उसकी भी प्रतीक्षा करलें।" महात्मा ने ज्यों ही दूसरे युवक का नाम लिया त्यौं ही उसके मन में ईर्ष्या की आग भड़क उठी। उसने कहा--"गुरुदेव ! जो व्यक्ति समय का ध्यान न रखे, उससे अन्य क्या अपेक्षा रखी जा सकती है, वह कभी भी बड़ा आदमी बनने के योग्य नहीं हो सकता।" ___महात्मा मौन रहे । वे उसके अन्तर्ह दय को टटोलने लगे। कुछ समय के पश्चात् दूसरा युवक भी दौड़ता हुआ आ पहुंचा। उसके शरीर से पसीना च रहा था, उसके वस्त्र कीचड़ से लथपथ थे। महात्मा को नमस्कार कर वह उनके चरणों में बैठ गया। महात्मा ने पूछा- "वत्स ! विलम्ब कैसे हो गया ?" युवक ने कहा- "गुरुदेव ! मैं ठीक समय पर उपस्थित हो जाता, पर मार्ग में एक मजदूरन खड़ी थी, उसके घास के गट्ठर को उठाने में, एक वृद्ध गाड़ीवान् को गाड़ी को कीचड़ से बाहर निकालने में, और एक अन्धी भिखारिन को धूप से वृक्ष की छांह में ले जाने में कुछ समय लग गया। मेरा अन्तर्ह दय मुझे पुकार रहा था कि इनकी उपेक्षा करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है । विलम्ब के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूं।" Jain Education Internationa Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा बनने का मूल मंत्र ११ __महात्मा ने प्रथम यूवक की ओर दृष्टि डाली। ''वत्स ! तुम भी तो उसी मार्ग से आये थे न ! तुमने भी तो उनको देखा होगा न ? फिर तुमने उनकी उपेक्षा क्यों की ?" युवक के पास इसका कोई उत्तर नहीं था । महात्मा ने दोनों युवकों को बड़ा बनने का मूलमंत्र बताते हुए कहा-“सेवा, सरलता, नम्रता, सहिष्णुता ही जीवन को पवित्र, निर्मल और महान् बनाती है, जितने भी महान् पुरुष हुए, वे इन्हीं सद्गुणों को धारण करने से हुए हैं। तुम्हें भी महान् बनने के लिए इन्हीं सद्गुणों को धारण करना होगा।" प्रथम युवक उदास था और द्वितीय युवक के चेहरे पर प्रसन्नता चमक रही थी। Jain Education Internationa Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ धूर्त की अमानत राजगह भारत की एक प्रसिद्ध नगरी थी! जैन, बौद्ध, और वैदिक परम्पराओं की प्रसिद्ध संगमस्थली ! श्रेणिक वहां के लोकप्रिय सम्राट थे, और अभयकुमार परम मेधावी महामंत्री ! एक-से-एक बढ़कर धार्मिक, व वैभव सम्पन्न श्रेष्ठी लोग वहाँ रहते थे। गोभद्र उन्हीं में से एक था। उसके स्नेह-सौजन्यता पूर्ण सद्व्यवहार से सभी प्रभावित थे। सभी उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते थे । गोभद्र अमानत का व्यापार किया करता था। एक दिन एक धुर्त राजगृह में आया। उसने लोगों के मुह से गोभद्र की सरलता व सद्व्यवहार की बात सुनी । बढ़िया वस्त्रों से सुसज्जित होकर वह सीधा सेठ की दुकान पर पहुंचा। सेठ ने उसका सत्कार किया। वह भी सेठ को नमस्कार कर बैठ गया। धीरे से उसने अफियों की थैली सेठ के सामने रखकर कहा---"कृपया मेरी बहुमूल्य अमानत मुझे पुनः लौटाइए और आपकी ब्याज सहित एक हजार अफियां ले लीजिए।" Jain Education Internationa Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्त की अमानत सेठ ने गंभीर चिन्तन के पश्चात् कहा - "मुझे स्मरण नहीं आ रहा है कि आपने कब और कौनसी अमानत मेरे पास रखी है ?" धूर्त ने मुंह मटकाकर कहा - " अब क्यों स्मरण आने वाली है, मालूम होता है तुम्हारी भावना ठीक नहीं है, तुम उसे हजम करना चाहते हो ।" सेठ ने विचारा, संभव है मैं कहीं विस्मृत हो गया हूँ । उसने अपनी बही के पन्ने आदि से अन्त तक उलट दिये, पर कहीं पर भी एकाक्षी का नाम न मिला, और न अमानत की वस्तुओं में ही उसकी वस्तु मिली । सेठ विचारने लगा - " आज तक किसी की भी वस्तु मेरे यहाँ से गुम नहीं हुई है, फिर इसकी वस्तु कहाँ चली गई ?" . सेठ के चमकते हुए चेहरे पर चिन्ता की रेखाएं उभर आयीं । धूर्त ने विचारा - अब मेरा मनोरथ सिद्ध हो जायेगा । धूर्त ने कहा - " सेठ ! तुम्हें समय की कीमत का भी ध्यान है या नही, मैं कब से बैठा हूँ ?" सेठ ने दृढ़ता के साथ कहा - " आपकी अमानत कोई भी मेरे पास नहीं है, यदि आपको स्मरण हो तो बताएं कि आपकी कौनसी वस्तु मेरे पास है ?" धूर्त ने मुस्कराते हुए कहा- "मालूम होता है कि तुम भुलक्कड प्रकृति के हो, तुम्हें कोई भी बात याद नहीं रहती है, ऐसी स्थिति में क्या व्यापार खाक करोगे ? देखो न ! अभी कुछ ही दिन पूर्व में अपनी दाहिनी आँख तुम्हारे यहां अमानत रख के गया था ।" Jain Education Internationa Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग आँख की बात सुनकर सेठ के आश्चर्य का पार न रहा। उसने विस्मय-विमुग्ध स्वर में कहा- "क्या कभी आँख भी अमानत रखी जाती है ?" धूर्त ने चट से कहा--"रखी जाती है इसीलिए तो मैंने रखी थी।" सेठ असमंजस में पड़ गये ! धूर्त जोर जोर से चिल्लाने लगा। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई। भाड़ में से एक वृद्ध अनुभवी सज्जन ने कहा-'बेचारे ने अमानत रखी है तो अवश्य ही लौटानी चाहिए।" सेठ ने कहा--"कृपया आप ही हमारी समस्या सुलझा दीजिए।" - वृद्ध-"यह समस्या तो सम्राट् श्रेणिक, और महामात्य अभयकुमार ही सुलझा सकते हैं, आप उन्हीं के पास जाइए।" सेठ एकाक्षो को लेकर सम्राट श्रोणिक की राजसभा में पहुंचा। सेठ ने अपना निवेदन प्रस्तुत किया और धर्त ने भी अपनी सफाई पेश की। दोनों ने सम्राट से न्याय की मांग की। कुतुहलवश काफी लोग भी वहाँ एकत्रित हो गये। उनमें से कितने ही कह रहे थे-"बेचारे सेठ ने गरीब को धोखा दिया है। यह सच्चा है इसीलिए राजा के सामने निर्भीकता से बोल रहा है। कितने ही धूर्त को धिक्कारते हुए कह रहे थे- "अभी अभी इस दुष्ट को पता लगेगा कि सज्जन को सताने का क्या परिणाम होता है।" Jain Education Internationa Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्त की अमानत १५ महाराज श्रेणिक ने अभयकुमार को न्याय करने के लिए आदेश दिया । अभयकुमार ने धूर्त को संकेत करते हुए कहा - " मैं जानता हूँ कि सेठ अमानत का बहुत बड़ा व्यापारी है । इसके पास हजारों प्रकार की वस्तुएं अमानत में आती हैं, कहीं वे इधर-उधर न हो जायें अतः सभी वस्तुओं पर मालिक के नाम की चिट्टियां लगाकर रखता है । पर तुम्हारी चिट्ठी गुम हो गई है, जिससे तुम्हारी कौन सी वस्तु है यह पहचानने में दिक्कत हो रही है ।" धूर्त ने कहा - " मंत्रीवर ! इसमें दिक्कत की बात नहीं है, सत्य तो यह है कि सेठ की नियत ही बिगड़ गई है I अभयकुमार - " सेठ के पास हजारों आँखें हैं उनमें से तुम्हारी कौन-सी है यह तो पहचाननी होगी ?" धूर्त - "आप चाहें जो करें, मुझे तो अपनी आंख मिलनी चाहिए। बिना एक आँख के मेरा चेहरा कितना विकृत हो गया है, लोग मुझे एकाक्षी कहकर उपहास करते हैं ।" अभयकुमार –"हाँ, तुम्हारा कथन पूर्ण सत्य है । मैं भी यही चाहता हूँ कि तुम्हें अपनी आँख मिलनी चाहिए, किन्तु उसके लिए तुम्हें एक कार्य करना होगा ।" धूर्त - "हाँ तो शीघ्र बताइए वह कौन-सा कार्य है ?" अभयकुमार - "तुम्हारी जो यह दूसरी आँख है वह निकालकर सेठ को दे दो, जिससे वह तुम्हारी पुरानी Jain Education Internationa Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ फूल और पराग आँख पहचान लेगा और दोनों तुम्हें लौटा देगा।" दूसरी आंख निकालने की बात सुनते ही धूर्त चौंक पड़ा, उसने कह - 'ऐसा नहीं हो सकता।" अभयकुमार-''नहीं-नहीं कहने से कार्य नहीं होगा। मुझे पूर्ण न्याय करना है। बतलाओ तुम स्वयं हाथ से निकालकर देते हो या मैं जल्लादों को कहकर निकलवाऊँ ? तुम्हारे चेहरे से स्पष्ट ज्ञात होता है कि तुम नहीं निकालोगे। अभयकुमार ने उसी समय जल्लादों को बुलाया, वे तीक्ष्ण शस्त्र लेकर उपस्थित हो गये। शस्त्र को देखते ही धूर्त का शरीर थर थर कांपने लगा। हृदय धड़कने लगा। वह अभयकुमार के चरणों में गिर पड़ा। “अब मुझे अमानत नहीं चाहिए । मैंने सेठ पर मिथ्या आरोप लगाया था। मुझे क्षमा करो।" उसकी आँखों से अश्र की धारा छूट गई। वह नेत्र-दान की भिक्षा मांगने लगा। __ अभयकुमार-"मेरे से क्या क्षमा मांग रहा है, जिस धर्मात्मा सेठ पर मिथ्या आरोप लगाकर इतना कष्ट दिया है, उनसे क्षमा मांग।" धूर्त श्रेष्ठी के चरणों में गिर पड़ा। श्रेष्ठी ने कहा"अपराध की क्षमा तो सम्राट व महामात्य ही दे सकते हैं, मैं नहीं, क्योंकि वे ही न्याय के प्रदाता हैं।" राजा श्रेणिक और अभयकुमार ने धूर्त के दुष्कृत्य को क्षमा कर दिया क्योंकि उसकी आँखों में प्रायश्चित्त के आंसू चमक रहे थे। Jain Education Internationa Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मृत्यु के पश्चात् जोधपुर नरेश जसवन्तसिंह जो बड़े शौकीन प्रकृति के थे। उनका रहन-सहन,खान-पान ठाट-बाट सभी निराला, अद्भुत और आकर्षक था। उनके नित्य-नवीन डिजायनों से युक्त चमचमाते हुए बहुमूल्य वस्त्रों को देखकर दर्शक मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। जोधपुर राज्य में ही नहीं, अन्य राज्यों में भी उनकी साज-सज्जा की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए लोग अघाते नहीं थे। एकदिन राजा जसवन्तसिंह जीके मन में अनोखा विचार आया कि “इस समय तो मैं बढ़िया से बढ़िया पोशाक पहनता हूँ, पर मरने के बाद मुझे कैसी पोशाक पहनाई जायेगी, वह सुन्दर होगी या खराब ! क्यों न मैं अपने सामने ही मृत्यु की मनपसन्द पोशाक तैयार करवाएं।" राजा ने लाखों रुपए खर्च कर मनपसन्द पोशाक तैयार करवाई। जब वह पोशाक तैयार हुई तो राजा उसको सुन्दरता को देखकर झूम उठा । अन्य व्यक्ति भी बिना प्रशंसा किये न रह सके । पोशाक की सुन्दरता को देखकर राजा के मन में यह विचार कौंध उठा "क्या . १७ Jain Education Internationa Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ फूल और पराग यह पोशाक एक दिन अग्नि में जलाई जायेगी, क्या यह राख बन जायेगी ?" उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र व प्रधानमंत्रो को आदेश दिया कि मुझे मरने के पश्चात् यह पोशाक पहनाई जाय । सबने कहा-"जैसा आपश्री का आदेश ।" __ महाराजा प्रेम पूर्वक राज्य का संचालन करते रहे। उनके नीतिमय स्नेह-सौजन्यता पूर्ण सद्व्यवहार से प्रजा अत्यधिक प्रसन्न थी। प्रजा प्रारणों से भी अधिक राजा को चाहती थी। जहां राजा का पसीना बहे, वहाँ बह अपना खून वहाने के लिए तैयार थी। एकदिन राजा के मन में विचार आया कि "मैंने मरने के पश्चात् पहनने की जो बहमूल्य पोशाक बनाई है, वह इतनी सुन्दर,दर्शनीय, और रमणीय है कि शायद मरने के बाद मुझे न भी पहनावें, क्योंकि मेरे मन में भी कभी कभी उसे देखकर मोह हो जाता है तो फिर दूसरों का कहना ही क्या ? अच्छा तो यही है कि मैं जरा परीक्षा कर देख लूं।" प्रातःकाल होने पर राजा ने रानियों से कहा"आज मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है । घबराहट हो रही है। सांस फल रहा है। और साथ ही शरीर में अपार वेदना भी हो रही है।" बीमारी की बात सुनते ही सारे राज्य प्रासाद में तहलका मच गया। इधर से उधर हकीम और वैद्यों को बुलाने के लिए अधिकारीगण दौड़ने लगे। अनिष्ट की कल्पना कर सभी का कलेजा कांपने लगा। Jain Education Internationa Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ मृत्यु के पश्चात् कुछ देर तक महाराज पलंग में पड़े इधर से उधर करवटें बदलते रहे, कराहते रहे। ___महाराजा जसवन्तसिंह जी प्राणायाम के पूरे अभ्यासी थे। उन्होंने पहले कुछ दीर्घ श्वास लिए, फिर प्राण-वायु को कपाल में चढ़ा दिया। नाड़ी गायब हो गई, सारा अंगोपाङ्ग मुर्दे की तरह शिथिल हो गया। यह देख सभी के होश-हवास उड़ गये। स्नेहोजनों की आंखों से मोती बरसने लगे। सभी कह रहे थे "अरे क्रूर काल, यह तेने क्या कर दिया ?" __ शवयात्रा की तैयारी होने लगी। महाराजा को सुगन्धित पानी से स्नान कराया गया। शरीर पर सुगन्धित पदार्थों का लेपन किया गया। राजा के द्वारा निर्दिष्ट वह पोशाक लाई गई । राजकुमार ने ज्योंही उस अनौखी पोशाक की चमक-दमक देखी, मुग्ध हो गया। उसके मन में विचार आया "लाखों रुपए की यह कीमती पोशाक क्या अग्नि में जलाने के लिए है ?" उसने धीरे से मंत्री को कहा-"पोशाक तो बहुत सुन्दर व कोमतो है " _ मंत्री को राजकुमार के मानसिक विचारों को समझने में देर न लगी। वह राजकुमार को प्रसन्न करना चाहता था, उसने राजकुमार के विचारों का समर्थन करते हुए कहा-'पोशाक तो बहुमूल्य है। पोशाक को बनाने में महाराजा ने बहुत ही श्रम किया था। लाखों रुपए खर्च . किए, देखिए कितनो सुन्दर नक्कासी की गई है, हीरे, Jain Education Internationa Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० फूल और पराग पन्ने, मारणक मोती जड़े गये हैं । ऐसी सुन्दर पोशाकें बार-बार नहीं बना करती हैं। इसे तो सुरक्षित रखना चाहिए। यदि आप इस पोशाक को पहनेंगे तो आपका चेहरा चमक उठेगा । ऐसी दुर्लभ चीज की तो रक्षा होनी चाहिए । महाराजा का शरीर अब मिट्टी बन चुका है, चाहें यह पोशाक इन्हें पहनाई जाय या न पहनायी जाय, कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है । निरर्थक ही इस बेशकीमती चीज को क्यों नष्ट की जाय । महाराजा को अन्य दूसरी सुन्दर पोशाक पहना दो जाय ।" राजकुमार ने कहा - " मंत्रीवर । तुम्हारी बात बहुत अच्छी है, मुझे भी यही जंचता है ।" वह पोशाक अत्यन्त सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दी गई। राजा को दूसरी पोशाक पहना दी गई। राजकुमार और मंत्री की बात अन्य किसी को भी ज्ञात न हो सकी । महाराजा को जमीन पर लिटा दिया गया। सीढ़ी पर लिटाने की तैयारी चल रही थी । महाराजा के श्वास निरोध का तीन घण्टे का समय पूर्ण हो चुका था । समय पूर्ण होते ही धीरे से शरीर में स्पंदन हुआ । हृदय की गति धीरे धीरे चलने लगी । शरीर के अंग संचालन को देखकर सभी का हृदय प्रसन्नता से नाच उठा, महाराजा ने आँख खोली और वे उठ बैठे । बैठते ही उनकी सर्व प्रथम दृष्टि अपनी पोशाक पर गई। उन्होंने देखा, मृत्यु की पोशाक बदल चुकी है । Jain Education Internationa Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु के पश्चात् उनका चेहरा मुरझा गया, उनके अन्तर्हदय के तार वेदना से झनझना उठेखाया सो तो खो दिया, दीधा चाला सत्थ । जसवन्त धर पोढावियाँ माल पराये हत्थ ॥ Jain Education Internationa Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता की सीख जीवन को सान्ध्य बेला में सेठ रामलाल चार पाई पर लेटे हए इधर-उधर करवटें बदल रहे थे। उनका स्वास्थ्य कितने ही दिनों से अस्वस्थ चल रहा था। वैद्य, हकीम और डाक्टरों की दवाई लेते-लेते ऊब गये थे। सेठ रामलाल प्रकृति से भद्र, विनीत व दयालु थे। उन्होंने लाखों रुपए जन-कल्याण के लिए समर्पित किये थे। नगर में उनके नाम के धर्म स्थान, पाठशालाएं और औषधालय थे। दीन,अनाथ,विधवा बहिनों को,तथा गरीब छात्रों को वे खुले हाथों से सहयोग देते थे। वे चाहते थे कि मेरे पश्चात् मेरा पुत्र सोहन भी इसी प्रकार धार्मिक सामाजिक, व राष्ट्रीय कार्य करता रहे। मेरे नाम को चार चांद लगाता रहे। एक दिन सेठ का सुख-सम्वाद पूछने के लिए उसका परम विश्वासी मित्र आया। वार्तालाप के प्रसंग में उसने बताया कि तुम्हारा पुत्र सोहन इन दिनों में अनेक व्यसनों का शिकारी हो गया है । वह मद्यपान करता है, जुआ खेलता है और वेश्याओं के वहाँ भी जाता है। २२ Jain Education Internationa Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता को सीख २३ अपने पुत्र के सम्बन्ध में ये समाचार सुनकर सेठ को अपार दुःख हुआ। मेरा पुत्र और दुर्व्यसनी ? सेठ को लगा उसकी सुनहरी कल्पनाओं का महल ढह गया है। जिस पुत्र के लिए उसने मन में अनेक सपने संजोये थे, आज वे सभी बेकार हो रहे हैं। कुलशृगार के स्थान पर वह कुलाङ्गार हो गया है । उसे समझाना होगा, द्वष से नहीं प्रेम से, स्नेह और सद्भावना से । ____ मध्याह्न में उसका पुत्र सोहन दूध का ग्लास लेकर आया। सेठ ने दूध पी लिया और पुत्र को अपने पास बिठाकर बड़े प्रेम से कहा "पुत्र ! तेरे सम्बन्ध में मैंने कुछ सुना है, जब से सुना है, तब से मेरा मन व्यथित है। मैं तुम्हारे से स्वप्न में भी यह आशा नहीं रखता था।" सोहन ने अपनी बात छिपाने के लिए कहा--"पिता जी! लोग झूठ-मूठ ही आपको बहका देते हैं, ऐसी कोई भी बात नहीं है। मैं सदा सजग हूँ, आप चिन्ता न करें।" सेठ रामलाल ने पुत्र का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा-"पुत्र ! मैं तुम्हें उपालम्भ देना नहीं चाहता, और न तुम्हारी इच्छाओं पर रोक लगाना ही चाहता। मैं यही चाहता हूँ कि तुम मेरी अन्तिम तीन शिक्षा स्वीकार कर लो। मुझे मालूम है तू जुआ खेलता है, खेल, पर यह मुझे वचन दे कि कभी भी मकान के बाहर जुआ नहीं खेलूगा। मुझे मालूम है कि तू शराब पीता है, पी, पर यह मुझे वचन दे कि कभी भी मदिरालय को छोड़ Jain Education Internationa Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ फल और पराग कर अन्य स्थान पर शराब नहीं पीऊँगा । मुझे मालूम है कि तू वैश्यागामी है, पर यह प्रतिज्ञा ग्रहण कर कि वैश्यालय के अतिरिक्त कहीं पर भी वैश्याओं को बुलाकर वासना पूर्ति नहीं करूँगा।" सोहन ने देखा, पिताजी ने सभी बातें मेरे मन के अनुकूल कहीं हैं। किसी में भी कार्य करने की इन्कारी नहीं है। उसने सहर्ष पिता की अन्तिम सीख को स्वीकार कर लिया। __ इतने दिन तो सोहन जुआ खेलने के लिए बाहर जाया करता था, पर प्रतिज्ञाबद्ध होने से आज वह बाहर जा नहीं सकता था। उसने अपनी जुआ मंडली को अपने घर पर ही बुला ली। बैठक के रूम में खेल प्रारम्भ हुआ। खेल का रंग धीरे धीरे जमा, खेल पूरी जवानी पर था। तभी सोहन को दृष्टि अपने एक खिलाड़ी मित्र पर गिरी। उसकी आँखों से अश्र छलक रहे थे। सोहन ने बीच में ही खेल को रोक कर पूछा-"मित्रवर। आपकी आँखों में इस समय आँसू कैसे ?" मित्र ने लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए कहा-'मित्र सोहन ! तुम्हारे विराट् वैभव को निहार कर मुझे अपने पुराने वैभव की स्मृति हो आयी। एक दिन मैं भी तुम्हारे जैसा हो सेठ था। मेरे घर में भी धन के अम्बार लगे हुए थे। एक से एक सुन्दर भव्य-भवन थे, किन्तु जुए की लत ने मुझे बर्बाद कर दिया। मेरे सभी मकान Jain Education Internationa Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता की सीख २५ विक गए । लाखों की सम्पत्ति नष्ट हो गई, आज मेरे पर हजारों नहीं, लाखों का कर्जा हो गया है। पिता ने अत्यन्त श्रम कर जो धन कमाया, वह मैंने जुए में सब समाप्त कर दिया । आज मैं एक भीखारी हो गया हूँ ।" मित्र की करुण कहानी सुनते ही सोहन की आँखें खल गई। दो क्षण के चिन्तन ने उसका हृदय बदल दिया । उसने अपना एक दृढ़ निर्णय किया और मित्रों को सुनाते हुए कहा - " आज से मैं कभी भी जुआ नहीं खेलूंगा ।" उसने अपने स्नेही साथी से कहा - " यदि तुम व्यापार करना चाहो तो मैं तुम्हें यथायोग्य सहयोग दूँगा।" सन्ध्या का सुहावना समय था । शीतल मन्द समीर चल रहा था । मदिरापान का समय होते ही उसे उसकी स्मृति आयी । पर आज घर में शराब नहीं पीनी थी । वह अपने दो साथियों को लेकर मदिरालय की ओर चल दिया । मदिरालय के पास ही बढ़िया वस्त्रों से सुसज्जित उसका एक मित्र गटर में पड़ा अंट-संट बक रहा था । गटर में कीड़े कुलबुला रहे थे । भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी । उसपर मक्खियां भिनभिना रही थी । कुत्ते उसके मुह को चाट रहे थे । पास ही खड़ा एक समझदार व्यक्ति कह रहा था - "इसने बहुत शराब पी है, विल्कुल भान भो नहीं रहा है देखो शराबियों की कैसी दुर्दशा होती है ।" सोहन ने अपने मित्र की यह दुर्दशा देखी, विचार आया- "अरे ! मैं भी तो इसी रोग का मरीज हूं । उसने Jain Education Internationa Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल और पराग 'इसके पूर्व ऐसा बीभत्स दृश्य कभी नहीं देखा था। वह प्रतिदिन तो शराब अपने घर पर ही पीता था। उसने अपने साथियों के समाने प्रतिज्ञा ग्रहण की कि "आज से मैं कभी भी शराब नहीं पीऊँगा।" वहां से उलटे पैरों लौट आया। सोहन के पास वैभव की कोई कमी नहीं थी। उसके अनेक कोठियाँ थीं । अनेक दलाल उसके चारों ओर घूमा करते थे। वह मनपसन्द किसी भी अलबेली को अपनी कोठियों पर बुला लिया करता था । पर आज प्रतिज्ञा होने से वह बुला नहीं सकता था। वह स्वयं नगर की प्रसिद्ध वैश्या के मकान की ओर चल पड़ा। मकान में प्रवेश करते ही उसने देखा एक कुष्ठरोगी युवक वैश्या के मकान से बाहर निकल रहा है । उस कुष्ठ रोगी के शरीर से मवाद बह रहा है । उसे देखकर सोहन के मन में ग्लानि हो गई ! “अरे जिस नारी का आलिङ्गन यह करे, उसका मैं भो करूं छिः छिः ! जो नारी पैसे को ही सर्वस्व मानती हो, जिसे हेय और उपादेय का भी भाव नहीं है, उस नारी से प्रेम कैसे हो सकता है ? धिक्कार है मुझे ! जो क्षणिक वासनापूर्ति के लिए इधर-उधर भटकता रहा।' वह सीधा हो वहाँ से लौटकर घर पर आया। पिता के चित्र के सामने खड़े रहकर पत्नी की साक्षी में उसने प्रतिज्ञा ग्रहण की-"आज के संसार में जितनी भी पराई स्त्रियां हैं उन्हें मैं माता और बहिन मान गा। मैं सदाचार का पालन करूंगा।" Jain Education Internationa Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता की सीख एक दिन सेठ रामलाल ने सुना, उसका पुत्र सोहन व्यसनों से मुक्त हो चुका है । उसके जीवन में सादगी, संयम, सरलता और स्नेह है । दुर्गुणों के स्थान पर सद्गुण उसके जीवन में अंगडाइयां ले रहे हैं। प्रेम से दी गई पिता की सीख ने उसके जीवन और विचारों को बदल दिया है । २७ Jain Education Internationa Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी कौन ? महाराजा अजितसिंह की राजसभा में एक से एक महान् दार्शनिक, विचारक, व विद्वान् व्यक्ति थे, जो समय-समय पर दर्शन की गुरु गंभीर ग्रन्थियों को सुल झाते थे। धार्मिक, व सामाजिक विषयों पर मार्मिक विवेचन करते थे। लोग विद्वानों की चर्चाओं को बड़े ध्यान से सुनते थे। एकदिन राजसभा में प्रश्न उपस्थित हआ "लक्ष्मी बड़ी है या सरस्वती ?" एक पण्डित ने लक्ष्मी का महत्त्व सिद्ध करते हुए कहा--"लक्ष्मी का गौरव किसी से छिपा नहीं है । जिसके पास धन है, वही महान् है, वही बुद्धिमान है जिसके पास धन का अभाव है,यदि वह बुद्धिमान भी है तो लोग उसे बुद्ध समझते हैं। आज तक जितनी भी समस्याएं उपस्थित हुई हैं उनका समाधान धन ने ही किया है।" दूसरे पण्डित ने पूर्व पण्डित के तर्कों का खण्डन करते हुए कहा-"धन का महत्त्व अल्पज्ञ के लिए है, मर्मज्ञ के लिए नहीं । इस विश्व में ज्ञान के समान कोई भी २८ Jain Education Internationa Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ी कौन ? २६ पवित्र नहीं है । समस्या का सही समाधान धन से नहीं, बुद्धि से होता रहा है । आप जानते हैं - भारतीय संस्कृति के विचारकों ने लक्ष्मी का वाहन उल्लू माना है । उल्लू रात का राजा होता है। उसमें अक्ल का अभाव होता है । लक्ष्मी उसी पर सवारी करती है जो उल्लू की तरह निर्बुद्धि होते हैं । सरस्वती का वाहन हंस है । हंस, नीरक्षीर विवेकी माना है । सरस्वती का उपासक हंस की तरह बुद्धिमान होता है । सरस्वती की प्रतिस्पर्धा लक्ष्मी कभी नहीं कर सकती ।" दोनों विद्वानों ने राजा के सामने देखा कि वे इस सम्बन्ध में अपना क्या मन्तव्य रखते हैं, ये लक्ष्मी को महत्त्व देते हैं या सरस्वती को ? राजा ने कहा - "आप दोनों विद्वानों के प्रश्न का समाधान मेरे परम स्नेही मित्र राजा हिम्मत सिंह करेंगे, क्योंकि वे तलस्पर्शी विद्वान् और गम्भीर विचारक हैं, आपको मैं सीलबन्द पत्र देता हूँ, आप वह उन्हें दे देवें । साथ ही हमारे लक्ष्मी जी के उपासक पण्डित जी को मार्ग में खर्च के लिए या अन्य किसी आवश्यक कार्य में धन की आवश्यकता हो तो मैं उन्हें ग्यारह लाख रुपए भी देता हूँ । सरस्वती के उपासक पण्डित जी को धन की आवश्यकता है ही नहीं ।" राजा ने बन्द पत्र और रुपए देकर दोनों पण्डितों को रवाना किये । दोनों पण्डित चलते-चलते राजा हिम्मतसिंह के राज Jain Education Internationa Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग दरबार में पहुँचे। अभिवादन कर उन्होंने राजा अजित सिंह का बन्द पत्र राजा के हाथ में दिया । पत्र पढ़ते ही राजा के आश्चर्य का पार न रहा पत्र में सिर्फ इतना ही लिखा था कि'इन दोनों पण्डितों को शीघ्र ही फाँसी दे देना।' तुम्हारा __ अजितसिंह राजा विचार में पड़ गया कि इन्हें फांसी की सजा क्यों दी गई है ? पत्र में कुछ भी स्पष्टीकरण नहीं था। विना कारण मित्र पर सन्देह भी तो नहीं किया जा सकता था। मित्र के पत्र के सन्देश को आवश्यक समझ कर राजा ने उसी समय घोषणा की कि-'कल मध्याह्न के बारह बजे इन दोनों पण्डितों को फांसी दी जायेगी। इस समय इन दोनों पण्डितों को नजर कैद कर दिया जाय।" राजा की उपरोक्त घोषणा सुनते ही लक्ष्मी के उपासक पण्डित के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी। उसे यह स्मरण ही नहीं आ रहा था कि किस कारण राजा ने उसे फांसी की सजा दी है । मृत्यु के भय से पण्डित का कलेजा कांपने लगा। सिर चकराने लगा। वह उस मृत्यु दण्ड से बचना चाहता था। सरस्वती के उपासक पण्डित ने अपने साथी से कहा--"आप तो धन के इतने गुण गाते थे। राजा ने आपको ग्यारह लाख रुपए भी अर्पित किये हैं। वे रुपए Jain Education Internationa Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ो कौन ? संकट के समय भी आपके काम में नहीं आयेंगे तब कब आयेंगे । आपको धन के द्वारा बचने का उपाय करना चाहिए।" प्रथम पण्डित ने कहा-"वाह मित्र ! तुमने खूब याद दिलाई। जब मेरे पास ग्यारह लाख रुपए हैं तो मुझे मारने वाला कौन है। फांसी की सजा अभी-अभी परिवर्तन करा दूगा। ग्यारह लाख रुपए में मंत्री आदि क्या स्वयं राजा भो खरोदा जा सकता है। उसने उसी समय अनुचर के द्वारा कनिष्ठ मंत्री को बुलाया और कहा-"तुम ऐसा कोई उपाय करो, जिससे मैं फांसी की सजा से मुक्त हो सकू, पुरस्कार के रूप मैं तीन-चार लाख रुपए अर्पित करूंगा।" तोन-चार लाख रुपए का नाम लेते ही कनिष्ठ मंत्री के मुह में पानी आया पर दूसरे ही क्षण कुछ विचार कर बोला-'मेरे से यह कार्य नहीं हो सकेगा। राजा जान जायेगा तो परिवार सहित मुझे फांसी पर चढ़ा देगा । आपका यह कार्य तो हमारे प्रधान मंत्री कर सकते हैं। मंत्री की सलाह से उसने प्रधान मंत्री को भी बुलाया और एकान्त में ले जाकर कहा कि-"आप मुझे फांसी की सजा से मुक्त करवा देंगे तो ग्यारह लाख रुपए भेंट में दंगा । ग्यारहलाख का नाम सुनते ही प्रधान मंत्री भी विचार में पड़ गये, उन्होंने कहा- "मैं प्रयत्न करता हूं।" वे राजा के पास में गये और उन्हें फांसी से मुक्त करने को कहा। Jain Education Internationa Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग राजा ने स्पष्ट इन्कार करते हुए कहा - "यह असम्भव है, मैं मित्र के साथ कभी भी विश्वासघात नहीं कर सकता । मित्र का कार्य मुझे करना ही होगा ।" प्रधान मन्त्री ने राजा का अन्तिम निर्णय लक्ष्मी के उपासक पण्डित को सुना दिया पण्डित को यह स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि समय पर धन उसको धोखा दे देगा | वह अब निरुपाय हो गया । उसके सामने प्रव बचने का कोई उपाय नहीं था । वह अब सरस्वती के उपासक पण्डित के चरणों में गिर पड़ा, "किसी भी उपाय से मुझे बचा दीजिए, मैं तुम्हारे से प्रारणों की भिक्षा मांगता हूं | ये ग्यारह लाख रुपए तुम्हें अर्पित करता हूं।" उसने आश्वासन देते हुए कहा - " मैं उपाय करूंगा, घबराओ नहीं, अब तो सिर्फ एक ही घण्टे का समय रहा है किसी दूसरे से सम्पर्क भी नहीं साधा जा सकता है, पर मैं जैसा कहूं वैसा तुम करना, दृढ़ विश्वास है कि फांसी से मुक्त हो जाओगे । 1 ज्यों ज्यों फांसी का समय सन्निकट आ रहा था त्योंत्यों लक्ष्मी का उपासक पण्डित घबरा रहा था, पर सरस्वती के उपासक पण्डित के चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी । दोनों पण्डितों को फांसी के तख्ते के पास लाया गया। सरस्वती के उपासक पण्डित ने कहा - "राजन् ! कल हम आपकी सेवा में आये, पर अभी तक आपने हमें फांसी नहीं दी । आप कितने ढीले हैं, आपके कर्मचारी भी लापरवाह हैं । हम तो कभी से इन्तजार कर रहे हैं ३२ Jain Education Internationa Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ बड़ी कौन ? कि जल्दी फांसी मिले, पर आप इधर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। हमें समझ में नहीं आ रहा है कि आप इतना विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? हमें शीघ्र फांसी दीजिए और अपने मित्र के आदेश का पालन कीजिए"। दूसरा पण्डित भी पोछे-पीछे मित्र की बात दोहरा रहा था। राजा को समझ में नहीं आया कि ये पण्डित मरने के लिए इतने आतुर क्यों हैं ? सभी लोग जोने के लिए प्रयास करते हैं पर ये मृत्यु को वरण करना चाहते हैं। राजा को माजरा समझ में नहीं आया। अन्त में उसने पूछा--- "आप लोग फांसी के लिए इतने आतुर क्यों हो ___दोनों पण्डितों ने कहा-"आपको इससे क्या मतलब ? इसके एक नहीं, अनेक कारण हो सकते हैं, वे कारण हम आपको नहीं बताएगें आप तो अपने मित्र राजा के आदेश का पालन कीजिए।" राजा ने वह कारण जानना चाहा, किन्तु वे बताने से इन्कार होते रहे। राजा का संशय बढ़ता रहा। उसने सोचा इसमें कोई बड़ा रहस्य रहा हुआ है। उसने सरस्वती के उपासक पण्डित को एकान्त में ले जाकर पूछा- "बताओ ! क्या रहस्य है ? तुम्हारे को मरने में इतनी रुचि क्यों है ?" उसने कहा-"कुछ नहीं, आप तो अपना कार्य कीजिए, मरने के पश्चात् आपको स्वत: मालूम हो जायेगा।" Jain Education Internationa Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ फूल और पराग राजा ने कहा-"साफ-साफ बता दो, तुम्हारे सभी अपराध मैं क्षमा करता हूं, और प्रसन्न होकर दस लाख रुपये भी देता हूँ।" उसने कहा- ''महाराज ! बात यह है कि कुछ दिन पूर्व हमारे राजा के पास एक हस्तरेखा निष्णात विद्वान् आया । हम भी राजा के पास ही बैठे वार्तालाप कर रहे थे। उसने पहले महाराजा का हाथ देखा, फिर हम दोनों का। उसने महाराजा को बताया कि हम दोनों के ग्रह बहुत ही अशुभ हैं । ये जिस राज्य में मरेंगे, वहां का राजा मर जायेगा, और उसका सारा राज्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा, एतदर्थ महाराजा ने हमें आपके पास भेजा है। हमारी मृत्यु उनके राज्य में न हो जाए, यह उन्हें भय था।" हिम्मतसिंह ने जब यह रहस्यमयी वार्ता सुनी तो स्तब्ध रह गये। वह विचारने लगे मेरे साथ विश्वासघात किया है । वह स्वयं को तथा अपने राज्य को बचाने के लिए मुझे व मेरे राज्य को समाप्त करना चाहता था । समय आने पर मैं इसका बदला लूंगा। इन दोनों को शीघ्र ही राज्य की सीमा के बाहर निकाल दू। उसने शीघ्र ही फांसी की सजा रद्द करदी और दोनों को अपने रथ में बिठाकर अनुचरों को कहा कि इन्हें राज्य की सीमा के पार पहुँचा दो, मार्ग में कहीं ये अस्वस्थ न हो जायें, यह ध्यान रखना।" Jain Education Internationa Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ो कौन ? __दोनों पण्डित राजा अभयसिंह को राजसभा में पहुँच गये । लक्ष्मी के उपासक पण्डित का चेहरा गुलाब के फूल की तरह खिल रहा था। राजा समझ गया कि लक्ष्मी पर सरस्वती की विजय हुई है। राजा ने सरस्वती के उपासक पण्डित को सवा लाख रुपयों की थैली समर्पित कर सन्मानित किया। अपने मित्र राजा हिम्मतसिंह को भो सत्य तथ्य का परिज्ञान करा कर उसके भ्रम को मिटा दिया । Jain Education Internationa Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयणल्ल देवी मयणल्लदेवी चन्द्रपुर के राजा कादम्बराज जयकेशी की पुत्री थी। उसका रूप इतना सुन्दर नहीं था जितना उसका हृदय था । जब से उसने गुजरात नरेश भीमदेव के पुत्र कर्ण की शौर्यपूर्ण वीर गाथाएं सुनी, वह उसके प्रति आकर्षित हो गई। उसको वह दिल से चाहने लगी । भीमदेव के पश्चात् कर्ण गुजरात के गौरवशाली सिंहासन पर आसीन हुआ । कर्ण जैसे राजा को प्राप्त कर प्रजा प्रसन्नता से फूल रही थी । कर्ण, कर्ण की तरह बहादुर थे । उनका सौन्दर्य दर्शकों के दिल को लुभा लेता था । श्रवण कुमार की तरह कर्ण मातृ भक्त भी था, वह अपनी माता उदयमती का हृदय से आदर करता था, उसकी आज्ञा उसके लिए अनुल्लंघनीय थी । मल्लदेवी किशोरावस्था को पारकर युवावस्था में प्रवेश कर चुकी थी। राजा जयकेशी ने उसके विवाह की चर्चा प्रारंभ की। मयणल्लदेवी ने कहा - " पिताजी । मैं चालुक्य नरेश कर्ण के अतिरिक्त किसी दूसरे का वरण नहीं करूंगी। विवाह की भले ही बाह्य रीति रश्मियाँ ३६ Jain Education Internationa Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयणल्ल देवो ३७ नहीं हुई हो किन्तु अन्तर्ह दय से मैं उनको वरण कर चुकी हूं। आर्य नारी प्राण को त्याग करके भी प्रण को निभाना जानती है।" राजा जयकेशी ने दीर्घ निश्वास छोड़कर कहा"पुत्रो ! तुम्हारा विचार ठोक है। पर चालुक्य नरेश के साथ हमारा मैत्री सम्बन्ध नहीं है। वह इन दिनों में भारत पर विजय वैजयन्ती फहराना चाहता है। उसके विचार इस समय आसमान को छू रहे हैं। हम उसके सामने तुम्हारे विवाह का प्रस्ताव रखें, यदि वह सहर्ष हमारे प्रस्ताव को स्वीकार करले तो हमारो विजय, है, यदि वह प्रस्ताव को ठुकरा दे तो युद्ध अनिवार्य हो जाएगा। हम नहीं चाहते हैं कि उनके साथ युद्ध करें। युद्ध कर कर्ण को विवाह के लिए प्रसन्न करना अति कठिन है। ___मयणल्लदेवो के सामने पिता की स्थिति स्पष्ट थी। वह पिता को अपने लिए कष्ट की आग में झुलसाना भी नहीं चाहती थी। उसने कहा___"पिताजी ! युद्ध कर उनको विवाह के लिए विवश करना मैं नहीं चाहती। वे मेरे आराध्यदेव हैं, मैं ऐसा प्रयत्न करूगी कि युद्ध का प्रश्न ही उपस्थित न हो। आप मुझे उनकी सेवा में जाने दीजिए। वे चाहे मुझे स्वीकार करें या न करें, पर मैं तो उनको स्वीकार कर हो चुकी हैं। उनके चरणों के अतिरिक्त अब मेरी कहीं पर भी गति नहीं है।" पुत्री के हठ को देखकर राजा जयकेशो ने स्वीकृति Jain Education Internationa Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ फूल और पराग दी । मयणल्लदेवी अपने अनुचर तथा सखी सहेलियों के साथ चल पड़ी । जयकेशी ने एक दूत राजा कर्ण के पास भेजा । दूत ने मयाल्लदेवी का फोटू तथा राजा का सन्देश कर्ण को दिया कि एक अनमोल वस्तु मैं आपको भेंट भेज रहा हूं उसे स्वीकार कर अनुगृहित करें । राजा कर्ण उस अनमोल वस्तु को देखने के लिए नगर से बाहर आये । मल्लदेवी ने राजा कर्ण से विवाह का प्रस्ताव रखा । किन्तु कर्ण ने शारीरिक सौन्दर्य के अभाव में उसके प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया । मयरगल्लदेवी ने कहा - " पतिदेव ! आपने आर्य कन्या को पहचाना नहीं है, आप उसके देह को देख रहे हैं, देही को नहीं, उसके रूप को देख रहे हैं स्वरूप को नहीं । आप भले ही मुझे ग्रहण करें या न करें, मैं तो आपको ग्रहण कर चुकी हूं। आप ग्रहण नहीं करते हैं तो अब इस देह का उपयोग ही क्या है यहीं पर चिता में जलकर भस्म हो जाती हूँ । राजकुमारी के आदेश से चिता तैयार की गई । चिता में प्रवेश करने के लिए राजकुमारी ज्योंही कदम बढ़ा रही थी, त्योंही राजमाता उदयमती वहाँ आगई । उसने राजकुमारी को हाथ पकड़कर रोक दिया और पुत्र कर्ण की ओर मुड़कर बोली- "पुत्र ! तू जीवित है, तेरे सामने तेरी पत्नी चिता में प्रवेश करे, यह कहाँ का न्याय है ? मेरी वध चिता में कभी भी प्रवेश नहीं कर Jain Education Internationa Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयणल्लदेवो ३६ सकती, पुत्र के विचारों में परिवर्तन लाने के लिए मुझे स्वयं चिता में प्रवेश करना होगा। तू चमड़ी की परख करनेवाला चमार है, हृदय को देखने वाला इन्सान नहीं। मुझे ऐसा मालूम होता है कि मेरा पुत्र इस विचारधारा का होगा, मेरे उज्ज्वल दूध को लजायेगा तो मैं तुझे कभी का खत्म कर देती।" राजा कर्ण माता के चरणों में गिर पड़ा। 'माता! मैंने नारी जाति का भयंकर अपमान किया है, मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।" विधि सहित मयणल्लदेवी का पाणिग्रहण राजा कर्ण के साथ सम्पन्न हुआ। मयगल्लदेवी के एक पुत्र हुआ, जिसका नाम सिद्धराज था । सिद्धराज की वीरता, धीरता, सरलता और सदाचार किस से छिपा है। एक शब्द में कहा जाए तो सिद्धराज गुजरात का ही नहीं, भारत का सच्चा गौरव था । चालुक्य वंश के इतिहास में मयणल्लदेवी का नाम आदर्श पतिव्रता और आदर्श माता के रूप में युग-युग तक चमकता रहेगा। Jain Education Internationa Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अभिमान गल गया प्रस्तुत प्रसंग अठारहवीं शताब्दी का है । जैन जगत् के ज्योतिर्धर विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी गुजरात में पादविहार करते हुए जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग निष्ठा, संयम प्रतिष्ठा उत्पन्न कर रहे थे। वे एक बार विहार करते हुए खंभात पहुँचे। खंभात के भावुक भक्तों ने और श्रद्धालु श्रावकों ने उनका हृदय से स्वागत किया। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वक्तृत्व की सभी मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे। उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन की, प्रथम गाथा, के प्रथम पद 'संयोगा विप्पमुक्कस' इस पर वर्षावास के चार माह तक प्रवचन चलता रहा। उपाध्याय जी के सूक्ष्म विश्लेषण, मार्मिक विवेचन को सुनकर साक्षर और निरक्षर सभी मुग्ध हो गये। नास्तिक भी आस्तिक बन गये, प्रतिकूल भी अनुकूल होगये, रागी भी त्यागी हो गये। वैदिक विद्वानों ने यशोविजय जी के पाण्डित्य की प्रशंसा सुनी। वे उनकी परीक्षा लेने के लिए एक शिष्ट ४० Jain Education Internationa Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमान गल गया ४१ मण्डल लेकर उनके पास पहुंचे। उन्होंने कहा - "मुनिवर ! आपकी वक्तृत्व शक्ति की प्रशंसा हमने बहुत सुनी है । किन्तु हम 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' मानने वाले व्यक्ति नहीं हैं। हम तो तभी आपकी विद्वत्ता स्वीकार करेंगे जब आप हमारे सामने हमारे द्वारा दिये गये विषय पर एक घण्टे तक संस्कृत भाषा में धाराप्रवाह प्रवचन करेंगे ।' यशोविजय जी ने स्वीकृति प्रदान की । t पण्डितों ने कुछ क्षण रुक कर फिर कहा - "देखिए, प्रवचन में यह भी स्मरण रखिएगा कि कहीं एक भी दीघ मात्रा न आने पाये । उपाध्याय जी ने यह भी स्वीकार किया । 'मुक्ति' इस विषय पर जब उन्होंने धारा प्रवाह संस्कृत भाषा में दार्शनिक विश्लेषण प्रस्तुत किया तो सभी विद्वान विस्मय से विमुग्ध हो गये । उन्होंने उनके प्रवचन की प्रशंसा करते हुए विशिष्ट उपाधि से उनको समलंकृत किया । चारों ओर उपाध्याय जी को कीर्ति कौमुदी दमकने लगी । प्रशस्तियां गाई जाने लगी । - 1 लोगों के मुंह से अपनी प्रशंसा सुनकर उपाध्याय जी के मन में भी अहंकार जाग गया। वे स्वयं भी अपने आपको महान समझने लग गये । अपने पाण्डित्य के प्रदर्शन के लिए उन्होंने छोटी सी एक काष्ठ पीठिका रखी जिसके चारों कोनों पर विजय के प्रतीक रूप में चार झण्डियाँ लहलहा रही थीं । Jain Education Internationa Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ फूल और पराग एकबार परिभ्रमण करते हुए यशोविजय जी दिल्ली पहुंचे। उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ। उनकी विद्वत्ता की चर्चा घर-घर में होने लगी। दिन प्रतिदिन प्रवचनों में जनता की उपस्थिति बढ़ने लगी। एक दिन प्रवचन पूर्ण हुआ, एक वृद्ध महिला उपाध्याय जी के पास आयो । वन्दन कर उसने अत्यन्त नम्र शब्दों में निवेदन किया- "गुरुदेव ! मेरी एक जिज्ञासा है, यदि आपको कष्ट न हो तो कृपया समाधान कीजिए। उपाध्याय जी ने कहा-"आप निःसंकोच पूछ सकती हैं।" वृद्धा ने हाथ जोड़कर कहा - "गुरुदेव ! आपके समान और भी कोई विद्वान् है ? क्या भद्रबाहु और स्थलिभद्र आपके समान ही विद्वान थे।" उपाध्याय यशोविजय जी ने सरलता से कहा"बहिन ! तुम तो बहुत ही भोली हो । मेरे से तो बढ़कर अनेक विद्वान हो चुके हैं। भद्रबाह और स्थूलभद्र के साथ मेरी तुलना नहीं हो सकती। उनका ज्ञान समुद्र के समान विशाल था, मेरा तो एक बूंद के समान भी नहीं है। वे तो चतुर्दश पूर्वधर थे, मेरे पास तो एक भी पूर्व नहीं है। वृद्धा ने पुनः निवेदन किया-"गुरुदेव ! गणधर गौतम, और जम्बू तो आपके समान ही विद्वान् होंगे न ?" उपाध्यायजी-"बहिन ! तुम कितनी भोलेपन की बात करती हो, वे केवलज्ञानी थे। उनकी और मेरी समता कैसे हो सकती है। कहां राई का दाना और कहाँ सुमेरु ? कहां सूर्य और कहाँ नन्हा-सा दीपक ?" Jain Education Internationa Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमान गल गया ४३ वृद्धा ने लाक्षणिक मुद्रा में कहा-'अच्छा गुरुदेव ! आप श्री ने अपने ज्ञान के आधार पर चार झंडियां रखी हैं तो गणधर गौतम और जम्बू कितनी झंडियाँ रखते होंगे, क्योंकि वे तो सर्वज्ञ थे ? उनके वहाँ पर हजारों झण्डियाँ लहराती होंगी न।" वृद्धा के कहने का ढग इतना निराला व सीधा था कि उपाध्याय जी तिलमिला उठे। उनके नेत्र खुल गये। उन्हें अनुभव हुआ कि वे वस्तुतः गलत रास्ते पर हैं। उनका मिथ्या अभिमान नष्ट हो गया। वृद्धा के सामने उन्होंने वे सारी झण्डियां उखाड़ कर फेंक दीं। उनके हृतंत्री के तार झनझना उठे-"माता तुम महान् हो, तुमने मुझे सही मार्ग दिखा दिया।" Jain Education Internationa Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह पारसमणि एक भिखारी झोंपड़ी में बैठा हुआ चटनी पीस रहा था । उस समय एक महान् योगी भिक्षा के लिए उसके द्वार पर पहुँचा | योगो को अपने दरवाजे पर आया हुआ देखकर भिखारी असमंजस में पड़ गया। एक ओर उसके मन में योगी के आगमन से प्रसन्नता का ज्वार आ रहा था. दूसरी ओर यह विचार आ रहा था कि योगी को क्या वस्तु प्रदान करूँ । योगी मेरे द्वार से खाली हाथ लौटे यह मेरे लिए शुभ नहीं है । झौंपड़ी में ऐसी कोई वस्तु भी नहीं है जो योगी को दी जा सके । भिममंगा अपनी झौंपड़ी से बाहर आया । योगी के चरणों में गिरकर बोला- 'ऋषिवर ! आपने मुझ दीन पर अपार कृपा की है । मेरी झौंपड़ी आपके चरणारविन्दों से पावन हुई । आपके दर्शन कर मैं कृत - कृत्य हो गया। आपकी तपः पूत वाणी सुनकर मेरे कान पवित्र हो गये । किन्तु गुरुदेव ! मैं अभागा हूँ, मेरे पास आपश्री को समर्पित करने के लिए कोई भी वस्तु नहीं है । मैं लज्जित हूँ, लज्जा से मेरा सिर झुक रहा है । मैं स्वयं I ४४ Jain Education Internationa Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसमणि भो भीख मांग कर बड़ो कठिनता से अपना पेट भरता हूँ। ___ योगी दरवाजे पर खड़ा-खड़ा ही झौंपड़ी रही हई सारी वस्तुएं देख रहा था। उसकी पैनो दृष्टि में कुछ भी छिपा न था। उसने स्नेह स्निग्ध वाणी में भिखारो को कहा-"बड़ा आश्चर्य है कि तू अपने आपको गरीब मान रहा है। मेरी दृष्टि में तेरे समान कोई भी भाग्यशाली नहीं है। तेरे पास में तो ऐसा अपूर्व खजाना है कि तु हजारों लाखों व्यक्तियों की दरिद्रता को जड़-मूल से मिटा सकता है। योगी की रहस्यमयी वाणी को भिखमंगा समझ नहीं पा रहा था। योगी की बात उसके लिए एक अबूझ पहेली की तरह थी, वह तो आश्चर्य चकित देख रहा था कि योगी क्या कहना चाहता है। उसने अत्यन्त नम्र शब्दों में निवेदन किया-"भगवन् ! आप तो दीनबन्धु हैं, दीनानाथ हैं, आप उनका उपहास और तिरस्कार कभी नहीं कर सकते । दुःखियों के आप साथी हैं, फिर मुझे धनवान् कहकर मजाक नहीं उड़ा रहे हैं, मेरे पर व्यंग्य नहीं कस रहे हैं ? मेरे पास न खाने को अन्न है न तन ढंकने को पूरे वस्त्र है, और न रहने के लिए अच्छी झोंपड़ो है, फिर बताइये-भगवन् ! मैं धनवान् कैसे ? ऋषिप्रवर ! क्या इस प्रकार आपको कहना उचित है ?" योगी तो अपनो धुन में ही मस्त था। उसे लगा यह Jain Education Internationa Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग मेरे सामने झूठी सफाई पेश कर रहा है, उसने उसे फटकारते हुए कहा-"क्यों रे ! तू मेरे सामने भी झूठ बोलता है ? मेरे से भो सत्य-तथ्य छिपाना चाहता है, देख वह झौंपड़ी में क्या पड़ा है, क्या तू उसके महत्त्व को नहीं जानता ?" योगी की बात सुनते ही भिखमंगा तो स्तम्भित हो गया ? उसे समझ में नहीं आया कि एक पहुँचा हुआ योगो इस तुच्छ वस्तु को भी नहीं जानता। वह खिलखिलाकर हंस पड़ा, “क्या प्रभो ! आप इसी के आधार पर मुझे धनवान् कह रहे थे, क्या इसो के आधार पर मुझे लाखों की दरिद्रता मिटाने वाला बता रहे थे। यह तो सिलबट्टा है। मैं इसका उपयोग चटनी पीसने के लिए करता हूँ। भोख मांग कर सूखे लूखे टुकड़े लाता है। वे ऐसे नहीं खाये जाते, उनको खाने के लिए चटनी तैयार करता हूँ, आपको इसमें क्या सोना दिखलाई दिया ?" योगी को भिखमंगे की अज्ञता पर तरस आ गई। उसने मधुर शब्दों में कहा--"वत्स ! तुम्हारी झोपड़ी में सोना ही नहीं, सोना बनाने की अपूर्व चीज है, इससे तुम चाहो जितना सोना बना सकते हो। जिसे तुम सिलबट्टा कहते हो, वह तो पारसमणि है। तुम ना समझ हो, इसलिए इससे चटनी पोसते रहे हो। इससे तुम्हारे सम्पूर्ण दुःख मिट सकते हैं। इसका तुम सदुपयोग करो तो सम्राट से भा महान् बन सकते हो।" Jain Education Internationa Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसमणि सद्गुरु ने कथा का रहस्य स्पष्ट करते हुए कहा"प्रत्येक मानव को शरीर रूपी पारस मरिण मिली है। इससे सभी कष्ट मिटाए जा सकते हैं, आनन्द को प्राप्त किया जा सकता है । पर मूढतावश मानव इस पारस मणि पर भिखारी की तरह भोगों को चटनी पीस रहा है। Jain Education Internationa Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर्य अस्त होने जा रहा था । दिशाएं लाल हो चुकी थीं । महाराजा अजितसिंह को राजसभा विसर्जित हो रही थी। उस समय दोवान चतुरसिंह ने राजा के सन्निकट आकर निवेदन किया, "राजन् ! मैं कल का अवकाश चाहता हूँ। मैं अत्यधिक आवश्यक कार्य से कल राजसभा में उपस्थित न हो सकेंगा।" राजा ने पूछा- "दीवान जो ! ऐसा कौन सा कार्य है ?" दीवान—“राजन् । कल जैन संस्कृति का पावन पर्व पर्युषण का अन्तिम दिन सम्वत्सरी है। संवत्सरी जैन साधकों के अन्तनिरीक्षण का दिन है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का दिन है। इस दिन प्रत्येक साधक का कर्तव्य है कि वह शान्त चित्त से अपने जीवन को टटोले । गत बारह माह में जो भूलें हो चुकी हैं उसका परिमार्जन करे और भविष्य में उन भूलों को पुनरावृत्ति न हो एतदर्थ सावधानी रखे।" ४८ Jain Education Internationa Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार राजा-"दीवान जी ! यह तो बड़ा सुन्दर पर्व है। आप अवश्य हो आध्यात्मिक साधना करें।" दोवान चतुरसिंह आध्यात्मिक साधना करने के लिए प्रातःकाल धार्मिक उपकरणों को लेकर पोषधशाला में पहुँच गया । उसने अपने गले में से मोतियों का हार अन्य आभूषण व वस्त्र निकाले, धार्मिक क्रिया के उपयुक्त वस्त्रों को धारण किये। पौषध व्रत को स्वीकार किया । आत्म-भाव में स्थिर हो गए। पर्वाराधन करने के लिए हजारों व्यक्ति आये हुए थे। एक अभावग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि दोवान के मोतियों के हार पर गिरी। उसने दृष्टि बचाते हुए वह हार चुराया और घर का ओर चल दिया । धर्म स्थानक से निकलकर कुछ दूर गया ही था कि उसके विचारों में उथल-पुथल मच गई। अरे ! मैंने भयंकर अनर्थ कर दिया । पर्व का पावन दिन । धर्म स्थानक में धर्म के बजाय पाप किया है। अन्य स्थलों पर किये गये पाप की मुक्ति धर्म स्थानक में होती है, किन्तु धर्मस्थानक में अजित पाप की मुक्ति कहां होगो ? मुझे धिक्कार है।" वह पश्चात्ताप की आग में एक ओर झुलस रहा था, दूसरी ओर उसके मन में विचार आ रहा था कि उसकी पत्नी छह महीनों से बीमार पड़ी है, कल ही तो दवाई वाले का, अस्पताल का, और डाक्टर का बिल पेमेन्ट करना है, दूध वाले और सब्जी वाले के पैसे चुकाने हैं। लड़कों के स्कूल की फीस देनी Jain Education Internationa Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग है, मकान मालिक को छह मास से किराया नहीं दिया है, वह भी देना है, इस प्रकार अभावों की वेदना कसक रही थी। इसी उधेड़ बुन में वह घर की ओर बढ़ा जा रहा था। घर में पत्नी बिस्तर पर लेटी-लेटो वेदना से कराह रही थी। उसके मन में विचार चल रहे थे, आज सम्वत्सरी का पुनीत पर्व है। स्वास्थ्य ठीक न होने से मैं उपाश्रय में न जा सकी । आज दवाई आदि न लेकर मैं उपवास करूँगी। उसके मन में अनेक विचार आ रहे थे, उसी समय पति ने मकान में प्रवेश किया। उसने पत्नी के हाथ में चमचमाता हुआ बहुमूल्य हार देते हुए कहा-अब तो जीवन में सारी समस्याएं सुलझ जायेंगी। यह लाखों की कीमत का है। हार को देखते ही पत्नी की आंखें चुधिया गई,वह बोली---"नाथ ! यह बहुमूल्य हार कहाँ से लाये हैं ?" उसने घटित घटना सुनाते हुए भविष्य की रंगीन कल्पनाएँ प्रस्तुत की। पत्नी का चेहरा मुरझा गया। "नाथ ! आपने यह अधम कार्य क्यों किया ? आज तो सम्वत्सरी का पावन पर्व । उपाश्रय जैसे पवित्र स्थान में चोरी जैसा निकृष्ट पाप कहाँ तक उचित है ? पाप से प्राप्त किया गया पैसा जीवन में सुख और शान्ति का संचार नहीं कर सकता। चोरी से प्राप्त की गई सम्पत्ति, सम्पत्ति नहीं विपत्ति है। नाथ ! अन्न खाया जा सकता है, धूल नहीं। यह धन भी धूल के समान है, इसका उपयोग नहीं किया Jain Education Internationa Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार जा सकता। मेरी नम्र प्रार्थना है कि आप इसे पुनः लौटा दें।" दीवान चतुरसिंह उस दिन आध्यात्मिक चिन्तन को गहराई में डुबकी लगाते रहे। उन्हें अपूर्व आनन्द का अनुभव हो रहा था। जो सुख, असन, बसन, भवन व परिजन में नहीं मिला,वह सुख आज उन्हें प्राप्त हुआ। साधना का समय पूर्ण हुआ। दोवान आत्मानन्द की मस्ती में झूम रहे थे। वस्त्रों को बदलने के लिए ज्यों हो उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया, त्यों हो देखः नौ लाख को कीमत का हार गायब है। एक क्षण उन्हें हार के जाने का दुःख हुआ, पर दूसरे हो क्षण उन्हें विचार आया, इस दोष का भागी मै स्वयं हूँ। मैं देश का दीवान कहलाता हूँ। अपने स्वार्थ के लिए तो मैं अहर्निश प्रयत्न करता रहता हूँ पर कभी भी मैंने अपने दोन-हीन बन्धुओं को ओर ध्यान नहीं दिया। उनको व्यवस्था नहीं को। पक्षियों में कौआ सबसे निकृष्ट कहलाता है, पर वह कभी भी अकेला नहीं खाता। वह अपने साथियों को खिलाकर स्वयं खाता है । मैं तो उससे भो गया गुजरा रहा । धर्म स्थानक में से, और सम्वत्सरी जैसे महापर्व के अवसर पर हार ले जाने वाला कोई अभाव ग्रस्त व्यक्ति ही होना चाहिए। हार ले जाकर उसने मेरे पर महान् उपकार किया है। मुझे अपने कर्तव्य का भान कराया है। अब से मैं उन सभी भाई बहिनों का ध्यान रखगा अपने कर्तव्य के पालन करने में सदा तत्पर Jain Education Internationa Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.२ फूल और पराग रहूँगा । उसके मन में हार जाने का दुःख नहीं था । उसने हार गुम जाने की बात भी किसी से नहीं की । सुनकर घर गया । उसी अधेड़ उम्र का व्यक्ति - वह गुरुदेव श्री से मंगल पाठ समय अनुचर ने कहा - " एक बाहर खड़ा है । वह आप से मिलना चाहता है ।" दीवान ने उसे अन्दर बुलाया। अन्दर आते ही वह दीवान के चरणों में गिर पड़ा । " दीवान साहब ! मैं इस समय आर्थिक संकट से संत्रस्त हूं । अर्थाभाव के कारण हजारोंहजार आपत्तियां मेरे जीवनाकाश में मंडरा रही हैं । एक ओर मेरी पत्नी बीमार है, दूसरी ओर पढ़ाने की व्यवस्था न होने से लड़का अवारे की तरह इधर उधर घूम रहा है । मैं व्यापार कर अपना व परिवार का जीवन निर्वाह करना चाहता हूँ, पर बिना पूँजी के वह कहाँ संभव है । कृपया आप मुझे इस समय दस हजार रुपए देवें, और गिरवी के रूप में यह हार रख लें ।" यों कहकर उसने अपनी जेब से हार निकाला और दीवान के सामने रख दिया । 1 हार को देखते ही दीवान समझ गया, यह हार उसी का है और इसी ने इसे चुराया है। पर अब हार मेरा नहीं, इसका है । चट से दीवान ने हार के बदले में दस हजार रुपए गिनकर दे दिये । एक दिन दीवान किसी अन्य कार्य में व्यस्त था । उसी समय वह व्यक्ति ग्यारह हजार रुपए लेकर आया । "दीवान साहब ! आप के मधुर सहयोग से मेरे जीवन की Jain Education Internationa Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार ५३ विकट समस्या सुलझ गई । यदि आप उस दिन मुझे सहयोग न देते तो हम तीनों प्राणी आत्महत्या कर लेते । मैं आपका जीवन भर उपकार नहीं भूलंगा। आप व्याज सहित रुपए लोजिए। मैंने इन रुपयों से व्यापार किया, भाग्य ने साथ दिया, हजारों रुपए कमाए अब मैं अर्थसंकट से मुक्त हो गया हूं।" दीवान ने कहा-"भाई । मुझे ये रुपए नहीं चाहिए, आप ये रुपए, आपकी तरह हो जो कष्ट में पड़ा हुआ व्यक्ति हो उन्हें अर्पित कर दीजिएगा। और यह आप अपना हार ले जाइये ।" दीवान ने हार आगन्तुक व्यक्ति के सामने रखा। हार को देखते हो आगन्तुक व्यक्ति के आँखों में आँसू आ गये। "दीवान जी! यह हार मेरा नहीं आपका ही है मैं हार का चोर हूं। मैंने परिस्थितिवश धर्म स्थानक से हार चुराया था। मैंने आपका भयंकर अपराध किया है आप चाहे जो दण्ड प्रदान कर सकते हैं। दोवान-"भाई ! दण्ड के अधिकारी तुम नहीं, मैं हूँ। मैंने अनेक अपराध किये हैं, सर्व प्रथम धर्म स्थानक में मिथ्या अहं का प्रदर्शन किया। दूसरों से अपने आपको महान् बताने के लिए ही मैंने आभूषण पहने थे । दूसरी वात शासन की बागडोर मेरे हाथ में थो, आज दिन तक मैं अपनी असीम तृष्णा को पूरी में लगा रहा । मैंने कभो भी दूसरों को सुध-बुध भी नहीं ली । तीसरी बातमैं राज्य के द्वारा भी ऐसो व्यवस्था करवा सकता था जिससे जन-साधारण का जोवन आनन्द से व्यतीत हो, Jain Education Internationa Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग पर यह भी मैंने नहीं किया। मेरे कारण तुम्हें ही नहीं, अन्य अनेक व्यक्तियों को ऐसे कार्य करने पड़े होंगे, मुझे अब इसका प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए।" सेठ प्रायश्चित्त के अधिकारी वस्तुतः आप नहीं मैं हूँ, क्योंकि मैंने चोरी की है।" ___ दीवान-अच्छा, हमारे लिए श्रेयस्कर यही है कि हम दोनों सद्गुरुदेव के पास जायें। सद्गुरुदेव हमारे को सही मार्ग दर्शन करेंगे। दोनों ही सदगुरुदेव के पास पहुंचे शुद्ध हृदय से पापों की आलोचना को चोर को गुरुदेव ने कहा-"तुमने स्पष्ट रूप से पाप को स्वीकार कर लिया इसलिए तुम पाप से मुक्त हा गये। दीवान जी को भी परिग्रह परिणाम व्रत स्वीकार करना चाहिए। अपने स्वधर्मी भाइयों के लिए, दीन और अनाथों के लिए मुक्त हाथ से सहयोग देना चाहिए। स्वहित के साथ परहित को भी नहीं भूलना चाहिए। दीवान ने गुरुदेव की बात स्वीकार की। उसने लाखों की सम्पत्ति जनजीवन के कल्याण के लिए समर्पित कर दी। हजारों व्यक्तियों के जीवन का नव निर्माण कर दिया। अधिकार का ऐसा सदुपयोग किया कि राज्य में सुख की वंशी बजने लगो। Jain Education Internationa Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मेरा संवत् चलेगा? चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के दिन, दिल्ली में अपूर्व चहलपहल थी। जन-जन के मन में आनन्द की उमियां उठ रही थीं। क्या बालक, क्या युवक और क्या वृद्ध सभी के चेहरे प्रसन्नता से खिले हुए थे। सैकड़ों व्यक्ति अभिनव वस्त्रों को धारण कर इधर से उधर जा रहे थे। स्थान स्थान पर उत्सव भी मनाया जा रहा था। कहीं गायन मण्डली गा रही थी, कहीं नृत्य मण्डलो नाच रही थी : बादशाह अकबर ने राजमहल में बैठे बैठे यह सारा दृश्य देखा। उन्होंने बीरबल से पूछा-बोरबल ! आज कौन सा पर्व है ? किस कारण यह उत्सव मनाया जा रहा है ?" __ वीरबल ने कहा-''जहांपनाह ! आज से हिन्दुओं में नूतन वर्ष का प्रारम्भ है। आज से नया विक्रम सम्वत लगेगा। बादशाह ने कहा-"वीरबल ! मेरी भी इच्छा है कि मेर। भी संवत् चले । मेरा नाम भी संसार में अमर हो जाए । बतलाओ ! उसके लिए मुझे क्या करना होगा। Jain Education Internationa Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल और पराग वीरबल-जहाँपनाह ! आपका संवत् चल सकता है। संवत् चलाने के लिए जीवन में अनेक विशेषताएँ अपेक्षित हैं। महाराजा विक्रमादित्य के जीवन में अनेक विशेषताएं थीं। उनका जीवन सदगुणों का आगम था । उनके जीवन का एक प्रसंग ही उनके तेजस्वी व्यक्तित्व को बतलाने के लिए पर्याप्त है। एक समय विक्रमादित्य एकाकी घोड़े पर बैठकर विदेश यात्रा के लिए जा रहे थे। भयानक जंगल था, मीलों तक मानव के दर्शन दुर्लभ थे। उस समय उन्हें एक व्यक्ति के रोने की आवाज नाई दी। वे सोधे ही उस व्यक्ति के पास पहुंचे । अरे ! वृद्ध इस सुनसान जंगल में क्यों रो रहे हो ! बताओ तुम्हें क्या कष्ट है ? । वृद्ध ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा- "मेरे दुःख की करुण-कहानी सुनकर क्या करोगे, क्यों अपना समय बरबाद करते हो।” विक्रमादित्य-"मैंने यह प्रण ले रखा है कि दुःखिया के दुःख को दूर किये बिना अन्न-जल ग्रहण न करूंगा, अतः यह बताओ तुम्हें क्या दुःख है ?" वृद्ध ने कहा-हम लोग आर्थिक संकट से संत्रस्त हैं। आर्थिक अभाव के कारण परिवार के प्रत्येक सदस्य में मनमुटाव है, जिससे हमारा सांसारिक जीवन कलुषित हो गया है।" विक्रमादित्य---- "वृद्ध महानुभाव ! मेरे पास इस समय चार अपूर्व वस्तुएं हैं। ये वस्तुएं एक-एक से बढ़कर व चमत्कार पूर्ण हैं। देखो यह हण्डिया है इसमें यह Jain Education Internationa Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मेरा संवत चलेगा ? ५७ विशेषता है कि जैसा भो तुम मन पसन्द भोजन चाहो, . इसमें से प्राप्त कर सकते हो ।" दूसरी यह पेटी है - इसमें यह विशेषता है कि तुम जिस प्रकार के व जितनी संख्या में वस्त्र आभूषण चाहो वह इसको खोलने पर मिल जायेंगे । तीसरी यह थैली है, इसमें से जितनी भी अशर्फियां व रुपए चाहिए प्राप्त किये जा सकते हैं । चौथा यह घोड़ा है, इस पर बैठकर जितने समय में जहां भी जाना चाहो जा सकते हो । किसी से भी रास्ता पूछने की आवश्यकता नहीं। यह पोडा अपने आप लक्ष्य स्थल पर पहुँच जायेगा । इन चारों अपूर्व वस्तुओं में से तुम्हें जो भी वस्तु च. हिए वह एक वस्तु मांगलो । । I वृद्ध ने कहा--"जरा मैं अपने स्वजनों को पूछकर आता कि इन चार में से मुझे क्या लेना है । मेरी झोंपड़ी पास ही की टेकरी पर है । जब तक मैं पुनः न आऊं वहाँ तक तुम खड़े रहना । वृद्ध चला गया, विक्रमादित्य वहीं खड़े रहे । आठ दस घण्टे के पश्चात वृद्ध लौटा । विक्रमादित्य - भाई ! तुमने बहुत ही समय लगा दिया, खड़े-खड़े तुम्हारी कितने समय से प्रतीक्षा करता रहा, बताओ इन चारों वस्तुओं में से तुम्हें एक कौन सी वस्तु चाहिए। वृद्ध-- "मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ।" Jain Education Internationa Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ विक्रमादित्य - "किसलिए नहीं चाहिए ?" वृद्ध - मैं यहाँ से गया, परिवार के चारों सदस्य हम एकत्रित हुए । मैंने चारों वस्तुओं का महत्त्व बताया। मेरी पत्नी बोली- मैं इतने वर्षों से चुल्हा फूंकती रही हूं। कभी भी मनपसन्द भोजन नहीं खाया। आप हण्डिया मांगलो, ताकि जीवन भर खाने-पीने की तो समस्या न रहे 1 फूल और पराग " पुत्रवधू ने कहा- मुझे तो बढ़िया कपड़े और आभूषण पहनने की इच्छा है, अतः आप अन्य वस्तुएं न मांग कर पेटी मांग लें । लड़के ने कहा- हम लोग तो इस भयानक जंगल में पड़े हैं। बाप दादाओं ने इस जंगल में से कभी बाहर निकल कर नहीं देखा कि इस जंगल से बाहर भी कोई दुनिया है या नहीं | हम भी सो तरह घरों में ही अपना जीवन समाप्त कर देंगे, अतः मेरी इच्छा है कि घोड़ा लिया जाय, और खूब विदेशयात्रा को जाय । वृद्ध ने कहा - " मेरी इच्छा थी कि थैली ली जाय । जहां पर धन है वहां पर कोई भी समस्या नहीं है । किन्तु हमारे में समाधान न हो सका। यदि मैं इन चार वस्तुओं में से एक लेता हूँ तो संघर्ष होता, पारिवारिक जीवन में कलह पैदा होता. एतदर्थ मैंने यही निश्चय किया कि कोई भी वस्तु नहीं लेना ।" विक्रमादित्य ने चारों वस्तुएं वृद्ध के हाथ में थमाते हुए कहा - लो ये चारों वस्तुएं तुम्हें देता हूँ जिनको जो पसन्द हो वह ले लेना, तथा आनन्द से रहना । सर्वस्व Jain Education Internationa Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या मेरा संवत चलेगा ? समर्पित कर विक्रमादित्य पैदल ही आगे बढ़ गये । वीरबल ने कथा का उपसंहार करते हुए कहायदि आप भी विक्रमादित्य की तरह सर्वस्व समर्पित कर सकते हैं तो आपका संवत् अवश्य ही चलेगा। बादशाह - "मुझे संवत् नहीं चलाना है, सम्वत् चलाना तो काफी मंहगा सौदा है ।" ५६ Jain Education Internationa Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | खून का असर सेठ मोहनलाल बम्बई के एक बहुत बड़े व्यापारी थे। ऐसा कोई व्यापार नहीं जो वे न करते । व्यापार के क्षेत्र में उनकी बड़ी इज्जत थी। सेठ के चार लड़के, एक एक से बढ़कर सुन्दर, अज्ञाकारो व पढ़े लिखे थे। तीन लड़कों का विवाह हो चुका था। चतुर्थ लड़के विनय कुमार के लिए एक दिन सेठाणी ने कहा- "सेठ मोती लाल जो की लड़की रश्मि का नाम तो आपने सुना ही है न ? लड़की क्या है मानो साक्षात् गुलाब का फल । अध्ययन की दृष्टि से उसने एम०ए०प्रथम श्रेणो से पास किया है । बोलने चालने में भी बड़ी दक्ष है, उसके पिता के पास भी धन की कमी नहीं है, मेरी इच्छा है डाक्टर विनय का पाणिग्रहण उससे कर दिया जाय।" ___ सेठ ने कुछ विचार कर कहा--- "तुम्हारी बात सही है। मैं उनके परिवार से परिचित हूँ। मेरा विचार उसके साथ सम्बन्ध करने का नहीं है, क्योंकि उसकी दादी कुए में गिरकर मरी थी। जीवन के उन पारखियों ने स्पष्ट कहा-"पाणी पीजे छाण, और सगपण कीजे जाण ।" ८ Jain Education Internationa Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खून का असर ६१ सेठाणी ने मुस्कराते हुए कहा - आप तो ऐसी बात करते हैं कि मुर्दों को भी हँसी आ जाये। क्या कभी दादी का असर पोतो में आ सकता है ? दादी की सजा पोती को देना कहाँ का न्याय है ? मेरी हार्दिक इच्छा यही है कि उसकी विनयकुमार के साथ शादी करूँ । उसे मैं अपनी बहूरानी बनाना चाहती हूँ ।" गृहलक्ष्मी के अत्याग्रह के कारण सेठ को उसकी बात माननी पड़ी। अत्यन्त उल्लास के क्षणों में पाणिग्रहण हुआ । विनयकुमार अप्सरा जैसी पत्नी को पाकर फूला नहीं समा रहा था । एक दिन सेठ चिन्तामग्न थे । वे तकिये का सहारा लिये हुए गंभीर मुद्रा में बैठे थे । सेठाणी सेठ के चेहरे 1 । को देखकर ही विचार मग्न हो गई । सेठ की ऐसी गमगीन सूरत उसने पूर्व कभी भी नहीं देखी थी । उसने धीरे से पूछा - " नाथ ! ऐसी क्या बात हो गई जिसके कारण आपका चेहरा इतना मुरझा गया है । आपकी मुख- मुद्रा देखकर ही मैं उद्विग्न हो गई हूँ । सेठ ने गंभीरता से कहा - " कुछ भी कहने जैसी बात नहीं है। दुकान में इतना अधिक घाटा आ गया है कि परिवार की इज्जत रखना भी कठिन है ।" सेठाणी ने अपने सभी जेवर देते हुए कहा - "चिन्ता किस बात की है | आप इन सभी जेवरों को ले जावें और प्रसन्नता से उपयोग करें । सेठ ने कहा - " इतने से जेवर से कार्य नहीं चलेगा । Jain Education Internationa Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग घाटा लाखों का है, यदि बहओं से भी जेवर प्राप्त करो तो संभव है कुछ कार्य हो जाये। सेठाणी ने बड़ी बहूरानी से कहा- "दुकान की स्थिति इस प्रकार हो गई है क्या तुम अपने जेवर दे सकती हो?" बड़ी बहू ने सेठाणी के चरणों में गिरकर कहा"आप क्या बात करती हैं। जेवरों के मालिक तो आप ही हैं,मैं कहां? आप प्रसन्नता से जेवरों को ले जाइए।"उसने उसी समय जितने भो जेवर थे वे सभी सासू के चरणों में रख दिये। आप बिना संकोच के इसका उपयोग करें। घर की इज्जत मेरी इज्जत है, यदि घर को इज्जत जाती हो और गहने तिजोरी में पड़े रहें तो वे किस काम सेठाणी ने बड़ी बह के सभी जेवर सेठ को देते हुए बड़ी बहू की बात विस्तार से सुना दी। सेठ ने कहा"इतने से जेवर से कार्य नहीं होगा। सेठाणी उसो समय मझली पूत्र वधुओं के पास गई, उन्होंने भो सेठाणी की बात सुनते ही सभी जेवर उसी क्षण लाकर दे दिये। सेठ ने कहा-'सेठाणी, तुमने मेरी सारी चिन्ता दूर कर दी है, पर थोड़ा सा जेवर और भी मिल जाता, तो सारी समस्या ही हल हो जाती। सेठाणी छोटी बह के पास गई । उसका उस पर बहुत ही अनुराग था। उसने सारी स्थिति बताकर जेवर माँगा। छोटी बहू रश्मी ने प्रथम तो बात टालने का प्रयास किया । किन्तु जब देखा कि बात टाली नहीं जा सकती Jain Education Internationa Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खून का असर है तो उसने स्पष्ट शब्दों में संकाच टाल कर कह दिया कि आप यदि मेरे पर अधिक दबाव डालेंगी तो में कूए में गिरकर अपने प्राण त्याग दूगी। सासू ने जब छोटी बहू के मुह से यह बात सुनी तो उसके पैर के नीचे की जमीन ही खिसक गई। उसके मुह से एक शब्द भो न निकला। वह तो उलटे पैरों लौट कर सेठ के पास आयी । सेठ तो सेठाणी की मुहरमी सूरत देखकर ही समझ गया कि क्या माजरा है। सेठ ने सेठाणी को आश्वासन देते हुए कहा-“सेठाणो, घबराओ मत । मैंने तो पहले ही कहा था, पर तुमने मेरी बात न मानी। माता-पिता के खून का असर सन्तानों पर कितना गहरा होता है । पैतृक संस्कार कभी भी मिटाने से नहीं मिटते । एतदर्थ ही उस दिन मैंने खानदान की बात कही थी।" सेठ ने सारे गहने लौटाते हुए कहा- "व्यापार में कोई घाटा नहीं गया है, यह सारी बनावटी बात मैंने छोटी बहू की परीक्षा लेने के लिए कहीं।" Jain Education Internationa Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेवर रायपुर के ठाकुर मानसिंह बड़े बुद्धिमान व विलक्षण प्रतिभा के धनी थे । हजारों रुपए वे अपनी प्रजा की सुख सुविधा के लिए खर्च करते । स्थान स्थान पर उन्होंने औषधालय, राठशालएँ, व धर्मशालाए निर्माण की। उनसे माँगकर कोई भी हजारों रुपए ले सकता था, पर उनकी आंख में धूल झोंककर एक पैसा भी लेना कठिन ही नहीं, कठिनतर था। एक दिन ठाकुर के यहां मेहमान आये । ठाकूर ने हलवाई को बुलाया, और दूध मावा, बादाम, पिस्ते, इलायची, केशर, गुलाब के फूल, बेसन, शक्कर आदि जितनी भी सामग्री घेवर बनाने के लिए आवश्यक थी देते हुए कहा- "इसके बढ़िया घेवर बनादो। तुम्हें पारिश्रमिक के रूप में पच्चीस रुपए दिये जायेंगे।" हलवाई ने सोचा "सैकड़ों की संख्या में घेवर निर्माण किये जा रहे हैं, यदि इन घेवरों में से चार घेवर मैं चरा भी लूंगा तो ठाकुर को क्या पता लगेगा । उसने अपने लड़के से कह दिया कि तू मध्याह्न में मेरे भोजन के ६४ Jain Education Internationa Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घेवर ६५ बहाने खाली डिब्बा लेकर आना, मैं उसमें घेवर रख दूंगा और तू वह डिब्बा घर ले आना। मध्याह्न में लड़का हलवाई के पास गया। हलवाई ने इधर-उधर देखकर चार घेवर उस डिब्बे में डाल दिए, और लड़के को कहा- "मैं अभी भोजन नहीं करता यह डिब्बा ले जा।" - लड़का घेवर लेकर घर पर पहंचा। घेवर की मीठी महक से उसके मुंह में पानी आगया। उसने सोचा''हम घर के चार सदस्य हैं और ये घेवर भी चार हैं। इन घेवरों को ठंडा करने से फायदा भी क्या है. क्यों नहीं अभी ही इन्हें खा लिया जाय ।" एक घेवर लड़के ने खाया, एक घेवर उसकी पत्नी ने और एक घेवर लड़के की माता ने खाया। चौथा घेवर हलवाई के लिए रख दिया। उसी समय हलवाई का जमाई जो वहां से बीस मील पर रहता था वह किसी आवश्यक कार्यवश वहां आया, उसने सोचा जब गाँव में आया हूँ तो ससुराल में भी मिलता जाऊं। वह ससुराल पहुँचा। सासु ने सोचा-आज जमाई बहुत दिनों से आये हैं क्यों न भोजन में इन्हें घेवर परुस दिया जाय । बढ़िया घेवर देखकर जमाई के भी मुंह में पानी आ गया और वह घेवर खाकर वहां से चल दिया। हलवाई दिन भर घेवर बनाता रहा । सायंकाल कार्य पूर्ण हुआ । मन में विचार आया कि अब घर जाकर मैं भी घेवर खाऊंगा। वह घर पहुंचा। थाली में रोटी Jain Education Internationa Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग और शक्कर ही दिखलाई दी, उसने तमक कर पूछा"घेवर कहां है ?" हलवाई की पत्नी ने कहा--"एक मैंने खाया, एक लड़के ने, एक लड़के की बहू ने व एक जमाई ने खा लिया है।" हलवाई मन मसोस कर रह गया। उधर ठाकुर ने सभी घेवरों को तुलवाये, घेवरों की गिनती करवाई, जो कच्चा माल दिया गया था उसके तोल को भी मिलाया। ठाकुर ने कहा-"जितना माल दिया गया था उतने माल से चार सौ घेवर बनने चाहिए थे, पर इनमें चार घेवर कम हैं।" हलवाई को उसी समय बुलाया, बताओ चार घेवर कम कैसे हुए ? हलवाई पहले तो आनाकानी करता रहा किन्तु एक दो हन्टर लगते ही वह सत्य बोल गया कि-'मैंने चार घेवर चुराये, पर एक भी मैंने नहीं खाया।" ठाकुर ने कहा"इसे यही सजा है कि एक-एक घेवर के ग्यारह-ग्यारह हन्टर लगा दिए जायें । चवालीस हन्टर खाते-खाते हलवाई की चमड़ी उधड़ गई, वह बेहोश होकर गिर पड़ा, भविष्य में ऐसी भूल न हो इसके लिए मन मे दृढ़ प्रतिज्ञा की। ___कथा के मर्म का समुद्घाटन करते हुए कहा है"कितने ही जीव हलवाई के साथी हैं, वे पाप कृत्य करते हैं सम्पत्ति आदि एकत्रित करते हैं पर वे स्वयं उसका उपयोग नहीं कर पाते, उपयोग उसका दूसरे व्यक्ति करते हैं, पर फल उन्हें भोगना पड़ता है। Jain Education Internationa Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी का न्याय आचार्यप्रवर का प्रवचन चल रहा था। सत्य के मार्मिक, हृदयग्राही विश्लेषण को सुनकर एक युवक सभा में ही खड़ा हुआ। गुरुदेव ! आज से कभी भी मैं असत्य का भाषण नहीं करूंगा। यदि भूल से कभी असत्य वचन निकल गया तो उसी समय कैंची से मैं अपनी जबान काट दूंगा। आचार्य प्रवर ने कहा- "युवक ! भावुकता के प्रवाह मे बहकर प्रतिज्ञा लेना सरल है, पर निभाना तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है।" युवक ने दृढ़ता के साथ वचन दिया "मैं प्रारण की भी परवाह न कर प्रण को निभाऊंगा।" युवक की सत्यनिष्ठा को देखकर सभो उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे। सत्य को उद्घोषणा करने के कारण लोगों ने उसका नाम 'सत्यघोष' रख दिया। सेठ सुमित्र उस नगर से पच्चीस मील दूर एक गांव में रहता था। वह विदेश में व्यापार के लिए जा रहा था। उसके पास पाँच अनमोल रत्न थे। उसने सोचा यह रत्नों की डिब्बी लेकर मैं कहाँ जाऊंगा। ये यहीं Jain Education Internationa Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ फूल और पराग पर किसी विश्वस्त व्यक्ति के वहाँ पर रखदूं । नगर निवासियों से पता लगा कि 'सत्यघोष' के समान सत्यवादी अन्य नहीं है । वह सत्यघोष के पास गया, रत्नों की डिबिया उसके चरणों में रखकर कहा - 'यह मेरी अमानत आप अपने पास रखिए। मैं विदेश जा रहा हूँ, आने पर ले लूंगा ।” सत्यघोष पहले इन्कार होते रहे, फिर उसने कहा - " तुम्हारी इच्छा है तो सामने को पेटी में तुम्हारी डिबिया रख दो, जब भी तुम्हें आवश्यकता हो तब ले जाना । पर यह ध्यान रखना कि यह बात अन्य व्यक्तियों से मत कहना, कहोगे तो यहाँ भीड़ लग जायेगी।" सेठ सुमित्र रत्नों की डिबिया रखकर व्यापारार्थ चल दिया। लाखों की सम्पत्ति कमा कर बारह वर्ष के पश्चात् वह अपने घर की ओर आ रहा था कि मार्ग में उसे तस्करों ने लूट लिया । वह भिखारी के वेश में रत्न लेने के लिए सत्यघोष के पास पहुंचा, और अपनी डिबिया मांगी। बहुमूल्य रत्नों को देखकर सत्यघोष का मन लोभ में फस गया था। लोभी को सत्य कहां ? झिड़कते हुए कहा - " मेरे पास तुम्हारे रत्न कहाँ हैं ? क्या भिखारी के पास रत्न होते हैं ? तुमने मेरे पास कभी भी रत्न नहीं रखे, तुम मिथ्या ही मेरे पर कलंक लगा रहे हो ।" सत्यघोष की यह बात सुनते ही सेठ सुमित्र के आश्चर्य का पार न रहा । क्या सत्यवादी का टाइटिल लगाने वाला स्पष्ट रूप से इन्कार हो सकता है। जो सोने की Jain Education Internationa Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी का न्याय कैंची रखकर दुनिया को यह कहता है कि मुह से एक भी शब्द मिथ्या निकल गया तो मैं अपनी जबान काट दूगा, क्या वह इस प्रकार झूठ बोलता है ?" __सूमित्र ने नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों से एवं वहाँ के राजा से निवेदन किया कि "मेरे पाँच रत्न सत्यघोष ने ले लिए हैं, कृपया आप उन्हें समझाकर मुझे मेरे रत्न दिलवा दीजिए।" किन्तु सभी ने यही कहकर उसकी उपेक्षा की कि "सत्यघोष स्वप्न में भी कभो असत्य नहीं बोल सकता, तू ही झूठा है, और उस पर मिथ्या आरोप लगा रहा है।" सुमित्र निराश होकर नगर में घूमने लगा। एक वृद्ध अनुभवी ने उसे सलाह देते हुए कहा-"अब तेरा न्याय महारानी के अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। तू ऐसा कर,राजमहल के पीछे बगीचा है बगीचे में ऊंचे से ऊँचे वृक्ष पर चढ़ कर तू पुकार, महारानी यदि तेरी पुकार सुनलेगी तो वह तुझे रत्न दिला देगी। वह इतनी बुद्धिमान है कि राजा की गंभीर समस्या भो वह सुलझा देती है।" सुमित्र को वृद्ध को बात तथ्य पूर्ण मालूम हुई। उसे रत्न जाने का उतना दुःख नहीं था जितना दुःख इस बात का था कि जो मिथ्यावादी है, उसे सत्यवादी समझा जा रहा है और जो सत्यवादी है उसे मिथ्यावादी । दूसरे दिन प्रातः काल ही सुमित्र बगो चे में पहुंचा। और वृक्ष पर चढ़कर उसने निम्न दोहा कहा Jain Education Internationa Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० फूल और पराग पाँच रत्न मुज दाबिया, सत्यघोष चण्डाल ! कोई दिलादो दया करी यह मोटा उपकार ।। महारानी के कर्ण-कुहरों में दोहे की आवाज गिरी, रानी ने गवाक्ष में से मुह बाहर निकालकर देखा । वृक्ष पर से एक व्यक्ति पुकार रहा है। रानी ने दासियों से कहा-"ज्ञात होता है यह कोई दुःखियारा है, पूछकर बताओ इसे क्या कष्ट है ?" दासियों ने कहा--- 'रानो जी ! यह तो पागल है।" सुमित्र प्रतिदिन वही दोहा वृक्ष पर चढ़कर बोलता रहा। प्रतिदिन रानी सुनती, रानी का हृदय दया से द्रवित हुआ, उसने कहा- "दासियो ! तुम इसे मेरे पास बुलाकर लाओ, तुम जिसे पागल कह रही हो वह पागल नहीं है, पागल का प्रलाप कभी भी एक सदृश नहीं होता।" रानी के आदेश से दासियों ने सुमित्र को रानी के सामने उपस्थित किया। रानी ने सत्य-तथ्य का पता लगाने के लिए उससे सारी स्थिति पूछी। रानी ने कहा-'सुमित्र! सत्यघोष के रत्न मेरे पास आ गये हैं, लो ये रत्न बताओ इस में तुम्हारे कौन से रत्न हैं ? क्या तुम अपने रत्नों को पहचानते हो? रानी ने रत्न सामने रखे। सुमित्र ने कहा- "रानी जी ! ये मेरे रत्न नहीं हैं। रानी---"आप इन्हीं रत्नों को ले लीजिए। सुमित्र- "मैं दूसरे रत्न नहीं लेना चाहता, मुझे तो अपने ही रत्न चाहिए।" Jain Education Internationa Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी का न्याय ७१ रानी - " अच्छा तो आप अभी जाइए । मैं जब भी बुलाऊँ तब आइयेगा । मैं आपको आपके रत्न दिलाने का प्रयास करूंगी।" सुमित्र चला गया, रानी ने राजा से निवेदन किया" आपके राज्य में एक गरीब व्यक्ति की सुनवाई नहीं हो रही है, यह तो बड़ा अनुचित है ।" राजा - " रानी ! सत्यघोष जैसा व्यक्ति इस संसार में मिलना हो कठिन है, वह कभी भी असत्य नहीं बोल सकता ! सुमित्र ही पागल है ।" रानी - "महाराज ! ऐसा नहीं है, आप यदि मुझे आदेश दें तो मैं न्याय कर सकती हूँ, मुझे पूर्ण विश्वास है कि उसने सुमित्र के रत्न चुराये हैं ।" राजा - " अच्छा रानी ! तुम न्याय करना चाहो तो सहर्ष करो, मैं भी देखू सत्य क्या है ?" रानी ने अपनी गुप्तचर दासियों को भेजकर सत्यघोष को कहलाया कि आपको महारानी बुलाती है । सत्यघोष महारानी के सन्देश को प्राप्त कर अत्यधिक प्रसन्न हुआ । वह सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित होकर राजमहलों में पहुँचा | अभिवादन के पश्चात् उसने पूछा - "क्या आदेश है आपका ?" | महारानी - सत्यघोष जी ! मैंने आपकी बहुत ही प्रशंसा सुनी, दर्शन की इच्छा थी । अब आप पधारे हैं तो कम से कम दिलबहलाने के लिए आपके साथ चौपड - पासा खेलना चाहती हूँ ।" Jain Education Internationa Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फल और पराग सत्यघोष-"महारानी जी! आप यह क्या फरमा रही हैं, यदि राजा सुनेगा तो मुझे जोते-जी फांसी पर चढ़ा देगा।" राजा-"आप तनिक मात्र भी चिन्ता न करें, मैंने राजा से पहले ही अनुमतो प्राप्त करली है। रानी के आदेश को मानकर सत्य घोष चौपड़ पासा खेलने के लिए बैठ गया। रानी ने कहा- “जो पराजित होगा उसे जीतने वाला जो भी मांगेगा वह देना पड़ेगा।" खेल प्रारम्भ हुआ, सत्यघोष पराजित हो गया, रानो ने कहा-"जरा अपनी मुद्रिका निकालकर मुझे दीजिए।" उसने मुद्रिका निकालकर रानी के हाथों में दी। रानी ने कहा- 'मैं जरा पानी पीकर आती हैं आप जरा यहीं बैठिए।" रानी बाहर आयी। दासी को मुद्रिका देते हुए कहा-"तुम सत्यघोष के घर जाओ और कहो कि सत्यघोष ने मुद्रिका दी है और कहा है कि बारह वर्ष पूर्व सुमित्र के पाँच रत्न रखे थे वे दे दो।" दासी उसी समय गई। सत्यघोष की पत्नी को मुद्रिका दिखाकर कहा"सत्यघोष ने रत्न मंगाये हैं वह मुझे दो। वे इस समय आपत्ति में हैं।" सत्यघोष की पत्नी ने कहा-"मुझे पता नहीं रत्न कहाँ रखे हुए हैं।" दूसरा खेल प्रारंभ हुआ, सत्यघोष उसमें भी पराजित हो गया। इस समय रानी ने उससे सोने की कैंची मांग ली जो सत्य घोष ने अपनी जबान काटने के लिए रखी थी। Jain Education Internationa Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ रानो का न्याय पहले के समान ही सत्यघोष के यहाँ रानी ने दासी भेजी । दासी ने उसकी पत्नी से कहा- "सत्यघोष ने यह कैंची भेजी है और कहलाया है कि मैं मृत्यु संकट में पड़ा.. हुआ हूँ । अतः पेटी में जो रत्नों की डिब्बी रखी है वह दे दो ।" सत्यघोष की पत्नी ने सुना, उसे विश्वास हो गया मेरा पति संकट में है । तथापि उसने कहा कि वस्तुतः "मैं तलाश करूँगी कि रत्न कहा हैं ।" तीसरी बार फिर खेल प्रारंभ हुआ। पराजित होने पर इस समय रानी ने उसकी जनोई मांग लो । दासी ने जाकर सत्यघोष की पत्नी से कहा - "देखो न ! यह जनोई उसने मुझे दी है, और कहा है रत्न अवश्य दे दो । यदि रत्न न दोगी तो उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया जायेगा फिर तुझे पश्चाताप करना पड़ेगा । सत्यघोष ने वे ही रत्न मंगाये हैं जो सुमित्र ने रखे थे ।' " सत्यघोष की पत्नी ने देखा, पति आज अवश्य ही संकट में हैं, उन्होंने मुझे अपनी वस्तुएँ भेज कर तीन बार सूचित किया है अतः मुझे अब रत्न दे देने चाहिए। उसने रत्नों की डिबिया निकालकर दासी को देते हुए कहा - "ये वही रत्न हैं जो सुमित्र ने रखे थे ।” दासी रत्नों की डिबिया को लेकर प्रसन्नता से रानी के पास आयी । और सारी बात बता दी । रानी ने सत्यघोष को कहा - "तुम तीन बार हार चुके हो, अब मैं तुम्हारे से खेल खेलना नहीं चाहती । Jain Education Internationa Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ फूल और पराग तुम जाति से ब्राह्मण हो, तुम्हारी वस्तुएं ले करके मैं क्या करूँ। ये तुम्हारी तीनों वस्तुएँ लो और अपने घर जाओ। रानी ने सत्यघोष को विदा किया और राजा को बुलाकर वह रत्नों की डिबिया बताते हुए कहा"मैंने इस प्रकार कला कर सत्यघोष के घर से रत्न मंगवाये हैं।" राजा-"रानी जी! मुझे विश्वास नहीं है। राज खजाने से ही निकाले हों तो क्या पता ?" रानी-"राजन् । हाथ कंगन को आरसी क्या ? क्यों नहीं, सुमित्र को बुलाकर दिखा दिये जायें।" राजा ने राज खजाने से कुछ रत्न निकलवाये, और जौहरियों को दिखाकर उन रत्नों के साथ वे पांचों रत्न भी मिला दिये। और सुमित्र को बुलाया सुमित्र ने उस रत्न राशि में से अपने पाँचों रत्न छांट लिये "राजन् ! ये ही पाँच रत्न मेरे हैं।" राजा अवाक रह गया। में जिसे पागल और झूठा समझता था वह तो सत्यवादी निकला। सत्यघोष के आचरण से राजा को बहुत ही घृणा हो गई। उसे मालूम हुआ वह बगुला था, हंस नहीं। सत्यघोष घर पर पहुँचा, पत्नी के द्वारा सारी स्थिति का पता लगाने पर उसे अत्यंत दुःख हुआ कि उसके पाप का घड़ा फूट गया है। उसने जिन रत्नों को इतने समय तक छिपाकर रखा था वे प्रकट हो गए। वह भय से काँप उठा। वह वहाँ से भगना चाहता था कि राजा Jain Education Internationa Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानो का न्याय ७५ के सिपाही आये, और उसके हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेड़ियाँ डालकर राजसभा में ले गये। राजा ने लाल नेत्र करते हुए कहा-"असत्यघोष ! तेरा अपराध महान् है, मालूम नहीं, तेने सत्य का नाटक करते हुए कितने ही व्यक्तियों को परेशान किया होगा ? तू ब्राह्मण है, इसलिए मैं तुझे फांसी की सजा नहीं देता। मैं तेरे सामने तीन सजाएं रखता हूँ, तीन में से जो तुझे पसन्द हो वह ले सकता है।" पहली सजा है-"जितना भी तेरे घर में धन है वह दे दो।" दूसरी सजा है-"हमारे पहलवान की तीन मुष्टि खालो।" तीसरी सजा है-"तीन थाल भर क र गाय का गोबर खालो।" सत्यघोष तो लोभी प्राणी था उसने प्रथम तोसरी सजा मंजूर की। गाय का गोबर मंगाया गया, उसने बड़ी मुश्किल से एक थाल गोबर खाया । दूसरा थाल सामने आया, पर देखते ही वमन होने लगा। राजा ने कहा-"घबराने की आवश्यकता नहीं है, अब तुम चाहो तो तीन पांती का धन दे दो। धन तो नहीं दे सकता, दो मुट्ठी मार खा सकते हो । पहलवान ने सिर पर ज्यों ही मुष्टि का प्रहार किया, वह बेहोश होकर गिर पड़ा। सुमित्र ने कहा-“राजन् । मेरी नम्र प्रार्थना है इसे Jain Education Internationa Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ फूल और पराग मत मारो। इसे मुक्त कर दो। इसने अपने पाप का फल बहुत पा लिया है ।" लोगों ने देखा - वास्तव में जो सत्यवादी है, उसका हृदय करुणा पूरित है, जबकि सत्य का नाटक खेलने वाला कितना निर्दय एवं लोभी है ।" Jain Education Internationa Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनी जैसी भरनी सेठ सागरदत्त चम्पा नगरी का प्रसिद्ध व्यापारी था। उसके पास अब्जों की सम्पत्ति थी। धन के अम्बार लगे हुए थे किन्तु वह एक नम्बर का मक्खीचूस था । चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाय यह उसका सिद्धान्त था । पैसे को परमेश्वर मान कर रात-दिन उसी की अर्चना में लगा रहता था। सेठानी माया पति की कृपणता से संत्रस्त थो। वह उसे अनेक बार कहती, पर उसके कहने का सागर सेठ पर कोई असर नहीं होता। वह मन मसोस कर रह जाती। सागर सेठ कभी भी उसकी आज्ञा पूरी नहीं करता । निराशा का विष पीते-पीते उसकी सभी आशाएं मर चुकी थीं। वह बिलकुल नीरस जीवन जी रही थी। शादी के पूर्व जब उसने सुना था कि उसका पति महान् धनवान है तो उसके मन में अनेक कल्पनाएं उबुद्ध हुई थीं। उसने मन में अनेक रंग-बिरंगी आशाएं संजोई थीं, पर कृपण सागर ने उसकी सभी आशाओं पर पानी फेर दिया था। वह अपने प्यारे पुत्रों को उच्च शिक्षण ७७ Jain Education Internationa Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग देना चाहती थी, उन्हें बढ़िया खिलाना-पिलाना चाहती थी, किन्तु सागर के सामने उसकी एक न चली। सेठ सागर के चार पुत्र थे। अरविन्द, गौतम, दिलीप, और प्रवीण । चारों का रूप सुन्दर था। युवावस्था आने पर भी सेठ सागर उनकी इसीलिए शादी करना नहीं चाहता था कि व्यर्थ ही क्यों खर्च किया जाय । माया तिल-मिला उठती, कैस लालची आदमी से उसका पल्ला पड़ा है। ____एक दिन नगर के लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने सागर को बुरी तरह से फटकार दिया । तुम्हारे पास इतना धन है तथापि लड़कों की शादो क्यों नहीं करते । उनके तीखे व्यंग्यबाणों से सागर घबरा गया। विवश होकर उसे लड़कों की शादी करनी पड़ी। आशा, उषा, वर्षा, और भारती ने प्रसन्नता पूर्वक स्वसुर गह में प्रवेश किया। माया पुत्र वधुओं को देखकर फूली न समाई। उसका मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा । उसके जीवन में अभिनव आशाएं चमकने लगीं। प्रत्येक कार्य में नया उल्लास नाचने लगा। जीने का क्रम ही बदल गया। प्रतिदिन नित नई मिठाइयां बनने लगीं । शाक-सब्जी, फल, दूध, शक्कर घी आदि के बिल देखकर सेठ का तो मस्तिष्क ही चकरा गया। घर आकर वह माया पर उबल पड़ा-"तू तो मेरा घर बर्वाद करने पर तुली हुई है। देखो न ! एक महोने में कितना खर्च कर दिया है। मैं यह निरर्थक खर्चा कभी बरदास्त नहीं कर सकता। Jain Education Internationa Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतो जैसो भरनो ७६ I बहुएं क्या आयी हैं तू तो सातवें आसमान में पहुंच गई है ।" माया पति की कंजूसाई से तंग आ चुकी थी, वह व्यर्थ ही क्लेश करना नहीं चाहती थी । और न अपने सामने अपनी बहुओं को भूखे मरते देखना चाहती थी । उसने धीरे से रात्रि में जहर खाया और सदा के लिए आंख मूंद लो । माया के मरने पर भी सागर का दिल न पसीजा | उसने सोचा यदि लड़के घर पर रहेंगे तो कभी भी खर्चा कम नहीं हो सकेगा । क्यों नहीं इन्हें विदेश भेज दूं । एक दिन सेठ ने अपने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा" पुत्रो ! घर का खर्चा बढ़ गया है, तुम्हारो शादी में भी काफी खर्च करना पड़ा है, पर आमदनी वही पुरानी चल रही है अतः तुम विदेश जाओ और धन कमाकर लाओ । लड़कों ने कहा "पिता जी । जैसा भी आपश्री का आदेश होगा हम सहर्ष पालन करेंगे ।" लड़कों ने अपनी पत्नियों से कहा - " पिता के आदेश से हम चारों विदेश यात्रा के लिए प्रस्थित होने वाले हैं ।" पत्नियों ने कहा - "नाथ | आपके अभाव में हम यहाँ कैसे रह सकेंगी । आपके पिताजी का स्वभाव तो बड़ा विचित्र है ।" 1 " किन्तु हम विना पिता श्री की अनुमति के तुम्हें साथ नहीं ले जा सकते । हमें आशा ही नहीं दृढ़ विश्वास है कि वे कभी भी अनुमति नहीं देंगे । तुम्हें यहीं रह कर पिता श्री की सेवा करनी है"- चारों लड़कों ने अपनो Jain Education Internationa Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग पत्नियों से कहा और वे शुभ मूहूर्त देखकर विदेश यात्रा के लिए प्रस्थित हो गए । लड़कों के जाने के पश्चात् सेठ सागर पुत्र वधुओं के पास आया। उसने आदेश के स्वर में कहा - "तुम्हारे पास जितना भी जेवर और धन हो वह सभी मेरे अधीन कर दो। मैं नहीं चाहता कि धन का अपव्यय किया जाय । पुत्रों के खर्चों से तंग आकर ही मैंने उनको विदेश भेजा है । तुम्हें अब भोजन बनाने को आवश्यकता नहीं है, मैंने एक नौकरानी रख दी है वह सुबह और सायंकाल आकर भोजन बना देगी, बताओ तुम कितना खाओगी । चार-चार रोटियां तो तुम लोगों के लिए पर्याप्त होगी न। ६० रोटी के साथ लगाने के लिए चटनी आदि भी तुम्हें दी जायेगी। मैंने नौकरानी को यह भी सूचित कर दिया है कि टिफिन में सोलह रोटियां चटनी और पानी खिड़की से तुम्हें दे दिया करें। तुम्हारे कमरों में गुशलखाना और संडास दोनों हैं अतः इधर उधर तुम्हें कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं । मैं कमरे के बाहर ताला लगाये देता हँ ।" । पिता के घर में स्वतंत्र रूप से घूमने वाली, मन-माना भोजन करने वाली चारों बालाओं को धन के लोभी सागर ने कालगृह की कोठरियों में बन्द कर दिया । आशा, उषा, वर्षा और भारती ने सोचा- " अब रोते बिलखते हुए जीवन को बरबाद करना बुद्धिमानी नहीं है । सहज रूप से हमें धर्म साधना का अवसर मिला है । Jain Education Internationa Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनी जैसी भरनी आध्यात्मिक चिन्तन से ही हमें अपने जीवन को चमकाना है।" चारों आर्त और रौद्र ध्यान छोड़कर धर्म ध्यान का चिन्तन करने लगीं। तपः आराधना, जप-साधना करने लगीं। छः माह का समय पूर्ण हुआ। एक दिन वे अर्धरात्री में आत्म-चिन्तन में तल्लीन थीं कि एक दिव्य ज्योति प्रकट हुई। सारा कमरा उसके प्रकाश से आलोकित हो उठा । दिव्य-ज्योति ने कहा- "मैं तुम्हारी आध्यात्मिक साधना पर प्रसन्न है, वर मांगो !" आशा, उषा, वर्षा और भारती ने कहा-"हमारी साधना वर मांगने के लिए नहीं है, हम तो आत्म दृष्टि से ही साधना कर रही हैं, हमारे को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है।" ____ ज्योति पुञ्जदेव ने कहा- "देव दर्शन कभी निरर्थक नहीं जाते। कुछ न कुछ तुम्हें मांगना ही होगा।" आशा ने कहा-"आप ऐसा कोई मंत्र हमें दीजिए जिससे हम आकाश में उड़कर घूमने के लिए बाहर जा सकें। छः माह से एक ही कमरे में बंद होने से हमारा दम घुटा जा रहा है।" ज्योति पुञ्ज ने मंत्र दिया और अदृश्य हो गया। चारों बालाएं मंत्र के प्रबल प्रभाव से अनन्त गगन में पक्षी की तरह उड़ती हुई रत्नद्वीप पहुंच गई। प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा को निहार कर वे अत्यधिक प्रसन्न हुई। रत्नद्वीप में रत्नों के ढेर लगे हुए थे। चारों ने एक एक रत्न लिया और अपने स्थान पर पुनः चली आयीं। उन्होंने वे चारों रत्न नौकरानी, जो भोजन देने के लिए Jain Education Internationa Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ फूल और पराग आती थी उसे देते हुए कहा - "तुम हमारे लिए बढ़िया भोजन बना कर लाया करो हम तुम्हारे को प्रतिदिन चार चार अनमोल रत्न देंगी।" नौकरानी रत्नों को देखकर प्रसन्न थी, वह मनोवांछित भोजन लाने लगी । अर्धरात्रि में चारों बालाएं मंत्र के प्रभाव से भव्यभवन से नीचे आयी । भवन के द्वार पर ही एक लकड़ा पड़ा हुआ था, उन्होंने सोचा- आज इसी पर बैठकर हम घूमने जायेंगी । लकड़े पर बैठकर वे चारों घूमने के लिए चलदीं । कुछ समय के पश्चात् ही सेठ सागर लघु शंका के लिए उठा, पर मकान के बाहर लकड़ा न देखकर चिन्तित हो गया कि वह कहाँ गायब हो गया । किस दुष्ट ने चुरा लिया। वह पुनः जाकर सोया पर नींद नहीं आयी । सुबह उठकर देखा तो लकड़ा दरवाजे पर ही पड़ा हुआ था । सागर को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । उसने निर्णय लेना चाहा। दूसरी रात्रि में वह छिपकर बैठ गया कि कौन चोर मेरा लकड़ा चुराता है । अर्धरात्री में चारों पुत्र वधुएं मकान से नीचे उतरीं, लकड़े पर बैठकर आकाश में उड़ गई । सागर सेठ के पेट का पानी हिल गया । उसने पुत्र वधुओं के कमरे में जाकर देखा, ताला द्वार पर लगा हुआ है वे चारों गायब हैं। सेठ इधर-उधर देखता रहा, प्रातः काल होने के पूर्व ही पुत्र वधुए आयीं और अपने कमरे में चली गई । सागर को शंका हो गई ये चारों व्यभिचारिणी हैं, रात्री में कहाँ पर जाती हैं जरा इसका भी मुझे अता-पता Jain Education Internationa Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करनी जैसी भरनी ८३ लगाना होगा। सुबह होते ही उसने सुथार को बुलाया, और लकड़े को इस प्रकार कुतरवा दिया कि वह उसमें आसानी से सो सके । छिद्र आदि भी बना दिए जिससे हवा आदि आने में दिक्कत न रहे । सायंकाल ही धीरे से वह उसमें जाकर सो गया । आधी रात में पुत्रवधुए उस पर बैठकर आकाश में उड़ीं और रत्नद्वीप पहुँच गईं । लकड़े को एक स्थान पर छोड़कर वे चारों खुली हवा में चहल कदमी करने गईं । छिद्रों से चाँदनी के प्रकाश में सागर ने देखा, वे जरा दूर घूमने के लिए बगीचे में गई हैं, वह लकडे से बाहर निकला । रत्नों की विराट् राशि को देखकर वह पागल हो गया । चारों ओर से रत्नों को बटोरने लगा । लकड़े में रत्न भर दिए, फिर सोचा मैं कहीं बाहर न रह जाऊ, उसने कुछ रत्न भर दिए और अपने शरीर को संकोच कर उसमें बैठ गया। जितने भी अधिक रत्न वह ले सकता था उसने ले लिए । चारों घूमकर वहाँ आयीं एक-एक रत्न लेकर वे लकड़े पर बैठ गई, और मंत्र के कारण लकड़ा आकाश में उड़ा । समुद्र पर होकर वे चारों अपने नगर की ओर बढ़ी जा रही थीं। लकड़े में वजन की अधिकता के कारण चूं चूं की आवाज आ रही थी । आशा ने कहा - " बहिन ! उषा इतने दिनों तक इस लकड़े में चूं चूं को आवाज नहीं आयी, आज किस कारण से यह आवाज आ रही है ।" वर्षा और भारती ने कहा - " तुम्हारी बात सही है ।" Jain Education Internationa Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग आशा-"च्चू को यह कर्ण कटु आवाज मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है, इस आवज ने तो हमारे घूमने के आनन्द को ही किरकिरा कर दिया है।" - उषा ने कहा-'बहिन ! हमें तो इस लकड़े की आवश्यकता ही नहीं है, क्यों न इसे समुद्र में ही फेंक दिया जाय । वर्षा और भारती ने भी उसके प्रस्ताव का समर्थन किया। लकड़ा समुद्र में फेंक दिया गया। गिरतेगिरते लकड़े में से आवाज निकली।" मैं भीतर बैठा हूँ, मेरी रक्षा करना।" बहुओं ने घूरकर लकड़े की तरफ देखा-" दुष्ट ! यहाँ भी हमारा पीछा नहीं छोड़ा। तेरी यही दशा होनी चाहिए थी।" सागर सागर के भीतर समा गया। Jain Education Internationa Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ || बुद्धि का चमत्कार अनिल प्रकृष्ट प्रतिभा का धनी था। उसकी प्रबल मेधा शक्ति से साक्षर और निरक्षर युवक और वृद्ध सभी प्रभावित थे। वह रात-दिन सामाजिक, व राष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने में ही लगा रहता था । वह अपनी मेधा शक्ति से गुरु-गम्भीर समस्याओं को भी इस प्रकार सुलझा देता था कि दर्शक देखकर चकित हो जाते । उसका सारा समय इसी प्रकार सामाजिक कार्यों में व्यतीत हो जाता। घर की सुध-बुध लेने को उसे फुर्सत ही नहीं मिलती। उसकी लोक प्रियता दिन-प्रति दिन बढ़ती जा रही थी। मधुबाला को पति का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगता था। घर में चूहे एकादशी करें और पतिराज सारे दिन इधर उधर को निरर्थक बातों में ही उलझे रहें, एक पैसा भी न कमावें यह तो सर्वथा अनुचित है, चार बाल बच्चे हैं, कम से कम इनका तो ध्यान रखना ही चाहिए। उसने एक दिन अनिल से कहा-"पतिराज ! इस प्रकार कैसे कार्य चलेगा ? कुछ तो कमाइए न !" Jain Education Internationa Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग अनिल-"मधु ! तू बिल्कुल चिन्ता न कर । समय आने पर मैं लाखों रुपये कमा सकता हूं। मेरी बुद्धि पर तो सभी को आश्चर्य है, जो कार्य अन्य व्यक्ति नहीं कर सकते हैं वह कार्य मैं कर सकता हैं। यदि आकाश भी फट जाय तो मैं उसे सांध सकता हूँ !" मधु-"बातें बनाने में आपके समान अन्य कौन कुशल है। मुझे आपकी बुद्धि पर नाज है, पर कभी चमत्कार दिखाओ तब न ।" अनिल-"हाँ अवश्य दिखाऊंगा।" रात्रि के आठ बजे थे। अनिल अभी घर पर नहीं आया था। मधु उसकी प्रतीक्षा कर रही थी कि वह आजाय तो भोजन करें। तभी द्वार के खटखटाने की आवाज आयी। मधु ने दौड़कर द्वार खोला, पर द्वार पर तो अनिल नहीं, दूसरा व्यक्ति था। चमकदार वेशभूषा और तेजस्वी आकृति से उसे मालम हुआ कि यह युवक राजकुमार होना चाहिए। आगन्तुक युवक ने पूछा--"अनिल कहाँ है, मुझे आवश्यक कार्य है। उससे गुप्त मंत्रणा करनी है।" । मधु-"आते ही होंगे। आप अन्दर पधारिए, और आराम से विराजिए। कुछ सेवा का अवसर दीजिए।" युवक मधु के सभ्यतापूर्ण व्यवहार से प्रभावित हुआ, और कमरे में जाकर आराम कुर्सी पर बैठ गया। अनिल के मुन्न और मुन्नियों से वह मीठी-मीठी बातें करने लगा। मधु ने बहुत ही शीघ्रता से केसर, बादाम पिस्ते, इलायची Jain Education Internationa Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि का चमत्कार श्रादि डालकर गर्म किया, एक मुन्न े को भेज कर हलवाई के वहां से मिठाई और नमकीन वस्तुएं मँगाई । वह स्वयं ही राजकुमार के सामने नास्ता लेकर आयी । उसके प्रेम भरे आग्रह को सम्मान देकर राजकुमार खाने लगा । मधु भी सामने बैठ गई । वार्तालाप से मधु को पता लगा कि राजकुमार की राजा से कुछ अनबन हो गई है और ये अनिल से उस सम्बन्ध में परामर्श करने आये हैं । अल्पाहार का कार्यक्रम पूर्ण हुआ । राजकुमार ने कहा" मेरा जी मचल रहा है, घबराहट बढ़ रही है ।" मधु अन्दर जाकर निम्बू की सिकंजी आदि लाती है तब तक राजकुमार जमीन पर लुढक पड़ा। मधु ने अनेक प्रयास किये, पर राजकुमार स्वस्थ न हुआ । वह सदा के लिए संसार से विदा हो चुका था । राजकुमार की यह अवस्था देख कर मधु के प्राण ही सूख गये । उसका शरीर पसीनें से तरबतर हो गया । उसके आँखों से आँसू चूने लगे । उसने विचारा - ऐसी कौनसी भयंकर भूल हो गई है जिसके कारण राजकुमार को प्रारण गवाने पड़े हैं । उसने सभी वस्तुओं को अच्छी तरह से देखा तब ज्ञात हुआ कि सायंकाल दूधवाली दूध देकर गई पर असावधानी से दूध का वर्तन न ढका गया जिससे उसमें कोई जहरीला जानवर गिर कर मर गया था । राजकुमार के लिए दूध गर्म करते समय बहुत ही शीघ्रता में उसे ध्यान न रहा । उसी समय अनिल ने आवाज दी- दरवाजा खोलो | उसने दरवाजा खोला । अनिल अन्दर आया । मधु ने ८७ Jain Education Internationa Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ फूल और पराग सारी बात अनिल को बताई। अनिल ने गम्भीर होकर कहा---'मधु ! तेने भयंकर भूल की है । राजा जानेगा तो सारे परिवार को सूली पर चढ़ा देगा । राजा का यह इकलौता ही पुत्र था। अनिल की आँखें भी डबडबा गई। कितना अच्छा था वह।" मधु-"नाथ ! अब आँखों से आँसू बहाने से काम न चलेगा। अपनी बुद्धि का चमत्कार दिखाना होगा।" अनिल एक क्षण सोचता रहा, दूसरे ही क्षण उसके चेहरे पर अनोखी चमक आ गई। उसने कहा-"हाँ आज मैं तुम्हें अपनी बुद्धि का प्रभाव दिखाऊंगा। उसने चट से राजकुमार की लाश उठाई, और उसे लेकर घर से बाहर निकल गया। गलियों में अन्धकार था। वह उसे लेकर नगर की मशहूर वैश्या के वहाँ पर पहुँचा । द्वार के सहारे उसे खड़ा कर उसने वैश्या को आवाज दी कि- 'मैं राजकुमार प्रदीप आया हूं जरा द्वार खोलो।" वैश्या ने राजकुमार का नाम सुना तो प्रसन्नता से वह नाच उठी, मेरे धन्य भाग्य हैं कि आज प्रथम बार मेरे यहाँ राजकुमार आये हैं। वह अपने मकान से नीचे उतरी तब तक अनिल तो वहां से नौ दो ग्यारह हो चुका था। वैश्या ने ज्यों ही द्वार खोला त्योंही द्वार के सहारे खड़ी राजकुमार को लाश नीचे गिर पड़ी। राजकुमार को नीचे गिरा देखकर वैश्या के तो होस हवास ही उड़ गये। राजकुमार को मरा हुआ देखकर वह भी बेहोश Jain Education Internationa Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि का चमत्कार हो गई। दासियों ने उसे उपचार कर होस में लाया। राजा अब मुझे किस बेमौत से मारेगा यह कल्पना कर उसके रोंगटे ही खड़े हो गए। दासियों ने कहा- "मालकिन ! घबराने से कार्य न होगा कुछ उपाय करना चाहिए।" वैश्या--"मुझे तो इस समय कुछ उपाय ही नहीं सूझ रहा है। बताओ इस नगर में कौन बुद्धिमान व्यक्ति है, जो मुझे उवार सके। दासियां-"अनिल का तो आपने नाम सुना है न ! वह इतना चतुर है कि बिगड़ी बात को भी सुधार देता है।" वैश्या-"तुमने ठीक कहा । जाओ बीस हजार की थैली उसके चरणों में रखकर कहना कि मालकिन ने आपको शीघ्र बुलाया है, इतने से भी यदि वह आने के लिए प्रसन्न न हो तो और भी लोभ दे देना । दासियां वैश्या के आदेश से अनिल के घर गई । घर का द्वार खल वाकर कहा कि बीस हजार रुपए कृपा कर लीजिए, और मालकिन ने इसी समय आपको बुलाया है अतः चलिए। अनिल-"रात्रि के समय मैं वैश्या के वहां पर नहीं आ सकता, लोग मेरे चरित्र के प्रति शंका करेंगे।" दासियों के द्वारा अत्यधिक अनुनय विनय करने पर और एकावन हजार रुपए देने का अभिवचन देने पर अनिल दासियों के साथ वैश्या के घर गया। वैश्या ने रोते-रोते सारी बात बतादी और प्राणों की भिक्षा मांगी। Jain Education Internationa Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग अनिल ने पहले दासियों द्वारा एकावन हजार रुपए घर पर भिजवा दिये और कहा-'आपने काम तो बहुत ही बुरा किया है पर अब मैं इसे निपटा दूगा । आप यहीं रहें। मेरे साथ किसी को भी आने को आवश्यकता नहीं। वह राजकूमार प्रदीप की लाश को लेकर वहां से चल दिया। लाश को लेकर वह सीधा ही नगर बाहर आया। उस दिन ईद का दिन था। सैकड़ों मुसलमान वहां पर एकत्रित हुए थे। जलसा पूरे यौवन पर था। गैस का प्रकाश जगमगा रहा था । अनिल ने राजकुमार की लाश को जो बढ़िया वस्त्रों से सुसज्जित थी उसे दो वृक्षों के सहारे खड़ी करदी । और उस लाश के पीछे खडे रहकर हाथ में चार-पाँच पत्थर लिए, निशाना लगाकर इस प्रकार मारे की दनादन एक के बाद दूसरा गैस फूटता चला गया। सभा में कोलाहल मच गया, कि किस दुष्ट ने गैस को फोड़ दिये हैं। लोग सभागृह से बाहर आये वहां तक तो अनिल भग कर काफी दूर निकल चुका था। ___मुसलमान भाइयों का खून उबल रहा था वे लकड़ियां और पत्थर को लेकर मारने दौड़े। उन्होंने अंधेरे में वक्ष के पास खड़ा किसी आदमी को देखा, हां यही शैतान है जिसने हमारे गैसों को फोड़ा है। वे सभी उस पर पत्थर और लाठियों की वर्षा करने लगे। लाश नीचे गिर पड़ी। किसी समझदार मुसलमान ने कहा-'जरा प्रकाश कर देखो तो सही यह कौन है ?" ज्यों ही प्रकाश कर देखा त्यों ही राजकुमार प्रदीप Jain Education Internationa Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि का चमत्कार ६१ दिखाई दिया। गजब हो गया, हमने राजकुमार प्रदीप को मार दिया। राजा हमारे गुनाह को कभी भी बरदास्त नहीं करेगा। सभी मुसलमानों को बेरहमी से मरवा देगा। अल्लाताला ! अब क्या करें। तभी मुसलमानों के अगुआ ने कहा--"अनिल को बुलाओ, वही हमारे को मुश्किली से बचा सकता है। चालीस-पचास हजार रुपए तो खर्च होंगे, पर हमारा कार्य हो सकता है। आठ-दस मुसलमान दौड़े हए अनिल के घर गये । उन्होंने दरवाजा खुलवाकर अनिल से सारी बात कही। __ अनिल-"राजकुमार की हत्या कर आप लोगों ने महान् जुल्म किया है । अब आप लोग किसी भी हालत में बच नहीं सकते :" मुसलमानों ने एक लाख की थैली देने को कहा और कहा कि आप हमें बचा दीजिए । लाख रुपए की थैली लेकर अनिल मुसलमानों के साथ घटना स्थल पर आया। उसने मुसलमानों को कहा-"आप सभी यहीं रहें मेरे साथ किसी को भी आने की जरूरत नहीं है। यदि आवेंगे तो उसे प्राण दण्ड भोगना पड़ेगा। सभी भय से वहीं पर बैठ गये। अनिल राजकुमार की लाश को लेकर अंधकार में लुप्त हो गया । वह जंगल के रास्ते से चलकर सीधा ही राजमहल के नीचे जो बगीचा था वहां पहुंच गया। अभी प्रकाश नहीं हो पाया था । उसने इधर उधर देखकर वृक्ष पर रस्सी लगाई और उस रस्सी में राजकुमार को टांग कर भग गया। Jain Education Internationa Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग प्रातः काल राजा घूमने के लिए बगीचे में पहुँचा। राजकुमार प्रदीप को फांसी लिए हुए देखा। उसे स्मरण आया कि कल मैंने जो राजकुमार को उपालंभ दिया था जिसके फल स्वरूप राजकुमार को क्रोध आया और उसने फांसी ली। महान् अनर्थ हो गया। सारी प्रजा मुझे धिक्कारेगो। लोकापवाद के भय से राजा का सिर चकराने लगा।चिन्तन करते हुए उसे ध्यान आया कि अनिल महान् बुद्धिमान है, संभव है वह मुझे कुछ उपाय बता दे । राजा ने शोघ्र ही अनिल को बुलाने अनुचर भेजा ! अनिल शीघ्र ही राजा के पास आया और बोला-'राजन् ! क्या आदेश है ?" __ राजा ने एकान्त में लेजाकर कहा-"कल मैंने प्रदीप को जरा सा उपालंभ दिया था। उसने रात में आत्म-हत्या करली है। अब ऐसा कोई उपाय बताओ जिससे मेरी कीर्ति को कलंक न लगे।" । अनिल ने आश्चर्य मुद्रा में कहा-क्या प्रदीप राजकुमार ने आत्महत्या करली है ! अनर्थ ही नहीं, महान् अनर्थ हुआ । यदि यह जानकारी लोगों को हो जायेगी तो स्थिति बड़ी गंभीर बन जायेगी। एतदर्थ राजन् ! ऐसा किया जाय कि राजकुमार की लाश को राजमहलों में लेजाई जाय और यह जाहिर रूप से सूचित कर दिया जाय कि राजकुमार की तबियत यकायक बिगड़ गई है। पेट में भयंकर दर्द है । डाक्टर और वैद्यों को भी बुलाया जाय पर जिस कमरे में राजकुमार को लेटाया जाय; Jain Education Internationa Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि का चमत्कार ६३ उसी के बाहर उन सभीको बिठाया जाय । कुछ समय तक यह नाटक करने के पश्चात् राजकुमार के निधन के समाचार प्रसारित किये जायें जिससे लोगों को मालूम हो जायेगा कि राजकुमार बीमार होकर मरा है । राजा को अनिल की बात जच गई। वैसा ही किया गया । प्रजा को यह विश्वास हो गया कि प्रदीप राजकुमार अपनी मौत से ही मरा है । राजा अनिल की बुद्धिमानी पर प्रसन्न हुआ । दो लाख की थैली भेंट कर उसे अपना प्रधानमन्त्री बना दिया । अब तो अनिल के घर में आनन्द की बंशी बजने लगी । Jain Education Internationa Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ । नमक से प्यारे राजा चन्द्रसेन ने प्रातः काल ही अपने तीनों पुत्रों को बुलाकर कहा- “बताओ में तुम्हारे को कैसा लगता हूं। तुम मुझे किस प्रकार चाहते हो।" पिता श्री का विचित्र प्रश्न सुन कर तीनों असमंजस में पड़ गये । एक क्षरण तो उन्हें समझ में ही नहीं आया कि क्या उत्तर देना चाहिए। कुछ विचार कर जिनसेन ने कहा"पिताजी ! आप तो मुझे होरे पन्ने माणक मोती जैसे बहुमूल्य रत्नों की तरह प्यारे लगते हैं।" मणिसेन ने कहा-"आप मुझे मिठाइयों की तरह मधुर लगते हैं, फूलों की तरह प्यारे लगते हैं।" अमृत सेन ने बताया-“वस्तुतः आप मुझे नमक की तरह सुहावने लगते हैं।" ___अमृत सेन की बात सुनते ही राजा को त्योंरियां चढ़ गई। मन ही मन में सोचा यह तो मुझे नमक के समान खारा मानता है। अच्छा तो मैं इस इसका फल बता दूंगा। तीनों पुत्रों को विदा किया। गुप्त व्यक्तियों के द्वारा उसने एक हत्यारे को बुलाकर कहा-"आज Jain Education Internationa Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमक से प्यारे ६५ घूमने के बहाने अमतसेन को जंगल में ले जाओ। उसे मार कर उसकी निशानी मुझे बताओ। मैं तुम्हें पुरस्कार के रूप में पाँच हजार रुपए दूंगा । हत्यारे की बाँछे खिल उठी। ___अपराह्न में हत्यारा सुन्दर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर रथ में बैठ कर आया। राजकुमार अमृतसेन से कहा-"देखिए प्रकृति कितनी सुहावनी हो रही है। आकाश में उमड़-घुमड़ कर बादल आ रहे हैं, चलें जरा वन-विहार का आनन्द लूट कर आवें। राजकुमार भी शहरी वातारवण से तंग आचुका था। उसकी इच्छा भी प्राकृतिक सौन्दर्य सुषमा को निहारने की हो रही थी। वह उसके साथ रथ में बैठकर चल दिया। उसने सोचा यह तो हमारे नगर का कोई श्रेष्ठी है। रथ द्रुत गति से जंगल की ओर बढ़ रहा था। हत्यारा उसे वृक्ष लता फल और फूलों का परिचय देता जा रहा था। सरिता के सरस तट पर गहरी झाड़ी थी, रथ रुका ! हत्यारे ने चमचमाती तलवार को चमकाते हुए कहा-"राजकुमार ! नीचे उतरो ! जरा अपने इष्ट देव का स्मरण करो। राजा के आदेश से मैं तुम्हें मारने के लिए यहाँ लाया हूँ। हत्यारे की हुँकार सुनकर राजकुमार दिग्मूढ़ हो गया। पिता ने मुझे मरवाने के लिए यह षड्यंत्र रचा है। उसे स्मरण आया प्रात: मैंने नमक सा प्यारा कहा था यह उसी का प्रतिफल है। खेद है Jain Education Internationa Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग पिता मेरे निर्मल अभिप्राय को न समझ सका। वह हत्यारे के चरणों में गिर पड़ा, आँखों में आँसू बहाते हए उसने प्राणों की भिक्षा मांगी। राजकुमार की भोलीभाली मोहिनी सूरत से हत्यारे का कर दिल पसीज गया। उसके हाथ से तलवार नीचे गिर पड़ी। वह मनही-मन अपने को धिक्कारने लगा कि पैसे के कारण वह एक निर्दोष बालक की हत्या करना चाहता है, यह महान् अन्याय है। दूसरे ही क्षरण उसे विचार आया कि यदि मैंने राजकुमार को न मारा तो राजा मुझे मरवा देगा। उसने राजकुमार को कहा-'तुम दूसरे वस्त्र पहन लो, तुम्हारे वस्त्र मुझे दे दो। और ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां पर तुम्हें कोई पहचानता न हो । यदि तुम नगर में चले आये, राजा को पता लग गया तो तुम्हारे साथ मुझे भी मरना पड़ेगा।" राजकुमार ने स्वीकृति दी कि आप निश्चित रहें, मैं पुनः नगर में नहीं आऊंगा। उसने अपने सभी वस्त्र हत्यारे को दे दिये । हत्यारे ने एक हिरण को मार कर खून से वस्त्रों को रंग दिये । राजा को खून सने वस्त्र दिखलाकर पांच हजार रुपए ले लिये। राजकुमार जंगलों में भटकता हुआ एक नगर में पहुँचा। कई दिनों से भूखा था। एक बूढ़ी माता ने उसके तेजस्वी चेहरे को देखा और उसे अपने पास रख लिया। उस नगर का राजा मर चुका था। राजा के कोई भी पुत्र नहीं था, अतः नवीन राजा बनाने के लिए योजना Jain Education Internationa Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमक से प्यारे चल रही थी। मन्त्रियों के परामर्श से यह निश्चित हआ कि नगर के सभी लोगों को आमंत्रित किया जाय और एक तोता छोड़ा जाय, वह जिसके सिर पर बैठे उसे सर्वानुमति से राजा बना दिया जाय । बुढ़िया ने सुना, वह भी राजकुमार को लेकर राजसभा में गई । निश्चित समय पर तोता छोड़ा गया, देखते ही देखते तोता राजकुमार के सिर पर बैठ गया। मंत्रियों ने कहा"यह तो गरीब बुढ़िया का लड़का है अतः राजा नहीं बन सकता, दुबारा फिर तोता छोड़ा गया, इस बार भी वह राजकुमार के ही सिर पर बैठा । दुबारा भी विरोध होने पर तीसरी बार फिर से तोता छोड़ा गया । किन्तु तीसरी बार भो राजकुमार के सिर पर बैठने से सभी ने उसको राजा बना दिया। राजा अमृतसेन कुशलता से राज्य संचालन करने लगा। एकदिन उसने अपने पिता राजा चन्द्रसेन को निमंत्रण दिया । राजा चन्द्रसेन वहाँ आया। भोजन की श्रेष्ठ तैयारियां की गई। राजा चन्द्रसेन ने अपने पुत्र को नहीं पहचाना। भोजन प्रारंभ हुआ, बढ़िया से बढ़िया मिठाइयां आयीं, सेव, पकोड़ियां और सब्जियां आयीं । राजा चन्द्रसेन ने भोजन चाल किया, पर किसी भी वस्तु में नमक न होने से भोजन का आनन्द नहीं आ रहा था । उसी समय अमृतसेन ने राजा चन्द्रसेन को पूछा-“राजन् । भोजन तो ठीक है न ?' चन्द्रसेन--- "भोजन में और किसी बात की कमी नहीं Jain Education Internationa Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ फूल और पराग है. पर नमक न होने से किसी का भी स्वाद नहीं आ रहा अमतसेन-"राजन् ! हमने सुना था कि आपको नमक अच्छा नहीं लगता। आपने अपने तीसरे पुत्र को इसीलिए मरवा दिया था कि उसने आपको नमक के समान मधुर कहा था।" चन्द्रसेन को अपनी भूल मालूम हुई। उसे आज मालूम हुआ कि वस्तुतः-नमक रसराज है। पुत्र ने जो कहा वह सही था। उसने अपने प्यारे पुत्र को पहचान लिया, पुत्र को गले लगाते हुए कहा-मैंने तुम्हारे तात्पर्य को नहीं समझा था, मैंने तुम्हें मरवाने का प्रयत्न किया, पर तेने मेरी भूल सुधार दी । अमतसेन भी पिता के चरणों में गिर पड़ा। Jain Education Internationa Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ आदमी की पहचान बात बहुत पुरानी है । राजा, मंत्री और एक सिपाही तीनों अपने- अपने घोड़ों पर बैठकर जंगल में शिकार के लिए गये । राजा को दूर एक काला हिरण दिखलाई दिया । राजा ने हिरण के पीछे घोड़ा दौड़ाया, हिरण आगे और राजा पीछे । काफी दूर अपने साथियों को छोड़कर राजा आगे निकल गया । सिपाही राजा की खोज करता हुआ आगे बढ़ा । राजा कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था । सिपाही को दूर टेकरी पर एक झोंपड़ी दिखाई दी । वह सीधा झोंपड़ी के पास आया । झौंपड़ी के बाहर वृक्ष के नीचे एक वृद्ध योगी बैठा था । वह राम की माला फेर रहा था। उसके नेत्र में रोशनी नहीं थी । सिपाही ने सन्निकट आकर पूछा - "अरे योगोड़ा! कोई व्यक्ति इधर से गया है क्या ? योगी ने शान्ति से उत्तर दिया- "भाई, मुझे पता नहीं । सिपाही आगे निकल गया । पीछे से मंत्री भी राजा की तलाश में उधर निकल आया । झौंपड़ी के पास && Jain Education Internationa Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० फूल और पराग आकर उसने योगी से पूछा- "योगीराज! इधर से कोई राजा तो नहीं निकले हैं न ?" योगी- 'मंत्री प्रवर ! राजा तो इधर से नहीं गये हैं, पर एक सिपाही अवश्य गया है। मंत्री ने अपना घोड़ा आगे बढ़ा दिया। मंत्री के जाने के कुछ समय बाद ही राजा भी उधर निकल आया। उसने योगी को नमस्कार कर पूछा-"योगीश्वर ! इधर कोई व्यक्ति तो नहीं आये न ?" योगी ने अपनी आँखों पर हाथ फेरते हुए कहा --- "राजन् । तुम्हारी खोज में मंत्री और सिपाहो आया था।" राजा ने योगी के चेहरे को गहराई से देखा, उसे मालूम हो गया कि योगी के नेत्र ज्योति नहीं है, फिर . भी इसने मुझे राजा कहकर कैसे सम्बोधित किया है। मेरे साथियों को भी यह मंत्री व सिपाही के रूप में किस प्रकार पहचान गया । उसने योगी के सामने अपने हृदय की जिज्ञासा प्रस्तुत की। योगी ने अपनी अनुभव मणि-मंजूषा खालते हुए कहा-"राजन् ! आदमी की पहचान नेत्रों से नी,वारणी से होती है। सबसे पहले तुम्हारी खोज में सिपाहो आया था, उसने मुझे योगीड़ा कहा था--- मैं समझ गया कि यह वारणी किसी उच्च कुल के व्यक्ति की नहीं हो सकती। यह निम्न कुलोत्पन्न सिपाही होना चाहिए। उसके बाद तुम्हारा मंत्री आया था, उसने मुझे योगी राज कहा था-मैं समझ गया यह मंत्री होना चाहिए। Jain Education Internationa Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदमी की पहचान १०१ तुमने मुझे योगीश्वर कहा--बिना राजा के इतनी उच्च भाषा का प्रयोग दूसरा नहीं कर सकता, इसीलिए मैंने तुम्हारे को राजन् ! कहकर सम्बोधित किया है। राजा को योगो की बात पूर्ण रूप से सही ज्ञात हुई। वह योगी के चरणों में गिर गया। आज उसे जीवन का नया अनुभव प्राप्त हुआ था। Jain Education Internationa Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ चोर नहीं देवता सेठ धनपाल धारानगरी के प्रसिद्ध उद्योगपति थे । सत्यनिष्ठ होने के कारण उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक बढ़ चुकी थी कि सभी व्यक्ति उनको दिल से चाहते थे । उनकी दुकान पर रात-दिन भीड़ लगी रहती थी । धनपाल को किसी आवश्यक कार्य से उज्जैनी जाना था । वह एकाकी घोड़े पर बैठकर चल दिया । 1 मार्ग में जंगल पड़ता था, उस जंगल में क्रूर स्वभावी कालुसिंह तस्कर रहता था । लोग उसके नाम से काँप जाते थे । दूर से सेठ को आते हुए देखकर कालूसिंह ने मार्ग रोका। गंभीर गर्जना करते हुए कहा- कहाँ जा रहे हो ? बताओ तुम्हारे पास क्या है ? सेठ ने अपने हाथ को छोटी सी लकड़ी चोर को देते हुए कहा - इसमें चार अनमोल रत्न छिपाकर रखे हैं । इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी चीज तुम्हारे को देने योग्य मेरे पास नहीं है । चोर ने लकड़ी को गहराई से देखी, पर उसे मालम न हो सका कि इसमें रत्न कहां है ? उसे लगा सेठ झूठ १०२ Jain Education Internationa Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर नहीं देवता १०३ मूठ ही मुझे बना रहें है। उसने फिर गर्जना की, क्यों तुम मुझे भी ठगना चाहते हो ? सेठ ने दृढ़ता के साथ कहा- "मैं कभी किसी को ठगता नहीं और न कभी झूठ बोलता हूं । मैं जैन श्रावक हूं मेरा नाम धनपाल है। देखो, इस लकड़ी में ये चार रत्न हैं । सेठ ने लकड़ी को खोलकर बताया। चोर सेठ को सत्यनिष्ठा देखकर चकित हो गया। वह सेठ के चरणों में गिर पड़ा । मैंने तुम्हारे जैसा साहसी और सत्यनिष्ठ श्रावक नहीं देखा। मुझे आपके रत्न नहीं चाहिए, यह लकड़ी भी आप लेजाइए । परन्तु कृपा कर बताइए कि इस समय आप कहां जा रहे हैं ? सेठ–मैं उज्जैनी जा रहा हूँ, मुझे कोई आवश्यक कार्य है। चोर-सेठ आप मेरा भो एक काम करें। उज्जैनो के राजा विक्रम को कहें कि चोर कालसिंह आज से तीन दिन बाद दक्षिण के द्वार से रात को बारह बजे चोरी करने के लिए आयेगा। राजा जो भी बंदोबस्त करना चाहें सहर्ष कर सकता है। सेठ ने कहा-मैं आपका सन्देश महाराजा विक्रम को कह दूंगा । सेठ आनन्द से उज्जैनी को ओर बढ़ा जा रहा था। मन में विचार उठ रहे थे कि मेरी सत्यनिष्ठा ने मुझे बचा लिया। यदि मैं धन के लोभ से मिथ्या बोलता तो चोर मुझे परेशान भी करता और करोड़ों की कीमत के ये रत्न भी ले लेता। साथ ही उसे चोर Jain Education Internationa Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ फल और पराग पर भी आश्चर्य हो रहा था कि यह भी बड़ा विचित्र स्वभाव का है जो राजा को पूर्व सूचित कर चोरी करता है। सेठ उज्जनी पहुंचा, चोर का सन्देश राजा को कहा। जिस रात्रि को चोर आने वाला था उस दिन राजा विक्रम ने कहा-अन्य किसी को आज पहरा देने की आवश्यकता नहीं है। आज नगर का पहरा मैं स्वयं दूंगा। रात होने पर राजा ने चोर का वेश बनाया और दक्षिण दिशा की ओर जो द्वार था उसके बाहर जंगल में जाकर बैठ गया। आधी रात होते ही चोर कालसिंह आया । रास्ते में बैठे हुए व्यक्ति से पूछा-तुम कौन हो ? बैठे हुए व्यक्ति ने धीरे से कहा-मैं चोर हं चोरी करने के लिए उज्जैनी में जाना चाहता हूँ पर राजा के भय से जा नहीं पा रहा हूँ । कालूसिंह ने कहा—मित्र घबरा मत ! मेरे साथ चल । जो मैं धन चुराकर लाऊंगा उसमें से आधा हिस्सा तुझे भी दे दूंगा । वह कालुसिंह के पीछे-पीछे चल दिया। कालुसिंह ने नगर में प्रवेश किया, पर कहीं पर भी पुलिस का पहरा नहीं था। कालसिंह ने किसी सेठ की ऊँची हवेली देखी, साथ वाले व्यक्ति को वहीं पर बिठाकर वह हवेली में गया। पाँच मिनिट बाद वह पुनः खाली हाथ लौट आया । चोर वेशधारी राजा विक्रम ने पूछा-आप खाली हाथ कैसे लौट आये, क्या यहाँ पर कुछ भी धन आपको नहीं मिला? Jain Education Internationa Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोर नहीं, देवता १०५ कालूसिंह-धन की क्या कमी थी। मैं हीरे-पन्न माणक, मोतियों के आभूषणों से भरी हुई पेटी उठा रहा था कि इतने में घर की सेठाणी नींद में ही बड़ बड़ाई कि कौन है भाई ! जब उसने गहरी नींद में भी मुझे भाई कहा-तब मैं बहिन की सम्पत्ति किस प्रकार चोरी कर सकता था। मैंने पेटी वहीं रखदी और चला आया । चलो अब हम किसी दूसरे सेठ के वहां पर जाकर चोरी करें। कालूसिंह ने किसी सेठ की उच्च अट्टालिका में प्रवेश किया। दस पन्द्रह मिनिट बाद पुनः वह खाली हाथ लौट आया : चोर वेशधारी राजा विक्रम ने पूछा-आप तो इस समय भी खाली हाथ लौटे हैं, ऐसो कौन सो घटना घट गई जिससे आप चोरी न कर सके। कालूसिंह-मैं अफियों की पेटो लेकर आही रहा था कि मिश्री का ढेर समझ कर एक डली मुह में डालदी कि प्यास न सताएगी। पर वह मिश्री नहीं, नमक था। भूल से मैंने उसे मिश्री समझ ली थी। जिस घर का मैंने नमक खाया उस घर पर चोरी कैसे कर सकता ? मैं चोर हूं, नमक हरामनहीं। दोनों ही राजा विक्रम के खजाने को चोरी करने पहुँचे। चोर कालुसिंह चार रत्नों के डिब्बे लेकर खजाने से बाहर आया। उसने दो डिब्बे चोर वेशधारी विक्रम के हाथ में देना चाहा, इतने में उसके कानों में चिड़िया Jain Education Internationa Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूल और पराग के चहचाने की आवाज आयो। वह ठगा सा खड़ा रह गया । वह आंख फाड़कर देखने लगा। चोर वेशधारी विक्रम ने पूछा-क्या बात हो गई ? तुम्हारे चेहरे पर अकस्मात परिवर्तन कैसे आ गया ? उसने कहा-राजन् ! मैं पक्षियों की बोली समझता हूं। चिड़िया ने कहा है कि चोर के साथ स्वयं राजा विक्रम है। मुझे पता नहीं था। मैंने अपने मित्र के यहां चोरी की, इसी का विचार है कि मैं मित्र द्रोही हो गया। राजा ने कालूसिंह को गले लगा लिया। कालुसिंह तुम चोर होते हुए भी देवता हो । मैं तुम्हारे पर प्रसन्न हूं, तुम्हें मैं अपना प्रधानमंत्री बनाता हूँ। दोनों के आनन्दाथ छलक गये । Jain Education Internationa Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन प्रभा मधुर भाषिणी, सुशील व धर्मनिष्ठ महिला थी। उसके चेहरे पर इन दिनों में अपूर्व उल्लास व प्रसन्नता थी । वर्षों के पश्चात् उसकी आशा पूर्ण होने जा रही थी। भावी पुत्र की कल्पना कर उसका मन थिरक उठता था। रजनीकान्त ने धीरे से कमरे में प्रवेश किया। उसका मन अशान्त और उद्विग्न था। वह अपने दुःख को प्रकट करना नहीं चाहता था । कृत्रिम हंसी हंसते हुए उसने कहा---प्रभा ! तुम्हारा स्वास्थ्य तो ठीक है न ! प्रभा-मेरा स्वास्थ्य इन दिनों में बहुत अच्छा है। पर आपका मुख-कमल म्लान कैसे है ? क्या आपको कुछ कष्ट है ? रजनीकान्त-प्रभा ! मेरी स्थिति बड़ी विषम है, लगता है मुझे तीन चार दिनों में शहर छोड़कर भागना पड़ेगा । व्यापार में भयंकर नुकसान लग गया है । लाखों का कर्जा हो गया है । मैं अब अपना मुह दिखा नहीं सकता । वर्षों से मैं जिस पुत्र के लिए छटपटा रहा था Jain Education Internationa Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ फूल और पराग अव मेरी आशा पूर्ण होने जा रही है, मैं उसका ठाट से पुत्रोत्सव मनाता, पर खेद है कि उसका मुंह देखने के लिए भी इस समय उपस्थित न रह सकूंगा । प्रभा ने ज्यों ही यह बात सुनी त्योंही उसके आँखों के आगे अंधेरा छा गया। आकाश घूमने लगा, पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी तथापि उसने अपना सारा सहास बटोर कर कहा - नाथ ! चिन्ता न कीजिए ! दुःख तो इन्सान की परीक्षा के लिए आता है। आग में तपकर ही सोना चमकता है, पत्थर पर घिसकर ही चन्दन महकता है । ये दुःख की घड़ियां भी शीघ्र चली जायेंगी। यदि आपको यहां रहने से कष्ट होता हो तो आप प्रसन्नता से व्यापार के लिए विदेश चले जाइए । मेरी चिन्ता न कीजिए और न भावी पुत्र की ही । 7 रजनीकान्त -- प्रभा ! तुम वस्तुतः भारत की वीरांगना हो । तुम्हारे साहस और धैर्य ने मेरे मन में अभिनद चेतना का संचार किया है। मैं आज ही रात को यहां से जाना चाहता हूँ । तुम्हें किसी भी वस्तु की आवश्यकता हो तो मेरे मित्र किशोर को सूचित कर देना । व्यापार चलने पर मैं तुम्हें समय समय पर मनिआर्डर आदि से पैसा भेजता रहूँगा । रजनीकान्त आधी रात में नगर को छोड़कर चला गया । वह सीधा ही बम्बई पहुँचा । भाग्य ने साथ दिया, उसने अच्छा पैसा कमाया। उसकी इच्छा अमेरिका जाकर व्यापार करने की हुई । वह अमेरिका पहुँच गया । निरन्तर Jain Education Internationa Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन १०६ सोलह वर्ष रहकर उसने करोड़ों रुपए कमाए ! प्रभा ने रजनी को पत्र लिखा, प्रियतम ! यहाँ से गये हुए को अठारह वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। आप दो वर्ष बम्बई रहे और सोलह वर्ष अमेरिका में । आपके जाने के कुछ दिन बाद ही आपके पुत्र हुआ, मैंने उसका नाम नरेन्द्र रखा है। वह ह.-बहु आपके समान ही है । गौर बदन, तेजस्वी नेत्र, विशाल भुजाएँ उन्नत ललाट । लोग कहते हैं यह तो रजनीकान्त की ही प्रतिकृति है । उसने मुझे कितनी बार कहा है कि पिताजी कब आवेंगे ? वह आपके दर्शनों के लिए लालायित हो रहा है । आप एक बार शीघ्र आजाइए, फिर यदि आवश्यक कार्य हो तो पधार जाइएगा। . रजनीकान्त ने पत्र पढ़ा, उसे विचार हुआ कि अब मुझे एक बार अवश्य ही घर जाना चाहिए। उसने अपना प्रोग्राम बनाया और पुत्र नरेन्द्र व प्रभा को पत्र लिख दिया कि दिनाङ्क पाँच जनवरी को स्टीमर से रवाना होकर पाँच फरवरी को पाँच बजे प्रातःकाल में बम्बई बन्दरगाह पर उतरूंगा। वम्बई में बन्दरगाह के सन्निकट जो नवीन 'स्मृति' धर्मशाला है उसमें ठहरूंगा। पत्र पढ़कर प्रभा प्रमुदित थी। नरेन्द्र जब कालेज से आया तब प्रभा ने कहा-पाँच फरवरी को पाँच बजे तुम्हारे पिताजी बम्बई आ रहे हैं ' क्या तुम उनके स्वागत के लिए बम्बई जाओगे । देखो यह उनका पूरा पता है। प्रभा ने पत्र को देते हुए कहा । Jain Education Internationa Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० फल और पराग नरेन्द्र पिता श्री के स्वागत के लिए चार फरवरी को ही बम्बई पहुँच गया और जिस धर्मशाला में पिता जी ठहरने वाले थे। उसी में जाकर ठहर गया। रात में ही नरेन्द्र के पेट में अपेन्डिसाइटिस का दर्द हो गया। नरेन्द्र रात भर इधर-उधर करवटें बदलता रहा। दर्द मिटने के बजाय बढ़ता हो चला गया। वहाँ कोई परिचित भी तो नहीं था, जिसे वह अपनी बात कह सके। प्रातःकाल होते होते तो दर्द असह्य हो गया था । ठीक समय पर रजनीकान्त बम्बई पहुंचा और उसी धर्मशाला में जाकर ठहर गया। व्यापारिक सम्बन्ध के नाते सैकड़ों व्यक्ति उससे मिलने के लिए आ रहे थे। पास ही के कमरे में नरेन्द्र भयंकर दर्द से कराहरहा था। मछली की तरह छटपटा रहा था। उसका करुण-क्रन्दन सुनकर रजनीकान्त आपे से बाहर हो गया। क्या यह धर्मशाला है या कंजरों का डेरा है ? कितना कोलाहल है। मेरा तो इसने मूड़ ही बिगाड़ दिया है। उसने नौकर को आदेश दिया कि पास के कमरे में जो लड़का रो रहा है खाट को उठाकर धर्मशाला के बाहर फेंक दो । यदि धर्मशाला का मैनेजर एतराज करे तो पच्चीस रुपए के नोट उसके हाथ में दे देना। रजनीकान्त के आदेश से नरेन्द्र को धर्मशाला के बाहर वृक्ष के नोचे रख दिया गया । कुछ दयालु राहगीरों ने देखा, लड़के को अनाथ समझकर उन्होंने उसका उपचार करवाना चाहा, किसी ने कहा-स्मृति धर्मशाला में आज एक करोड़पति सेठ. Jain Education Internationa Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन १११ अमेरिका से आया है, उसे कहा जाय तो चार सौ पाँच सौ रुपए सहज रूप में उपचार के लिए मिल सकते हैं । तीन चार व्यक्ति मिलकर रजनीकान्त के पास गये । लड़के की गंभीर स्थिति का दिग्दर्शन कराया और उपचार के लिए सहायता माँगी । रजनीकान्त ने साफ इन्कारी करते हुए कहा- मेरा पैसा पुत्र, पत्नी और परिवार के लिए है । रास्ते चलते हुए ऐरे-गेरे लोगों को देने के लिए नहीं । दुनिया में हजारों व्यक्ति बीमार होते हैं और मरते हैं मैं किन-किन की चिन्ता करूं । वे निराश होकर लौट गये । उन्होंने जाकर देखा नरेन्द्र अन्तिम सांस ले रहा था । उसकी संभाल लेने वाला कोई नहीं था । नरेन्द्र के मरते ही पुलिस वहां आयी उसने नरेन्द्र की झड़ती लो । जेब में से दो सौ रुपए और रजनीकान्त के हाथ का लिखा हुआ पत्र निकला। पुलिस ने रजनीकान्त के हाथ में पत्र देते हुए कहा- क्या यह पत्र तुम्हारा है । पत्र को देखते ही रजनीकान्त घबरा गया । उसने कहा- यह पत्र मैंने अपने पुत्र नरेन्द्र को लिखा था, पर तुम कहां से लाये हो ? पुलिस ने बताया - एक अठारह-बीस वर्ष का लड़का धर्मशाला के बाहर ही वृक्ष के नीचे मर चुका है, उसी की जेब से यह पत्र निकला है। रजनीकान्त को समझने में देर न लगी कि पास के कमरे में जो लड़का दर्द से कराह रहा था वह उसी का लड़का नरेन्द्र था । वह उसके Jain Education Internationa Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ फल और पराग स्वागत के लिए आया होगा, पर दर्द के कारण वह स्वागत न कर सका, मैं कैसा दुष्ट हैं, मैंने उसे धर्मशाला के बाहर फिकवा दिया। मैंने उसके पास जाकर यह भो न पूछाबेटा क्यों चिल्ला रहा है। तेरे को क्या दर्द है । कुछ दयालु व्यक्ति उसका उपचार करवाना चाहते थे, वे मेरे पास कितनी आशा लेकर आये थे, पर मैं धन का लोभो निकला, उन्हें एक पैसा भी न दे सका, उलटा उन्हें ऐसा फटकार दिया, बेचारे निराश होकर चले गये। मैं कितना क्रूर ! हत्यारा !! और अधम हैं । मेरे कृत्यों का फल मुझे मिल गया। रजनोकान्त भागता हुआ नरेन्द्र के शव के पास आया। जैसा प्रभा ने लिखा था वैसी ही उसकी आकृति थी। कितना सुहावना है इसका रूप । उसकी आँखों से आंसुओं की धारा छूट रही थी। और मन में क्रूर कृत्यों के प्रति गहरा पश्चात्ताप हो रहा था । वह अपने आपको कोस रहा था कि उसकी नृशसता ने ही उसके लड़के को मारा है। यदि वह लड़के को धर्मशाला से बाहर नहीं फिकवाता, उसका उपचार करवाता, मांगने वाले को भी पैसा दे देता तो यह स्थिति कभी भी नहीं बनती। वस्तुतः मैं ही पुत्र का हत्यारा हूँ। वह पुत्र की लाश को गले लगाकर सुबक-सुबक कर लम्बे समय तक रोता रहा । अन्त में उसकी अन्त्येष्ठी क्रिया कर रजनीकान्त उदास मन घर पहुँचा। प्रभा पलक पावडे बिछाए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। नरेन्द्र को न देखकर प्रभा ने रजनीकान्त को पूछा Jain Education Internationa Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तन ११३ नरेन्द्र कहां है ? रजनीकान्त ने सम्पूर्ण घटना विस्तार के साथ उसे बता दी । पुत्र की मृत्यु के समाचारों से प्रभा के हृदय को गहरा आघात लगा । वह बेहोश होकर गिर पड़ी । रजनीकान्त डाक्टर बुलाता है । डाक्टर ने आकर देखा - प्रभा को हार्ट का दौरा हुआ है । उसको नाड़ी की गति बन्द हो गई है । रजनीकान्त पर तो आपत्ति का पहाड़ ही टूट पड़ा । जिस पुत्र और पत्नी के लिए उसने कठिन श्रम कर धन कमाया, आज उसके सामने ही वे संसार से चल बसे । धन के लोभी रजनीकान्त को अपने पर ही घृणा होने लगी । उसे रह-रह कर प्रभा की बात याद आ रही थी । उसने कितनी बार उसे जन-जन के कल्याण के लिए सम्पत्ति अर्पण करने की बात कही थी । दान की प्रेरणा दी थी, परन्तु उसने कभी भी अपने मन से एक पैसा भी खर्च नहीं किया । उसकी अनुदार वृत्ति ने ही उसके पुत्र को मारा, और पत्नी को भी । उसने उसी समय अपना सारा धन, अनाथालय, चिकित्सालय, विद्यालय आदि जन कल्याण के लिए समर्पित कर दिया । और स्वयं सेवा के कार्य में जुट गया । Jain Education Internationa Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कसाई केवली बना आचार्य धर्मघोष अपने अनेक शिष्यों सहित जन-जन के मन में त्याग निष्ठा,संयम प्रतिष्ठा उत्पन्न करते, अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की ज्योति जगाते, पैदल परिभ्रमण करते हुए वाराणसी पधारे। भावुक भक्तों ने और श्रद्धालु-श्रावकों ने उनका हृदय से स्वागत किया। जुलुस नगर के मध्य में से होकर जा रहा था । एक शिष्य की दृष्टि पास ही के एक मकान में गिरी । एक व्यक्ति हाथ में चमचमाती तलवार लेकर एक गाय को मारने की तैयारी कर रहा है। शिष्य के रोंगटे खड़े हो गये। उसका हृदय अनुकम्पा से कांप उठा। शिष्य ने गुरुदेव से जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! यह कसाई कितना क र, निर्दयी और हत्यारा है, तनिक से अपने स्वार्थ के लिए, निरपराधी मूक प्राणी को मारने जा रहा है। देखो न ! मरने के भय से पशु कांप रहा है। बंधन से मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है किन्तु इसे बिल्कुल ही दया नहीं आ रही है। भगवन् । कृपा कर बताइए यह कसाई मर कर कहां जायेगा ? पशुयोनि में या नरक योनि में। ११४ Jain Education Internationa Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसाई केवली बना ११५ अवधिज्ञानी आचार्य धर्मघोष ने कहा--यह कसाई मर कर नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में नहीं, अपितु मोक्ष में जायेगा। कसाई और मोक्ष यह तो बिल्कुल ही असंभव है भगवन् ! हजारों प्राणियों को कतल करने वाला कसाई यदि मोक्ष में जायेगा तो फिर साधकों को क्या स्थिति होगी शिष्य ने आश्चर्य मिश्रित मुद्रा में कहा ! आचार्य-वत्स ! मोक्ष और बंध का कारण भाव है। भाव से कर्म बंध भी सकते हैं और छूट भी सकते हैं। शिष्य चिन्तन की गहराई में डुबको लगाता हुआ चल रहा था। उपाश्रय के सन्निकट आचार्य देव पहँचे ही थे कि आकाश में देवकुंदुभि के गड़गड़ाहट की आवाज सुनाई दी ? शिष्य ने पूछा-भगवन् । यह देवदुदुभि की आवाज कहां से आ रही है। आचार्य-जिस कसाई के लिए मैंने कहा था यह मोक्ष में जायेगा, उसी कसाई को केवलज्ञान, केवल दर्शन उत्पन्न हुआ है। उसका देवगण दुदुभि बजाकर महोत्सव मना रहे हैं। भगवन् ! गाय को मारने की तैयारी करते हुए कसाई को यकायक केवलज्ञान कैसे हो गया ? शिष्य ने जिज्ञासा अभिव्यक्त की। ___आचार्य देव ने ज्ञान से देखकर कहा--कसाई तलवार से गाय को मारना चाहता था, उसने जोर से उस पर Jain Education Internationa Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ फूल और पराग तलवार चलाई। गाय उछलकर एक ओर हो गई, असावधानी से तलवार के द्वारा उसकी कनिष्ठ अंगुली कट गई। अपार वेदना होने लगी। कसाई सोचने लगामेरो छोटी सी अंगुली कटने पर मुझे कितना दर्द हो रहा है, मैंने अपने जीवन में हजारों प्राणियों को काटा उन्हें कितना दर्द हुआ होगा । मुझे धिक्कार है ! भावना की उत्तरोत्तर विशुद्धि हई, कर्म दल नष्ट होते गये। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय को नष्ट कर वह केवलज्ञानी बन गया। शिष्य को 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो' की बात समझ में आ गई। वह भी अपने जीवन का अन्तनिरीक्षण करता करता केवली बन गया। Jain Education Internationa Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक की महत्त्वपूर्ण कृतियां १ ऋषभदेव : एक परिशीलन (शोध प्रबन्ध) मूल्य ३ रु. प्रकाशक-सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी आगरा-२. २ धर्म और दर्शन : (निबन्ध) मूल्य ४ रु. प्रकाशक--सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी आगरा-२. ३ भगवान् पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन (शोध प्रबन्ध) मूल्य ५ रु. प्रकाशक-पं० मुनि श्रीमल प्रकाशन, जैन साधना सदन, २५६ नानापेठ पूना-२. ४ साहित्य और संस्कृति-(निबन्ध) मूल्य १० रु. _ प्रकाशक-भारतीय विद्या प्रकाशन, पो. बोक्स १०८, कचौड़ी गली, वाराणसी-१. ५ चिन्तन की चाँदनी : (उदबोधक चिन्तन सूत्र) मूल्य ३ रु. प्रकाशक-श्री तारक गुरु ग्रन्थालय, पदराड़ा, ___जिला उदयपुर (राजस्थान) ६ अनुभूति के आलोक में (मौलिक चिन्तन सूत्र), मूल्य ४ रु. प्रकाशक---श्री तारक गुरु ग्रन्थालय, पदराडा, जिला उदयपुर (राजस्थान) Jain Education Internationa Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ संस्कृति के अंचल में (निबन्ध) मूल्य १.५० प्रकाशक-सम्यक् ज्ञान प्रचारक मंडल, जोधपुर ८ कल्पसूत्र : मूल्य राजसंस्करण २० रु०. साधारण १६.. प्रकाशक-श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान, __ गढ़सिवाना, जिला बाडमेर (राज.) ६ फूल और पराग : (कहानियाँ) मूल्य १.५० प्रकाशक---श्री तारक गुरु ग्रंथालय, पदराडा, जिला उदयपुर (राज.) १० खिलता कलियाँ मुस्कराते फूल : (लघुकथा) __ मूल्य ३.५० पैसे प्रकाशक-श्री तारक गुरु ग्रन्थालय, पदराडा जिला उदयपुर (राज.) ११ अनुभवरत्न कणिका (गुजराती चिन्तन सूत्र) मूल्य २ रु. सन्मति साहित्य प्रकाशन, व० स्थानकवासी जैनसंघ, उपाश्रय लेन, घाटकोपर, बम्बई-८६ १२ चिन्तन नी चाँदनी : (गुजराती भाषा में) मूल्य ४ रु. प्रकाशक - लक्ष्मी पुस्तक भंडार, गांधी मार्ग अहमदाबाद सम्पादित १३ जिन्दगी की मुस्कान (प्रवचन संग्रह) मू० १.४० १४ जिन्दगी की लहरें , २.५० १५ साधना का राजमार्ग ,, २.५० Jain Education Internationa Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ राम राज : (राजस्थानो प्रवचन) मूल्य १ रु. २७ मिनखपणा रौ मोल , १ रु. सभी के प्रकाशक-सम्यक ज्ञान प्रचारक मंडल, जोधपुर (राजस्थान) १८ ओंकार : एक अनुचिन्तन : मूल्य १ रु. १६ नेमवाणी : (कविवर पं० नेमिचन्द जी महाराज की कविताओं का संकलन । मूल्य २.५० प्रकाशक-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, पदराडा, उदयपुर (राजस्थान) २० जिन्दगी नो आनन्द : (गुजराती प्रवचन) मू० ३.२५ २१ जीवन नो झंकार : ४.५० २२ सफल जीवन : ३.७५ २३ स्वाध्याय : ०.५० २४ धर्म अने संस्कृति : (गुजराती निबन्ध) ४ रु. इन सभी के प्रकाशक-लक्ष्मी पुस्तक भण्डार, गांधीमार्ग, अहमदाबाद-१ २५ मानव बनो : अमूल्य प्रकाशक-बुधवीर स्मारक मण्डल जोधपुर शीघ्र प्रकाशित होने वाले ग्रन्थ२६ भगवान् अरिष्टनेमि और श्री कृष्ण २७ कल्पसूत्र (गुजराती संस्करण) Jain Education Internationa Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ विचार रश्मियाँ २६ चिन्तन के क्षण ३० महावीर जीवन दर्शन ३१ महावीर साधना दर्शन ३२ महावीर तत्त्व दर्शन ३३ अतीत के कम्पन ३४ सांस्कृतिक सौन्दर्य ३५ आगम मंथन ३६ स्मृति चित्र ३७ अन्तगड दशा सूत्र ३८ अनेकांतवाद : एक मीमांसा ३६ संस्कृति रा सुर ४० अणविध्या मोती ४१ जैन लोक कथाएँ (नो भाग) ४२ जैन धर्म : एक परिचय ४३ ज्ञाता सूत्र : एक परिचय ४४ महासतीश्री साहेबकुवर जी : व्यक्तित्व और कृतित्व मुनि श्री के सभी प्रकाशन निम्न पते पर प्राप्त हो सकेंगे। श्री लक्ष्मी पुस्तक भण्डार गांधी मार्ग, अहमदाबाद-१ Jain Education Internationa Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक को महत्वपूर्ण कृतियाँ भगवान पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन भगवान अरिष्टनेमी और श्रीकृष्ण खिलती कलियाँ मुस्कराते फूल ऋषभदेव : एक परिशीलन ओंकार : एक अनुचिन्तन अनुभूति के आलोक में साहित्य और संस्कृति अनुभव रत्न कणिका साधना का राजमार्ग मिनख पणारो मोल जिन्दगी की मुस्कान संस्कृति के अंचल में चिन्तन की चांदनी जिन्दगी की लहरें फूल और पराग धर्म और दर्शन नेम वाणी राम राज कल्पसूत्र फूल और पराग - श्री देवेन्द्र मुनि 11-2 मूल्य 150 आवरण पृष्ठ के मुद्रकः मोहन मुद्रणालय, आगरा-२ P o l ainelibrary.org