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हार
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विकट समस्या सुलझ गई । यदि आप उस दिन मुझे सहयोग न देते तो हम तीनों प्राणी आत्महत्या कर लेते । मैं आपका जीवन भर उपकार नहीं भूलंगा। आप व्याज सहित रुपए लोजिए। मैंने इन रुपयों से व्यापार किया, भाग्य ने साथ दिया, हजारों रुपए कमाए अब मैं अर्थसंकट से मुक्त हो गया हूं।"
दीवान ने कहा-"भाई । मुझे ये रुपए नहीं चाहिए, आप ये रुपए, आपकी तरह हो जो कष्ट में पड़ा हुआ व्यक्ति हो उन्हें अर्पित कर दीजिएगा। और यह आप अपना हार ले जाइये ।" दीवान ने हार आगन्तुक व्यक्ति के सामने रखा। हार को देखते हो आगन्तुक व्यक्ति के आँखों में आँसू आ गये। "दीवान जी! यह हार मेरा नहीं आपका ही है मैं हार का चोर हूं। मैंने परिस्थितिवश धर्म स्थानक से हार चुराया था। मैंने आपका भयंकर अपराध किया है आप चाहे जो दण्ड प्रदान कर सकते हैं।
दोवान-"भाई ! दण्ड के अधिकारी तुम नहीं, मैं हूँ। मैंने अनेक अपराध किये हैं, सर्व प्रथम धर्म स्थानक में मिथ्या अहं का प्रदर्शन किया। दूसरों से अपने आपको महान् बताने के लिए ही मैंने आभूषण पहने थे । दूसरी वात शासन की बागडोर मेरे हाथ में थो, आज दिन तक मैं अपनी असीम तृष्णा को पूरी में लगा रहा । मैंने कभो भी दूसरों को सुध-बुध भी नहीं ली । तीसरी बातमैं राज्य के द्वारा भी ऐसो व्यवस्था करवा सकता था जिससे जन-साधारण का जोवन आनन्द से व्यतीत हो,
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