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फूल और पराग
पत्नियों से कहा और वे शुभ मूहूर्त देखकर विदेश यात्रा के लिए प्रस्थित हो गए ।
लड़कों के जाने के पश्चात् सेठ सागर पुत्र वधुओं के पास आया। उसने आदेश के स्वर में कहा - "तुम्हारे पास जितना भी जेवर और धन हो वह सभी मेरे अधीन कर दो। मैं नहीं चाहता कि धन का अपव्यय किया जाय । पुत्रों के खर्चों से तंग आकर ही मैंने उनको विदेश भेजा है । तुम्हें अब भोजन बनाने को आवश्यकता नहीं है, मैंने एक नौकरानी रख दी है वह सुबह और सायंकाल आकर भोजन बना देगी, बताओ तुम कितना खाओगी । चार-चार रोटियां तो तुम लोगों के लिए पर्याप्त होगी न।
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रोटी के साथ लगाने के लिए चटनी आदि भी तुम्हें दी जायेगी। मैंने नौकरानी को यह भी सूचित कर दिया है कि टिफिन में सोलह रोटियां चटनी और पानी खिड़की से तुम्हें दे दिया करें। तुम्हारे कमरों में गुशलखाना और संडास दोनों हैं अतः इधर उधर तुम्हें कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं । मैं कमरे के बाहर ताला लगाये देता हँ ।"
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पिता के घर में स्वतंत्र रूप से घूमने वाली, मन-माना भोजन करने वाली चारों बालाओं को धन के लोभी सागर ने कालगृह की कोठरियों में बन्द कर दिया ।
आशा, उषा, वर्षा और भारती ने सोचा- " अब रोते बिलखते हुए जीवन को बरबाद करना बुद्धिमानी नहीं है । सहज रूप से हमें धर्म साधना का अवसर मिला है ।
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