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सूर्य अस्त होने जा रहा था । दिशाएं लाल हो चुकी थीं । महाराजा अजितसिंह को राजसभा विसर्जित हो रही थी। उस समय दोवान चतुरसिंह ने राजा के सन्निकट आकर निवेदन किया, "राजन् ! मैं कल का अवकाश चाहता हूँ। मैं अत्यधिक आवश्यक कार्य से कल राजसभा में उपस्थित न हो सकेंगा।"
राजा ने पूछा- "दीवान जो ! ऐसा कौन सा कार्य है ?"
दीवान—“राजन् । कल जैन संस्कृति का पावन पर्व पर्युषण का अन्तिम दिन सम्वत्सरी है। संवत्सरी जैन साधकों के अन्तनिरीक्षण का दिन है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का दिन है। इस दिन प्रत्येक साधक का कर्तव्य है कि वह शान्त चित्त से अपने जीवन को टटोले । गत बारह माह में जो भूलें हो चुकी हैं उसका परिमार्जन करे और भविष्य में उन भूलों को पुनरावृत्ति न हो एतदर्थ सावधानी रखे।"
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