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हार
राजा-"दीवान जी ! यह तो बड़ा सुन्दर पर्व है। आप अवश्य हो आध्यात्मिक साधना करें।"
दोवान चतुरसिंह आध्यात्मिक साधना करने के लिए प्रातःकाल धार्मिक उपकरणों को लेकर पोषधशाला में पहुँच गया । उसने अपने गले में से मोतियों का हार अन्य आभूषण व वस्त्र निकाले, धार्मिक क्रिया के उपयुक्त वस्त्रों को धारण किये। पौषध व्रत को स्वीकार किया । आत्म-भाव में स्थिर हो गए।
पर्वाराधन करने के लिए हजारों व्यक्ति आये हुए थे। एक अभावग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि दोवान के मोतियों के हार पर गिरी। उसने दृष्टि बचाते हुए वह हार चुराया और घर का ओर चल दिया । धर्म स्थानक से निकलकर कुछ दूर गया ही था कि उसके विचारों में उथल-पुथल मच गई। अरे ! मैंने भयंकर अनर्थ कर दिया । पर्व का पावन दिन । धर्म स्थानक में धर्म के बजाय पाप किया है। अन्य स्थलों पर किये गये पाप की मुक्ति धर्म स्थानक में होती है, किन्तु धर्मस्थानक में अजित पाप की मुक्ति कहां होगो ? मुझे धिक्कार है।" वह पश्चात्ताप की आग में एक ओर झुलस रहा था, दूसरी ओर उसके मन में विचार आ रहा था कि उसकी पत्नी छह महीनों से बीमार पड़ी है, कल ही तो दवाई वाले का, अस्पताल का, और डाक्टर का बिल पेमेन्ट करना है, दूध वाले और सब्जी वाले के पैसे चुकाने हैं। लड़कों के स्कूल की फीस देनी
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