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फूल और पराग
है, मकान मालिक को छह मास से किराया नहीं दिया है, वह भी देना है, इस प्रकार अभावों की वेदना कसक रही थी। इसी उधेड़ बुन में वह घर की ओर बढ़ा जा रहा था।
घर में पत्नी बिस्तर पर लेटी-लेटो वेदना से कराह रही थी। उसके मन में विचार चल रहे थे, आज सम्वत्सरी का पुनीत पर्व है। स्वास्थ्य ठीक न होने से मैं उपाश्रय में न जा सकी । आज दवाई आदि न लेकर मैं उपवास करूँगी। उसके मन में अनेक विचार आ रहे थे, उसी समय पति ने मकान में प्रवेश किया। उसने पत्नी के हाथ में चमचमाता हुआ बहुमूल्य हार देते हुए कहा-अब तो जीवन में सारी समस्याएं सुलझ जायेंगी। यह लाखों की कीमत का है। हार को देखते ही पत्नी की आंखें चुधिया गई,वह बोली---"नाथ ! यह बहुमूल्य हार कहाँ से लाये हैं ?" उसने घटित घटना सुनाते हुए भविष्य की रंगीन कल्पनाएँ प्रस्तुत की।
पत्नी का चेहरा मुरझा गया। "नाथ ! आपने यह अधम कार्य क्यों किया ? आज तो सम्वत्सरी का पावन पर्व । उपाश्रय जैसे पवित्र स्थान में चोरी जैसा निकृष्ट पाप कहाँ तक उचित है ? पाप से प्राप्त किया गया पैसा जीवन में सुख और शान्ति का संचार नहीं कर सकता। चोरी से प्राप्त की गई सम्पत्ति, सम्पत्ति नहीं विपत्ति है। नाथ ! अन्न खाया जा सकता है, धूल नहीं। यह धन भी धूल के समान है, इसका उपयोग नहीं किया
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