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________________ हार जा सकता। मेरी नम्र प्रार्थना है कि आप इसे पुनः लौटा दें।" दीवान चतुरसिंह उस दिन आध्यात्मिक चिन्तन को गहराई में डुबकी लगाते रहे। उन्हें अपूर्व आनन्द का अनुभव हो रहा था। जो सुख, असन, बसन, भवन व परिजन में नहीं मिला,वह सुख आज उन्हें प्राप्त हुआ। साधना का समय पूर्ण हुआ। दोवान आत्मानन्द की मस्ती में झूम रहे थे। वस्त्रों को बदलने के लिए ज्यों हो उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया, त्यों हो देखः नौ लाख को कीमत का हार गायब है। एक क्षण उन्हें हार के जाने का दुःख हुआ, पर दूसरे हो क्षण उन्हें विचार आया, इस दोष का भागी मै स्वयं हूँ। मैं देश का दीवान कहलाता हूँ। अपने स्वार्थ के लिए तो मैं अहर्निश प्रयत्न करता रहता हूँ पर कभी भी मैंने अपने दोन-हीन बन्धुओं को ओर ध्यान नहीं दिया। उनको व्यवस्था नहीं को। पक्षियों में कौआ सबसे निकृष्ट कहलाता है, पर वह कभी भी अकेला नहीं खाता। वह अपने साथियों को खिलाकर स्वयं खाता है । मैं तो उससे भो गया गुजरा रहा । धर्म स्थानक में से, और सम्वत्सरी जैसे महापर्व के अवसर पर हार ले जाने वाला कोई अभाव ग्रस्त व्यक्ति ही होना चाहिए। हार ले जाकर उसने मेरे पर महान् उपकार किया है। मुझे अपने कर्तव्य का भान कराया है। अब से मैं उन सभी भाई बहिनों का ध्यान रखगा अपने कर्तव्य के पालन करने में सदा तत्पर Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003196
Book TitleFool aur Parag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1970
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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