________________
११२
फल और पराग
स्वागत के लिए आया होगा, पर दर्द के कारण वह स्वागत न कर सका, मैं कैसा दुष्ट हैं, मैंने उसे धर्मशाला के बाहर फिकवा दिया। मैंने उसके पास जाकर यह भो न पूछाबेटा क्यों चिल्ला रहा है। तेरे को क्या दर्द है । कुछ दयालु व्यक्ति उसका उपचार करवाना चाहते थे, वे मेरे पास कितनी आशा लेकर आये थे, पर मैं धन का लोभो निकला, उन्हें एक पैसा भी न दे सका, उलटा उन्हें ऐसा फटकार दिया, बेचारे निराश होकर चले गये। मैं कितना क्रूर ! हत्यारा !! और अधम हैं । मेरे कृत्यों का फल मुझे मिल गया।
रजनोकान्त भागता हुआ नरेन्द्र के शव के पास आया। जैसा प्रभा ने लिखा था वैसी ही उसकी आकृति थी। कितना सुहावना है इसका रूप । उसकी आँखों से आंसुओं की धारा छूट रही थी। और मन में क्रूर कृत्यों के प्रति गहरा पश्चात्ताप हो रहा था । वह अपने आपको कोस रहा था कि उसकी नृशसता ने ही उसके लड़के को मारा है। यदि वह लड़के को धर्मशाला से बाहर नहीं फिकवाता, उसका उपचार करवाता, मांगने वाले को भी पैसा दे देता तो यह स्थिति कभी भी नहीं बनती। वस्तुतः मैं ही पुत्र का हत्यारा हूँ। वह पुत्र की लाश को गले लगाकर सुबक-सुबक कर लम्बे समय तक रोता रहा । अन्त में उसकी अन्त्येष्ठी क्रिया कर रजनीकान्त उदास मन घर पहुँचा। प्रभा पलक पावडे बिछाए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। नरेन्द्र को न देखकर प्रभा ने रजनीकान्त को पूछा
Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org