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________________ ११० फल और पराग नरेन्द्र पिता श्री के स्वागत के लिए चार फरवरी को ही बम्बई पहुँच गया और जिस धर्मशाला में पिता जी ठहरने वाले थे। उसी में जाकर ठहर गया। रात में ही नरेन्द्र के पेट में अपेन्डिसाइटिस का दर्द हो गया। नरेन्द्र रात भर इधर-उधर करवटें बदलता रहा। दर्द मिटने के बजाय बढ़ता हो चला गया। वहाँ कोई परिचित भी तो नहीं था, जिसे वह अपनी बात कह सके। प्रातःकाल होते होते तो दर्द असह्य हो गया था । ठीक समय पर रजनीकान्त बम्बई पहुंचा और उसी धर्मशाला में जाकर ठहर गया। व्यापारिक सम्बन्ध के नाते सैकड़ों व्यक्ति उससे मिलने के लिए आ रहे थे। पास ही के कमरे में नरेन्द्र भयंकर दर्द से कराहरहा था। मछली की तरह छटपटा रहा था। उसका करुण-क्रन्दन सुनकर रजनीकान्त आपे से बाहर हो गया। क्या यह धर्मशाला है या कंजरों का डेरा है ? कितना कोलाहल है। मेरा तो इसने मूड़ ही बिगाड़ दिया है। उसने नौकर को आदेश दिया कि पास के कमरे में जो लड़का रो रहा है खाट को उठाकर धर्मशाला के बाहर फेंक दो । यदि धर्मशाला का मैनेजर एतराज करे तो पच्चीस रुपए के नोट उसके हाथ में दे देना। रजनीकान्त के आदेश से नरेन्द्र को धर्मशाला के बाहर वृक्ष के नोचे रख दिया गया । कुछ दयालु राहगीरों ने देखा, लड़के को अनाथ समझकर उन्होंने उसका उपचार करवाना चाहा, किसी ने कहा-स्मृति धर्मशाला में आज एक करोड़पति सेठ. Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003196
Book TitleFool aur Parag
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1970
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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