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करनी जैसी भरनी
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लगाना होगा। सुबह होते ही उसने सुथार को बुलाया, और लकड़े को इस प्रकार कुतरवा दिया कि वह उसमें आसानी से सो सके । छिद्र आदि भी बना दिए जिससे हवा आदि आने में दिक्कत न रहे । सायंकाल ही धीरे से वह उसमें जाकर सो गया । आधी रात में पुत्रवधुए उस पर बैठकर आकाश में उड़ीं और रत्नद्वीप पहुँच गईं । लकड़े को एक स्थान पर छोड़कर वे चारों खुली हवा में चहल कदमी करने गईं । छिद्रों से चाँदनी के प्रकाश में सागर ने देखा, वे जरा दूर घूमने के लिए बगीचे में गई हैं, वह लकडे से बाहर निकला । रत्नों की विराट् राशि को देखकर वह पागल हो गया । चारों ओर से रत्नों को बटोरने लगा । लकड़े में रत्न भर दिए, फिर सोचा मैं कहीं बाहर न रह जाऊ, उसने कुछ रत्न भर दिए और अपने शरीर को संकोच कर उसमें बैठ गया। जितने भी अधिक रत्न वह ले सकता था उसने ले लिए । चारों घूमकर वहाँ आयीं एक-एक रत्न लेकर वे लकड़े पर बैठ गई, और मंत्र के कारण लकड़ा आकाश में उड़ा । समुद्र पर होकर वे चारों अपने नगर की ओर बढ़ी जा रही थीं। लकड़े में वजन की अधिकता के कारण चूं चूं की आवाज आ रही थी । आशा ने कहा - " बहिन ! उषा इतने दिनों तक इस लकड़े में चूं चूं को आवाज नहीं आयी, आज किस कारण से यह आवाज आ रही है ।" वर्षा और भारती ने कहा - " तुम्हारी बात सही है ।"
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